त्याग-बलिदान की संस्कृति-देवसंस्कृति

November 2000

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जून 1976 में शाँतिकुँज परिसर में दिया गया प्रवचन

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों! दैवीय सभ्यता पर जब कभी मुसीबतें आई है, लोगों ने जीवन में कठिनाइयाँ उठाकर भी उसकी रक्षा की है। उच्च आदर्शों के लिए त्याग की, बलिदान की संस्कृति रही है यह देवसंस्कृति। उन दिनों जब लंका की आसुरी सभ्यता का आतंक सब ओर छाया हुआ था, सब जगह त्राहि-त्राहि मची हुई थी। मालूम पड़ता था कि अब न जाने क्या होने वाला है और न जाने क्या होकर रहेगा? अनीति जब बढ़ती है, अवाँछनीयताएँ जब बढ़ती है, दुष्टताएँ जब बढ़ती हैं, स्वार्थपरताएँ जब बढ़ती है, तो मित्रो ! सारे विश्व का सत्यानाश हो जाता है। आदमी स्वार्थी होकर के यह सोचता है कि हम अपने लिए फायदा करते है, लेकिन वास्तव में वह अपने लिए भी सर्वनाश करता है और सारे समाज का भी सर्वनाश करता है। ये है आसुरी सभ्यता इसमें पहले आदमी स्वार्थी हो जाता है और स्वार्थांध होने के बाद में दुष्ट हो जाता है, पिशाच हो जाता है। स्वार्थी जब तक सीमित रहता है, तो वहाँ तक ठीक है, वहाँ तक फायदे में रहता है। लेकिन जहाँ एक कदम आगे बढ़ाया, फिर आदमी नीति छोड़ देता है, मर्यादा छोड़ देता है, सब शालीनताएँ छोड़ देता है और सत्यानाश पर उतारू हो जाता है। यह है आसुरी सभ्यता का क्रम।

लंका की आसुरी सभ्यता उस जमाने में सब जगह आतंक फैला रही थी ओर सारा विश्व, सारे देश त्राहि-त्राहि कर रहे थे कि अब क्या होने वाला है ? हर आदमी अनीति के मार्ग पर चलने का शिक्षण प्राप्त कर रहा था और अनाचार के लिए कदम बढ़ाता हुआ चला जा रहा था और अनाचार के लिए कदम बढ़ाता हुआ चला जा रहा था रावण के राज्य में। रावण की इस सभ्यता और संस्कृति में देवसंस्कृति के पक्षधरों को यह विचार करना पड़ा कि इसका प्रतिरोध कैसे किया जाएगा? इसकी रोकथाम कैसे की जाएगी? संतुलन कैसे बिठाया जाएगा? भगवान् ने भी यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि हम धर्म की स्थापना के लिए और अधर्म के विनाश के लिए वचनबद्ध हैं इसके लिए वे विचार करने लगे कि क्या करना चाहिए ? अंत में फैसला हुआ कि अयोध्या से लंका की तुलना में एक ऐसा मोरचा खड़ा करना चाहिए, जो अनीति से लोहा ले सके।

लंका विजय

मित्रों ! अयोध्या में लंका के विरुद्ध मोरचा खड़ा किया गया। एक तो मोटी-सी बात यह थी कि रावण बड़ा खराब आदमी था। एक बंदूक लेकर जाइए और उसे मार डालिए, खत्म कर दीजिए। यह क्या है ? यह बहुत छोटा सा तरीका हैं इससे कोई संस्कृति नष्ट नहीं हो सकती, परंपराएँ नष्ट नहीं हो सकतीं। व्यक्ति मरते हैं और फिर नए व्यक्ति पैदा हो जाते हैं। रावण के बारे में तो कहावत भी थी कि रामचंद्र जी जब उसके तीर मारते थे, तो नया रावण बनकर खड़ा हो जाता था बेटे! संस्कृतियाँ मारने से नहीं मरती है। वे दूसरे तरीकों से मरती है। आसुरी संस्कृति को हम किसी एक व्यक्ति को मारकर नहीं मार सकते।

