पूर्वजन्मों की अनुभूति ने कराया आत्मबोध

November 2000

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जीवन केवल वर्तमान देह तक सीमित नहीं है। वर्तमान देह तो बस चिर अतीत से चली आ रही जीवनक्रम की विविध शृंखलाओं में जुड़ने वाली एक कड़ी है। सूक्ष्मशरीरधारी ज्योतिर्मय सद्गुरु के वचन साधक श्रीराम को गहन आत्मपरिचय के लिए प्रेरित करने लगे। वह अभी भी पद्मासन पर ध्यान मुद्रा में बैठे थे। सामने पूजा की चौकी पर अभी भी घृतदीप अपना प्रकाश बिखेर रहा था। हालाँकि उसकी प्रभा सद्गुरुदेव के सूक्ष्मशरीर से विकरित होते आलोक के समक्ष नगण्य लग रही थी। उन ज्योतिपुँज गुरुसत्ता के अधरों पर हल्का-सा स्मित झलका। इस स्मित में अपने योग्य शिष्य के लिए अपरिमित वात्सल्य की झलक थी और साथ ही एक रहस्यमयता भी परिव्याप्त थी। जैसे वह अपने शिष्य को किसी अनजानी दुनिया में ले जाने के लिए उत्सुक हों।

इन्हीं पलों में उनके ज्योतिधारा वर्षण करते आलौकिक नेत्र साधक श्रीराम के भृकुटि मध्य पर जा टिके। इतना होना था कि पद्मासन पर बैठे श्रीराम के शरीर में एक विद्युत् प्रवाह-सा दौड़ गया। उनकी आँखें इस अनजाने अभाव से बंद हो गईं। मन अंतर्गुहा में प्रविष्ट होने लगा। अंतर्मुखी चेतना के लिए योग्य समाधि के द्वारा उन्मुक्त होने लगे। चेतना देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर गई। यद्यपि दृश्य और द्रष्टा का भेद अभी भी था, परन्तु इस तल पर उभरने वाले दृश्य इस लोक के न थे और न ही इन्हें देखने-अनुभव करने वाली सामान्य इंद्रियाँ थीं। यह समाधि में प्राप्त होने वाला साक्षात्कार था। चेतना यहाँ सर्वथा लोकातीत हो गई थी।

इस अपूर्व ढंग से अलौकिक भावभूमि पर उदय होने वाले दृश्य चकित करने वाले थे। साधना की परमावस्था में निमग्न साधक स्वयं में स्वयं को अनुभव कर रहा था। उसने स्वयं को श्री रामकृष्ण परमहंस के रूप में देखा। कामारपुकुर से लेकर दक्षिणेश्वर के गंगातट तक के अनगिन दृश्य उनकी अंतर्लीन चेतना में मुखर हो उठे। माता-पिता, बन्धु-सखा, अनन्य सहयोगिनी-सहधर्मिणी या यों कहें कि स्वयं की चेतना का अर्द्धांश सभी का परिचय यहाँ मिला। बड़ा ही सुस्पष्ट एवं घनिष्ठ परिचय था। जिस तरह सूर्य से उसकी अनगिन किरणें प्रकट होती हैं, उसी तरह शिष्य-समुदाय का परिचय भी प्रकट हुआ। नरेन्द्र, राखाल, गंगाधर, लाट् आदि ये सभी भी तो उनकी स्वचेतना की रश्मियां ही थीं। श्री रामकृष्ण परमहंस की दिव्यदेह को आधार बनाकर ईश्वरीय प्रयोजन के निमित्त जो कुछ भी हुआ था, किया गया था, वह सबका सब अंतर्चेतना में तरंगित हुआ और फिर अंतर्लीन हो गया। एक गहन शून्यता पुनः विराजमान हो गई।

इस शून्य में एक बार फिर से उर्मियाँ उठीं। इस बार ये सबकी सब समर्थ गुरु रामदास के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं। बालक नारायण से समर्थ गुरु बनने तक की कथा विविध दृश्यों के रूप में चेतना पट में अंकित होने लगी। पूर-का-पूरा जीवन तप के अनगिन प्रचंड उपक्रमों से भरा दिखाई दिया। इसी तप से तो शिवाजी प्रचंड बने थे। समर्थ और शिवा एक ही चेतना के अभिन्न अंश के रूप में समाधि की इस गहन भावभूमि में अनुभूति हुए। ईश्वरीय प्रयोजन ही इस जीवन का भी कारण था। चेतना पट पर उभरी यह दृश्यावली भी उन्हीं चेतना के एक अन्य जीवन की कथा दिखाकर विलुप्त हो गई। शून्यता पुनः मुखरित हो उठी।

