सूर्य को प्रकाश और तेज का प्रतीक माना गया है। लेटेन्ट लाइट, डिवाइन लाइट, ब्रह्मज्योति आदि शब्दों में मानवी सत्ता में देवी अवतरण के प्रकाश के उदय की संज्ञा दी गई है। प्रातः कालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता कहा गया है और उसे ज्ञान स्वरूप परमात्मा का प्रतीक मानकर उपासना आराधना करने का निर्देश आर्षग्रंथों में दिया गया है। महाभारत में कहा गया है- “सूर्योदय के समय जो सविता देवता की भली प्रकार उपासना करता है वह धृति, मेधा, और प्रज्ञा को प्रचुर परिणाम में प्राप्त करता है। इसी तरह सूर्य पुराण, तैत्तरीय आरण्यक, एवं श्रीमद्भागवत् में भी उदय होते हुए, अस्त होते हुए सूर्य का ध्यान करने और सब प्रकार से कल्याण का भागी बनने- पवित्र बनने की बात कही गई है।
शास्त्रकारों का कथन है कि संध्या-वंदन के अनेक विधि-विधान हैं। वे कितने ही क्रिया-कृत्यों के साथ जुड़े हुए हैं। पर उन सब में संक्षिप्त और सरल यह है कि प्रातः सायं सूर्योपासना की जाय। क्योंकि सूर्य ही प्रत्यक्ष एवं परम ज्योतिर्मय सर्व प्रकाशक सब के उत्पादक देवता हैं। प्रजा के लिए प्राण बन कर वही उदित होते हैं। ऋग्वेद एवं प्रश्नोपनिषद् में प्रातःकाल के उदीयमान सूर्य की किरणों को प्राण वर्षा करने वाली कहा गया है। इसी कारण आत्म सत्ता में प्राणत्व का आकर्षण अभिवर्धन करने के लिए प्रातःकालीन उदीयमान सूर्य का ध्यान प्रक्रिया में विशेष महत्व है।
ईश्वर के सम्बन्ध में सर्वाधिक चर्चा “प्रकाश” की ही होती है। कोई उसे हृदय में, कोई मस्तिष्क में तो कोई आकाश में मानते हैं। प्रकाश का प्रतीक सूर्य को माना जाता है जो साकार भी हैं और निराकार भी। उसका चिन्तन करते ही गति और ऊर्जा का तारतम्य उसके साथ जुड़ा हुआ स्पष्ट होता है। इन्हीं की हमें प्रधानतया समर्थ जीवन के लिए आवश्यकता भी है। बुद्धिमत्ता को भी ज्ञान रूपी प्रकाश में गिना जाता है। यह सारी विशेषताएँ सूर्य में सन्निहित मानी जाती हैं।
प्रकाश की दिव्य ज्योति दर्शन की ध्यान-धारणा में ईश्वर को निराकार प्रकाश पुँज के रूप में स्वर्णिम सविता के रूप में मानकर उसके तमोनाशक-पापनाशक आनन्दकारक सद्गुणों को जीवन में उतारने का प्रयास किया जाता है। प्रकाश ध्यान का आरंभ सूर्य को पूर्व दिशा में उदय होते हुए परिकल्पित करने की भावना से होता है। जिसमें साधक की भावना रहती है कि सविता देव से निस्सृत दिव्य किरणें अपने कायकलेवर में प्रवेश करती हैं और तीनों शरीरों को असाधारण रूप से सशक्त बनाती हैं। स्थूल शरीर को अग्निपिण्ड, सूक्ष्म-शरीर को प्रकाशमय, ज्योतिर्मय तथा कारण शरीर को दीप्तिमय, क्रान्तिमय, आभामय बनाती हैं। समूची जीवन सत्ता ज्योतिर्मय हो उठती है। इस स्थिति में स्थूल शरीर को ओजस्, सूक्ष्म को तेजस् और कारण शरीर को वर्चस् के अनुदान उपलब्ध होते हैं। इस ध्यान-धारणा का चमत्कारी प्रतिफल साधक को शीघ्र ही दृष्टिगोचर होने लगता है। स्थूल शरीर में बल, उत्साह एवं स्फूर्ति, सूक्ष्म -शरीर में संतुलन, ज्ञान-विवेक, और कारण शरीर में श्रद्धा एवं भक्ति का दिव्य संचार इस प्रकाश ध्यान के सहारे उठता, उभरता दीखता है। तीनों शरीर इन अनुदानों सहित अवतरित होने वाले प्रकाश से परिपूर्ण होते चले जाते हैं। यह संकल्प जितना गहरा होता है, उसी अनुपात से चेतना में उपरोक्त विविध विशेषताएँ, विभूतियाँ उभरती चली जाती हैं। इस प्रकार यह ध्यान साधना आत्म-सत्ता के बहिरंग एवं अन्तरंग पक्ष को विकसित करने में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होती है। सामान्य सी लगने वाली यह साधना असामान्य प्रभाव उपलब्ध कराती है।
