महाप्रज्ञा का तत्वदर्शन सब के लिए

January 1991

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वेदमाता गायत्री को आद्यशक्ति माना जाता है। सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री इस महाशक्ति की उपासना को सार्वभौम, सर्वजनीन कहा गया है। सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा हर किसी को मिले, हर व्यक्ति श्रेष्ठता का वरण करे, इसमें किसी प्रकार का मत वैभिन्य नहीं हो सकता। इसीलिए कहा जाता है कि सब धर्म, जाति, लिंग व वर्ण के व्यक्ति बिना किसी भेद के इस उपासना के मार्ग को अपना सकते हैं।

सूर्य की धूप, चन्द्रमा की चाँदनी, में बैठने का स्वच्छ वायु में साँस लेने, जलाशय से जल पीने आदि का अधिकार मात्र मनुष्य को ही नहीं, प्राणी मात्र को है। गंगा स्नान पर किसी के लिए प्रतिबंध नहीं है। इसी प्रकार सत्य बोलने, उदारता बरतने, संयम से रहने, कर्तव्य परायण रहने जैसे सत्प्रयोजनों के लिए किसी को रोका नहीं जाता, वरन् प्रोत्साहित किया जाता है। ईश्वर का स्मरण भी ऐसा ही पवित्र कार्य है जिसमें हानि की कोई आशंका नहीं है और न ऐसा कुछ है जिस पर विचार करके किसी को प्रभु प्रार्थना का अधिकारी, किसी को अनधिकारी ठहराया जा सके। गायत्री महामंत्र के बारे में भी यही बात है।

सद्बुद्धि की देवी गायत्री महाशक्ति की उपासना का अधिकार हर किसी को है। इस तथ्य को सुस्पष्ट करते हुए ‘पारस्कर ग्रह सूत्र” 2/3/10 में कहा गया है “सर्वेषाँ वा गायत्री मनु ब्रूयात्।” अर्थात् गायत्री का उपदेश सब करें। तात्पर्य यह कि सम्पूर्ण मानव जाति बिना किसी भेद-भाव के गायत्री उपासना कर सकती है। इस सामान्य बुद्धि संगत तथ्य के समर्थन में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, तो भी इस संदर्भ में शास्त्रों में पग-पग पर भरे पड़े प्रमाणों का अवलोकन किया जा सकता है। महाभारत में उल्लेख है,

चतुर्णामपि वर्णानाम् आश्रमस्य विशेषतः।

करोति सततं शान्ति सावित्रीं उत्तमाँ पठन्॥

अर्थात् चारों वर्ण और चारों आश्रमों में रहने वाले कोई भी व्यक्ति जो उत्तम गायत्री महामंत्र जप करते हैं, वे परम शान्ति को प्राप्त करते हैं।

देवी भागवत 12/8 के अनुसार “गायञ्पुपासना नित्या सर्व वेदैः समीरिता।” अर्थात् वेदों में नित्य गायत्री उपासना करने के आदेश को ब्राह्मणत्व की ब्रह्मतेजस् की प्राप्ति के लिए मनुष्य मात्र का कर्तव्य बताया है और अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण कार्यों में गायत्री उपासना को प्रथम स्थान दिया है। जो इस धर्म-कर्तव्य का पालन नहीं करते उनकी स्थान-स्थान पर तीव्र भर्त्सना की गई है और उन्हें चाण्डाल तक कहा गया है। भले ही उन ने ब्राह्मण कुल में ही क्यों न जन्म लिया हो।

यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि धर्म शास्त्रों में जहाँ-जहाँ ऐसे प्रतिपादन मिलते हैं जिनमें द्विजत्व और ब्राह्मणत्व को गायत्री के साथ जोड़ा गया है। इस प्रतिपादन का तात्पर्य इतना ही है कि उत्कृष्टतावादी चिन्तन और आदर्शवादी कर्त्तव्य अपनाकर चलने वाले जीवन क्रम में ईश्वरीय उपासना की दिव्य उपलब्धियाँ अधिक अच्छी तरह हो सकती हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म। दूसरे जन्म से तात्पर्य है पशु प्रवृत्तियों से जकड़े हुए सामान्य प्राणि जीवन से ऊँचा उठकर मानवी उत्तरदायित्वों की विशिष्टता भरी भूमिका को अपनाया जाना। नर पशु की रीति-नीति छोड़ कर देव जीवन की महानता अपनाया जाना। इसके लिए व्रत लेना पड़ता है कि वासना-तृष्णा की क्षुद्रता में कृमि कीटकों की तरह निरत नहीं रहा जायगा, वरन् मानवी उत्कृष्टता को जीवनक्रम में ओत-प्रोत करते हुए उच्चस्तरीय सिद्धान्तों को अपनाकर चला जायगा।

ऐसा व्रतशील जीवनक्रम ही द्विजत्व है। पशु प्रवृत्तियों का त्याग और देव परम्परा को धारण करने का व्रत लेना भारतीय परम्परा में एक अत्यंत आवश्यक एवं पवित्र कर्म माना गया है। इसलिए ब्राह्मणत्व का द्विजत्व का संस्कार समारोह पूर्वक किया जाता है। इसे यज्ञोपवीत संस्कार कहते हैं। इसका प्रतीक यज्ञोपवीत धारण हैं। ऐसे ही व्रतधारियों को द्विज की संज्ञा दी गई है। योगी याज्ञवलक्य में स्पष्टोक्ति है “एवं यस्तु विजानाति गायत्रीं ब्राह्मण गुरुः।” अर्थात् जो गायत्री को जानता और जपता है, वस्तुतः वही सच्चा ब्राह्मण है जो गायत्री की उपेक्षा करता, वह वेद में पारंगत होने पर भी शुद्र के समान है।

गायत्री महाशक्ति की उपासना आराधना करने वाले के लिए आदर्शवादी रीति-नीति अपनाना और लोकोपयोगी कार्यों में निरत रहने की योजना बनाकर चलना आवश्यक होता है। ऐसे कार्यों में तीन प्रमुख हैं (1) अज्ञान का निवारण (2) अनीति का उन्मूलन (3) अभावों का समापन। व्यक्तिगत रुचि, योग्यता एवं परिस्थिति के अनुसार इनमें से कोई भी लक्ष्य चुना जा सकता है। संसार के समस्त कष्टों और संकटों के यह तीन ही कारण हैं। इन्हें जितना निरस्त किया जा सकेगा, उतनी ही सुख-शान्ति स्थिर रह सकेगी और प्रगति की संभावना बढ़ेगी। अज्ञान का निवारण करने में प्रवृत्त वर्ग को ब्राह्मण, अनीति से जूझने वालों को क्षत्रिय और अभाव दूर करने में जुटे हुए लोगों को वैश्य कहते हैं। जिनमें इस प्रकार की आदर्शवादी आकाँक्षाएँ नहीं हैं, जो अपनेपन आपा-धापी तक ही सीमित हैं, जिनकी उत्कृष्टता अपनाने में कोई रुचि नहीं हैं। जो पेट-प्रजनन से आगे की बातों में रुचि नहीं लेते, जिन्हें पशु-प्रवृत्तियों में डूबे रहना ही पर्याप्त है, वह सब शुद्र हैं। यह भावनात्मक वर्गीकरण है। इसमें जाति-वंश का कोई प्रश्न नहीं है। इसे विशुद्ध रूप से आचार प्रक्रिया या आदर्श पद्धति कहा जा सकता है। यह वर्ण भेद ही प्राचीनकाल से वर्ण भेद कहा जाता है। जन्म के आधार पर किसी को शुद्र या द्विज मानना निरर्थक है। ब्राह्मणत्व की प्राप्ति गायत्री उपासना से होती है, इस तथ्य को समझा और समझाया जाना चाहिए।