और फिर पुनः इस शून्य में एक अन्य जीवन-कथा स्वयं को प्रकट करने लगी। वह स्वयं में स्वयं को कबीर के रूप में अनुभव करने लगे। अक्खड़-फक्खड़ कबीर एवं परम सती लोई के जीवन का ताना-बाना समाधिस्थ चेतना में अपना आकार बुनने लगा। निर्धन होने पर भी कबीर असहाय नहीं थे। वह समर्थ थे, अध्यात्म एवं ईश्वरपरायणता ही उनकी सामर्थ्य थी। इसी बलबूते उन्होंने रूढ़ियों-कुरीतियों से जोरदार टक्कर ली। लोक को चेताया और उसे सच्ची राह दिखाई। संत कबीर का जीवन भी ईश्वरीय प्रयोजन के लिए था।

इन तीनों जीवनों में एक अद्भुत साम्य था। सूक्ष्म शरीरधारी महायोगी दिव्य गुरु प्रत्येक जन्म एवं जीवन में मार्गदर्शक रहे थे। उन्होंने कभी सूक्ष्म में, तो कभी स्थूल में प्रकट होकर राह दिखाई थी। ईश्वरीय प्रयोजन का पूरा करने के लिए अपना संबल प्रदान किया था और वे अब फिर से उपस्थित हुए थे। इस उपस्थिति के उद्देश्य का ज्ञान पाने के लिए अंतर्लीन चेतना फिर से बहिर्मुख होने लगी। गहन समाधि की इस तल्लीनता में जो संस्कृति सत्य प्रकट हुआ था, वह यह था कि पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य है। हाँ, इतना अवश्य है कि यह पुनर्जन्म प्रत्येक जीवात्मा के कर्मों के स्वरूप के अनुसार अपना अलग-अलग स्वरूप प्रकट करता है। कहीं यह दुष्कर्मों एवं दुष्कृत्यों के दंड के लिए नारकीय परिस्थितियों को रचता है, तो कहीं सत्कर्मों का सत्परिणाम प्रस्तुत करने के लिए स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है।

पुनर्जन्म का संस्कृति सिद्धाँत साधक श्रीराम के लिए अनुभव की विषयवस्तु बन गया था। उनकी चेतना अब प्रकृतिस्थ हो चुकी थी। मार्गदर्शक गुरुदेव अभी भी उनके सम्मुख थे और वे बता रहे थे, यह तुम्हारा परम दिव्य जन्म है। इसकी दिव्यता पिछले सभी तीन जन्मों से अधिक हैं इस बार ईश्वरीय प्रयोजन कहीं अधिक व्यापक है। सो शक्ति-सामर्थ्य भी प्रयोजन की व्यापकता के अनुरूप ही व्यापक बनानी पड़ेगी।

गुरुसत्ता के ये शब्द साधक श्रीराम की अंतरसत्ता में सीधे प्रविष्ट हो रहे थे। वहाँ प्रश्न और तर्क न थे, सिर्फ आदेश की अभिलाषा थी। अपने परम सद्गुरु पर सर्वतोभावेन निछावर होने की आकाँक्षा थी। वह गुरु वाणी सुन रहे थे, “वत्स! जिस संस्कृति को महर्षियों ने कठिन तप के बाद जनम दिया। अपने तप-प्राणों से सींचकर उसे पुष्पित-पल्लवित किया। वह तप के अभाव में आज निष्प्राण होने लगी है, मुरझाने लगी है, इसे फिर से हरा-भरा कर पाना तप से ही संभव है। आज संस्कार तो क्या आचार एवं विचार भी मरने लगे हैं। भारतवासियों की यह दुर्दशा देखकर पूर्वकालीन महर्षियों की आत्माएँ संतप्त हैं। संस्कृति न रही तो देश तो क्या मनुष्य भी न बचेगा।”

मुझे क्या करना है गुरुदेव ? शिष्य के मन में अपने गुरु का आदेश पाने की आकाँक्षा चेतना के तटबंध तोड़ने लगी थी।

तप! वत्स, केवल तप! वह भी देवसंस्कृति के परम सूत्र गायत्री महामंत्र को आधार बनाकर। गायत्री महामंत्र केवल चौबीस अक्षरों की लिपी मात्र नहीं है, यह संस्कृति का मौलिक सूत्र है। इसकी सटीक एवं समुचित व्याख्या करने से देवसंस्कृति के सारे आयाम एवं समस्त रहस्य उजागर हो जाते हैं, पर यह सब बौद्धिक विवेचना की विषयवस्तु नहीं है, इसका बोध तो गायत्री महामन्त्र की कठिन तप-साधना से ही सम्भव है। अभी तक तुम जो साधना कर रहे थे, वह गायत्री की सामान्य साधना थी। अब तुम्हें इसकी विशिष्ट साधना में प्रवृत्त होना पड़ेगा। उसी के सत्परिणामस्वरूप तुम्हें गायत्री का देवसंस्कृति की आदिमता के रूप में साक्षात्कार हो सकेगा। शिष्य एवं गुरु के इस अंतरंग संवाद में गायत्री साधना का विज्ञान-विधान प्रकट होने लगा।


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