सविता के प्रकाश ध्यान का प्रथम चरण उसकी दिव्य किरणों का प्रवेश आत्मसत्ता में कराने का है। दूसरा चरण अन्तः सूर्य की मान्यता परिपुष्ट करके उसका प्रकाश बाह्य जगत में फैलाने का है। इसे अपने अनुदान विश्व मानव के लिए प्रेरित करने की प्रक्रिया कह सकते हैं। प्रथम चरण को संग्रह और दूसरे को विसर्जन कह सकते हैं। ध्यान करते समय अन्तः क्षेत्र में सूर्योदय होने की मान्यता की जाती है। स्थूल शरीर का मध्य केन्द्र नाभि चक्र है जिसे विज्ञान की भाषा में सोलर प्लेक्सस या एबडामिनल ब्रेन भी कहते हैं। सूक्ष्म शरीर का हृदय चक्र कार्डियक प्लेक्सस है। इनमें से किस साधक को किस केन्द्र पर ब्रह्म चेतना के प्रतीक सविता देव के उदय की भावना करनी चाहिए। इसका निर्धारण अपनी व्यक्तिगत स्थिति का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करते हुए करना होता है।
अन्तः सूर्य की धारा परिपक्व होने पर उसका प्रकाश निकटवर्ती क्षेत्र को प्रकाशित करता ही है, साथ ही उसका प्रभाव बाह्य जगत में भी फैलता है। इससे वातावरण में किन्हीं सामयिक सत्प्रेरणाओं को सुविस्तृत किया जा सकता है। मनुष्य के किसी वर्ग विशेष को उपयोगी प्रेरणाओं से प्रभावित किया जा सकता है। व्यक्ति विशेष या समष्टि की आध्यात्मिक सेवा भी इस आधार पर की जा सकती है। मानवेत्तर प्राणियों पर भी इसका प्रभाव पड़ सकता है। इसी प्रकार वनस्पति जगत् पदार्थ सम्पदा की स्थिति में सुधार करने के लिए भी अन्तः सूर्य की क्षमता का परिपोषण होना संभव है। यह कितना प्रभाव उत्पन्न कर सकेगा, यह इस पर निर्भर है कि साधक की संयम तपश्चर्या मनोबल और श्रद्धा किस स्तर के हैं। यह समर्थता साधना की प्रखरता और व्यक्तित्व की उत्कृष्टता पर निर्भर रहती है।
वेद, उपनिषद्, दर्शन, मनुस्मृति, पुराण तथा तन्त्रशास्त्रों में सूर्योपासना का विस्तृत वर्णन किया गया है। मनुस्मृति में बताया गया है कि सूर्य से वर्षा, वर्षा से अन्न और अन्न से प्राणियों का अस्तित्व है। सूर्य प्रकाश के अभाव में जीवन के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। महाभारत वन पर्व 3/36 में सूर्य को विश्व का नेत्र तथा समस्त प्राणियों की आत्मा बताया गया है।
सविता देवता की उपासना से जहाँ भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है, वहीं उनसे सतत् सत्कर्म करते रहने की भी प्रेरणा मिलती है। वह कर्मठता क्रियाशीलता एवं प्रखरता के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उस तथ्य को उद्घटित करते हुए ऐतरेय ब्राह्मण 33/3/5 में देवराज इन्द्र ने रोहित को कर्म कोशल का उपदेश देते हुए कहा कि “सूर्य की श्रेष्ठता इसलिए है कि वे लोकमंगल के लिए सतत् गतिशील रहते हुए तनिक भी आलस्य नहीं करते हैं। अतः सूर्योपासक को भी चाहिए कि वह अपने इष्ट की भाँति पथ पर निरन्तर चलता ही रहे।
वस्तुतः सूर्य साधना सार्वभौम साधना है। सर्व सुगम एवं सब धर्मों के लिए प्रयुक्त की जा सकने वाले इस अध्यात्म उपचार को महाकाल की साधना हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है एवं प्राप्त प्रेरणाओं को जीवन में उतारकर निज का कायाकल्प किया जा सकता है। नवयुग की अगवानी के लिए सविता देवता की ही उपासना अगले दिनों की जाएगी।