ईश्वर की उपासना कोई भी कर सकता है, पर अधिक लाभ उसी को होगा जो प्रभु समर्पित आदर्शवादी जीवन प्रक्रिया भी अपनाने का प्रयत्न करेगा। ईश्वर उपासना गाड़ी का एक पहिया है और आदर्शवादिता अपनाने वाली जीवन साधना दूसरा। इन दोनों के सम्मिलन से ही सर्वतोमुखी प्रगति का रथ अग्रसर होता है। मात्र कुछ पूजा पाठ कर लेने से भी यों तो कुछ लाभ होता ही है, पर पूरा सत्यपरिणाम देखना हो तो पवित्र एवं प्रखरता भरा जीवनक्रम अपनाने की साधना के साथ उपासना करनी चाहिए। पवित्र जीवन उर्वर भूमि है और भजन उपजाऊ बीज। दोनों की व्यवस्था पर समुचित ध्यान रखा जाना चाहिए। इसी का प्रतिपादन गायत्री और द्विजत्व का समन्वय करने की संगति बिठाकर किया गया है और उससे लाभान्वित होने का तथ्य शास्त्रों में समझाया गया है।

यदि किसी की वंश या जाति को द्विज ठहराया जायगा और मात्र उसी परिवार में जन्में लोगों को गायत्री उपासना का अधिकारी कहा जायगा, तब तो निश्चित रूप से अर्थ का अनर्थ हो ही जायगा। दुर्भाग्य से पिछले दिनों कुछ ऐसी ही भूल होती रही है और अमुक जाति-वंश के लोगों को इस महाशक्ति की उपासना का अधिकारी तथा अमुक को अनधिकारी ठहराया जाता रहा है। जबकि वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है। तत्वदर्शी-मानवतावादी ऋषि इतने संकीर्ण हो ही नहीं सकते थे कि वे किसी अमुक जाति-वंश को आत्मिक प्रगति के साधनों को अपनाने का अधिकारी ठहरायें और अन्यों को उससे वंचित कर दें। ऐसा पक्षपात तो बहुत ही ओछे स्तर के संकीर्ण बुद्धि, पक्षपाती और विद्वेषी लोग ही कर सकते हैं। भारतीय धर्मशास्त्रों और उनके प्रस्तुतकर्ता ऋषियों पर ऐसे आक्षेप लगने लगेंगे तो यह उस महान संस्कृति का अपमान ही होगा जिसके कारण समस्त विश्व ने इस देशवासियों को देवमानव माना था और जगद्गुरु कहकर अपना मस्तक नवाया था।

गायत्री की चेतनात्मक धारा सद्बुद्धि के ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में काम करती है और जहाँ उसका निवास होता है वहाँ ब्राह्मणत्व एवं देवत्व का अनुदान बरसता चला जाता है, साथ ही आत्मबल के साथ जुड़ी हुई दिव्य विभूतियाँ भी उस व्यक्ति में बढ़ती जाती हैं। अतः इसकी उपासना का अधिकार हर किसी को है। जो भी इस महाशक्ति का परिपूर्ण लाभ उठाना चाहें उन्हें जप, तप ही नहीं अपने व्यवहारिक जीवन में ब्रह्मणत्व का, द्विजत्व का अवतरण भी करना चाहिए। चरित्र जितना शुद्ध होगा यह महामंत्र उतना ही प्रखर लाभ पहुँचायेगा। चरित्रवान व्यक्ति की थोड़ी सी उपासना भी इतना अद्भुत लाभ दिखाती है, जितना कि दुश्चरित्र व्यक्ति के आजीवन क्रियाकृत्य भी नहीं कर सकते। ब्राह्मणत्व यदि अपने भीतर अर्जित कर लिया जाय तो गायत्री महाशक्ति की उपासना के जो भी लाभ शास्त्रकारों ने बताये है उनकी सत्यता प्रत्येक साधक अक्षरशः अपने जीवन में देख सकता है।


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