रावण को मारना तो था जरूर। विचार किया गया। भगवान् ने विचार किया, देवताओं ने विचार किया कि मारने से काम नहीं चलेगा लंका को नष्ट कर देंगे, रावण को मार देंगे, अमुक को मार देंगे, पर इससे काम नहीं बनेगा, क्योंकि परशुराम जी बहुत दिनों पहले ऐसा एक प्रयोग कर चुके थे। ऐसे लोगों को उन्होंने एक बार मारा, दो बार मारा, तीन बार मारा, पर मारने से काम नहीं चला। दैत्यों को इक्कीस बार मारकर ये यह कोशिश करने लगे कि पृथ्वी से असुरों को हम मिटा देंगे, तो काम चल जाएगा, परंतु काम चला नहीं। आखिर में परशुराम जी ने कुल्हाड़ी नदी में फेंक दिया और उसके स्थान पर फावड़ा उठा लिया। फावड़ा उठाया और नए-नए उद्यान लगाने लगे, बगीचे लगाने लगे। उनकी हार और पराजय ने स्वीकार किया कि कुल्हाड़ी के द्वारा हम वह कार्य नहीं कर सकते कि राक्षसों और असुरों को मारकर दुनिया खाली कर दें। इसके लिए एक और काम करना पड़ेगा, हमको हरियाली लगानी पड़ेगी। यही फैसला अयोध्या के संबंध में हुआ।

देवसंस्कृति का उदय

अयोध्या में देवसंस्कृति का उदय आरंभ हो गया। आसुरी संस्कृति से मुकाबला करने वाली देवसंस्कृति। देवसंस्कृति का उदय कैसे हुआ? वास्तव में अयोध्या में लंका के विरुद्ध मोरचाबंदी शुरू हो गई थी। कैसे हुई थी ? बेटे! वे परंपराएँ आरंभ की गई, जिनको देख करके दूसरों की हिम्मत बढ़ती है, हौंसले बढ़ते है। हौंसले बढ़ाने के लिए बेटे, व्याख्यान एक तरीका तो है और हम काम में भी लाते है, लेकिन उपदेश करने से, व्याख्यान देने से प्रेरणाएँ नहीं मिलती, दिशाएँ नहीं मिलती, आवेश नहीं आते, उत्साह नहीं बढ़ते, जीवन नहीं आते, जोश नहीं आते। तो सत्संग से गुरुजी ? नहीं, बेटे ! सत्संग से भी नहीं, और कलम से ? कलम से तो आप बहुत अच्छा लिखते है। बेटे, हम अभी और अच्छा लिखेंगे पर अगर आपका ये ख्याल है कि कलम से लिख करके आप अपना काम चला सकते हैं, तो अगर ऐसी बात रही होती, तो अब तक संपन्न लोगों ने ये काम, जो दुनिया चाहती है, बना सकते थे। अखबार प्रतिदिन लाखों की संख्या में छपते हैं। जापान, शिकागो में एक-एक अखबार करीब-करीब पचास लाख रोज छपता है। अपने हिंदुस्तान में सबको मिलाकर पचास लाख तादाद होगी। एक ही अखबार जब इतना छपता है, तो इतने आदमियों तक विचार एक ही दिन में पहुँच जाते होंगे ? हाँ, बेटे! पचास लाख आदमियों तक अखबार के विचार एक ही दिन में पहुँच जाते है, लेकिन अगर कलम की दृष्टि से और छापेखाने की दृष्टि से लोगों का विचार-परिवर्तन संभव रहा होता, तो वह हमने कब का कर लिया होता।

और गुरुजी! वाणी के द्वारा ! वाणी के द्वारा संभव रहा होता तो बेटे रेडियो स्टेशन जिनके पास हैं, उनको वाणी के द्वारा व्याख्यान करने की जरूरत नहीं थी। दिल्ली से लेकर और कितने रेडियो स्टेशन है, वही पर एक-एक आदमी आराम से बैठा दिया होता और एक-एक ‘स्पीच’ झाड़नी शुरू कर दी होती, तो सारे-के-सारे देश के लोगों तक आवाज पहुँच सकती थी और उससे आसुरी सभ्यता का, अनाचार का, अनावश्यक परिस्थितियों का निवारण कर सकना संभव रहा होता। क्या ऐसा संभव हो सकता है ? नहीं, ऐसा संभव नहीं हो सकता।

स्वे स्वे आचरेण शिक्षयेत्

इसीलिए मित्रों ! देवताओं को क्या करना पड़ा कि अयोध्या से दैवी सभ्यता की शुरुआत करनी पड़ी। कैसे शुरुआत करनी पड़ी ? वहाँ जो आदमी छोटे से खानदान में थे, उन्होंने कहा कि हम अपने नमूने पेश करेंगे लोगों के सामने कि दैवी सभ्यता कैसी हो सकती है और हम इस सभ्यता का विकास क्यों करना चाहते है? दैवी सभ्यता के पीछे क्या परिणाम निकल सकते है ? ये साबित करने के लिए दशरथ के कुटुँब ने, परिवार ने उसी तरह के नमूने पेश करने शुरू कर दिए, जैसे कि लंका वालों ने किए थे। उन्होंने क्या पेश किए ? बेटे, सबके सब एक दिन इकट्ठा हो गए और फैसला करने लगे कि हम बड़े काम करके दिखाएँगे, ताकि दुनिया समझे कि दैवी सभ्यता क्या हो सकती है और दैवी सभ्यता का अनुकरण करने के लिए जोश और जीवट कैसे उत्पन्न किया जा सकता है ?

विश्वामित्र जी ने वहाँ से शुरुआत की और राजा दशरथ से कहा कि आप अपने बच्चे हमारे हवाले कीजिए उन्होंने कहा कि बच्चे तो हमको जान से भी प्यारे है। उन्हें हम आई.ए.एस. बनाएँगे, पी.सी.एस. बनाएँगे। आप इन्हें कहाँ ले जा सकते है ? विश्वामित्र ने कहा, आई.एस.एस., पी.सी.एस. तो पीछे बनते रहेंगे, पहले इन्हें मनुष्य बनना चाहिए और देवता बनना चाहिए। विश्वामित्र और दशरथ जी के बीच जद्दोजहद तो बहुत हुई, लेकिन दैवी सभ्यता की, संस्कृति की शुरुआत तो कहीं से करनी ही थीं विश्वामित्र ने रजामंद कर लिया और कहा, बच्चे हमारे हवाले कीजिए। क्या करेंगे इनका ? दैवी सभ्यता का शिक्षण करेंगे और ये दोनों अनीति के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। अरे गुरुजी, ये तो छोटे बच्चे हैं नहीं, ये छोटे बच्चे नहीं हो सकते। जो व्यक्ति सत्य का हिमायती हुआ, वह कभी छोटा नहीं हुआ। सत्य का हिमायती हमेशा बलवान रहा है और जोरदार रहा है। उसके सामने चाहे वह मारीचि ही क्यों न हो, सुबाहु ही क्यों न हो, चाहे वह खर-दूषण ही क्यों न हो, कोई भी क्यों न हो, वह कमजोर ही रहेगा और उसको हारना पड़ेगा, झख मारनी पड़ेगी। विश्वामित्र जी ने राजा दशरथ को समझा दिया और वह शिक्षण देने के लिए, जो योगियों और तपस्वियों के आश्रम में रह करके पाया जाना संभव है, दोनों बच्चों को ले गए।

शुरुआत व्यावहारिक जीवन से

ये क्या होता है? बेटे! ये दैवी सभ्यता की शुरुआत होती है। यह न तो व्याख्यान से हुई, न कथा से हुई और न सत्संग से हुई। कैसे हुई ? व्यावहारिक जीवन से हुईं इससे कम में नहीं हो सकती। कोई श्रेष्ठ परंपरा स्थापित करने के लिए व्यक्तिगत जीवन का आदर्श उपस्थिति किए बिना दुनिया इधर-उधर नहीं हो पाएगी। कथा, व्याख्यान, सत्संग आदि सब खेल-खिलौने है। इनसे हम उसी तरह रास्ता बनाते है जिस तरह रेलगाड़ी के लिए पटरी बनाते है। लेखनी के द्वारा, वाणी के द्वारा, प्रचार माध्यमों के द्वारा, जनसाधारण की शिक्षा के द्वारा, सत्संगों के द्वारा, कथाओं के द्वारा हम रेलगाड़ी की पटरी बनाते है बस। फिर रेलगाड़ी कहाँ से चलेगी ? रेलगाड़ी तो बेटे, अपने व्यक्तिगत आदेश उपस्थित करने से पैदा होती है। इससे कम में ही नहीं सकतीं इस तरह उन्होंने पटरी बनाई ओर वहीं से शुरुआत हुई । पीछे सबने फैसला लिया कि हम दैवी संस्कृति, दैवी सभ्यता का स्वरूप क्या हो सकता है, उसको बताने के लिए एक-से-एक बढ़िया त्याग करेंगे और बलिदान करेंगे। सारी-की-सारी उस कंपनी ने, कमेटी ने फैसला कर लिया कि हम दुनिया को बताते हैं कि रामराज्य कैसे हो सकता है।

रामराज्य कैसे आया ?

मित्रो ! रामराज्य का बीज अयोध्या में बोया गया और वह भी एक छोटे-से खानदान में। कैसे बो दिया गया ? बेटे! ऐसे बो दिया गया कि थोड़े-से आदमी थे, लेकिन वे एक-से-एक बढ़िया त्याग करने पर उतारू हो गए रामचंद्र जी ने कहा कि राजगद्दी क्या होती है ? इससे तो वनवास बेहतरीन है। इनसान को क्या चाहिए ? पैसा चाहिए, विलासिता चाहिए, नौकरी में तरक्की चाहिए, प्रमोशन चाहिए, लेकिन उन लोगों ने कहा कि हमें त्याग चाहिए, बलिदान चाहिए। त्याग और बलिदान से आदमी महामानव बनता है, महापुरुष बनता है, तपस्वी बनता है, ऐतिहासिक पुरुष बनता है और पैसे से? पैसे बढ़ने से आदमी बनता है धूर्त और ढोंगी। और क्या बनता है ? न जाने क्या-क्या बनता है।

मित्रो ! क्या हुआ ? उन्होंने त्याग और बलिदान के लिए, आदर्श उपस्थित करने के लिए ये फैसले किए कि हमको अब बड़े कदम उठाने चाहिए, ताकि रावण की लंका को नीचा दिखा सकें। रामचंद्र जी ने कहा कि हम ऋषियों के आश्रम में जा करके वनवासी जीवन जीने के लिए, तपस्वी जीवन जीने के लिए रजामंद है और राजपाट छोड़ने के लिए रजामंद है। परिस्थितियाँ ऐसी बन गई थी और रामचंद्र जी जटा-जूट बाँधकर नंगे पैर जंगलों में चलने और वनवास में रहने के लिए उतारू और आमादा हो गए। लक्ष्मण जी ने कहा कि भाई-भाई के बीच में कैसी मोहब्बत होनी चाहिए, इसका आदर्श उपस्थित करने के लिए मुझे भी रामचंद्र का अनुकरण करना चाहिए। वह औरंगजेब वाल अनुकरण नहीं, जिसने बाप को कैद कर लिया था और भाइयों को मार डाला था। वह नहीं बेटे, दूसरा वाला आदर्श। उसके लिए क्या करना पड़ेगा ? उसके लिए दैवी संस्कृति की सभ्यता की स्थापना करनी पड़ेगी, ताकि लोगों के भीतर से उमंगे, लोगों के भीतर से जोश, लोगों के भीतर से जीवट, एक-दूसरे के नमूने देख करके पैदा हो सके।


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