अक्षय कीर्ति से वंचित (Kahani)

January 1991

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अपने परम तेजस्वी तमतमाते हुए रक्तवर्ण मुखारविंद के साथ जब सूर्यदेव घर पहुँचे तो उनकी पत्नी संध्या ने आंखें बंद कर लीं।

कुपित होकर सूर्य ने कहा-क्यों? तुम्हें मेरा तेजस्वी स्वरूप रुचता नहीं? संध्या की आँखें और भी नीची हो गई। उसने बादलों के घूँघट से कोमल मुख ढक लिया।

अब अभद्रता उन्हें और भी अखरी और वे लाल पीले होकर अपना दर्प दिखाने लगे। बेचारी संध्या भयभीत होकर अपने पितृ गृह चली गई और तपस्या में लीन हो गई।

सूर्य अपनी पत्नी के बिना उदास रहने लगे वे एक योगी का रूप बनाकर संध्या के पास पहुँचे और इस कठिन तपस्या का प्रयोजन पूछने लगे।

तपस्विनी ने कहा- तात! मेरे पति और भी तेजस्वी हों पर उनका स्वभाव इतना सरल हो कि मैं अपलक उनके दर्शन कर सकूँ।

सूर्य द्रवित हो गये। दर्प की प्रचण्डता को मानते हुए उन्होंने अपनी सोलह कलाओं में से एक के साथ ही प्रकाशित होना आरम्भ कर दिया।

सतयुग ऋषियुग का ही प्रकट रूप है। असुरता की अभिवृद्धि होते हुए ही कलहयुग-कलयुग आ धमकता है। उच्चस्तरीय प्रतिभाओं का पौरुष जब कार्य क्षेत्र में उतरता है तो न केवल कुछ व्यक्तियों को, कुछ प्रतिभाओं को वरन् समूचे वातावरण को ही उलट-पुलट कर रख देता है। धोबी की भट्टी पर चढ़ने से मैले कपड़ों की सफाई से चमचमाते देखा गया है। भट्ठी में तपाने के बाद मिट्टी मिले बेकार लोहे को फौलाद स्तर का बनते और उसके द्वारा कुछ न कुछ कर दिखाने वाले यंत्र-उपकरण बनते देखे जाते हैं। आत्मशक्ति की प्रखरता को इसी स्तर का बताया और पाया गया है।

इक्कीसवीं सदी से प्रारंभ होने वाला नवयुग अभियान सम्पन्न तो प्रतिभावान मनुष्यों द्वारा ही होगा, पर उनके पीछे निश्चित रूप से ऐसी दिव्य चेतना जुड़ी हुई होगी जैसी कि फ्राँस की एक कुमारी “जोन ऑफ आर्क” ने रण कौशल से अपरिचित होते हुए भी अपने देश को पराधीनता के पाश से मुक्त कराने में सफलता प्राप्त की थी। महात्मा गाँधी और संत बिनोवा जो कर सके वह उस स्थिति में कदाचित ही बन पड़ता जो वे बैरिस्टर, मिनिस्टर, नेता, अभिनेता आदि बनकर कर सके होते।

चन्द्रगुप्त जब विजय की योजना सुनकर सकपकाने लगा तो चाणक्य ने कहा “तुम्हारी दासी पुत्र वाली मनोदशा को मैं जानता हूँ। उसके ऊपर उठो और चाणक्य के वरद् पुत्र जैसी भूमिका निभाओ। विजय प्राप्त कराने की जिम्मेदारी तुम्हारी नहीं मेरी है।” शिवाजी जब अपने सैन्य बल को देखते हुए असमंजस में थे कि इतनी बड़ी लड़ाई कैसे लड़ी जा सकेगी, तो समर्थ रामदास ने उन्हें भवानी के हाथों अक्षय तलवार दिलाई थी और कहा था तुम छत्रपति हो गये। पराजय की बात ही मत सोचो। राम लक्ष्मण को विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के बहाने बल और अतिबल का कौशल सिखाने ले गये थे ताकि वे युद्ध लड़ सकें। असुरता के समापन और रामराज्य के रूप में सतयुग की वापसी संभव कर सकें। महाभारत लड़ने का निश्चय सुनकर अर्जुन सकपका गया था और कहने लगा था कि “मैं अपने गुजारे के लिए तो कुछ भी कर लूँगा फिर हे केशव! आप इस घोर युद्ध में मुझे नियोजित क्यों कर रहे हैं?” इसके उत्तर में भगवान ने एक बात कही थी कि “ इन कौरवों को तो मैंने पहले ही मार कर रख दिया है। तुझे तो यदि श्रेय लेना है तो आगे आ, अन्यथा तेरे सहयोग के बिना भी यह सब हो जायेगा जो होने वाला है। घाटे में तू ही रहेगा। श्रेय गँवा बैठेगा और उस गौरव से भी वंचित रहेगा जो विजेता और राज्य सिंहासन के रूप में मिला करता है।” अर्जुन ने वस्तुस्थिति समझी और कहने लगा “करिष्ये वचनं तव” अर्थात् “आपका आदेश मानूँगा।” ऐसे ही हिचकिचाहट हनुमान, अंगद, नल-नील आदि की रही होती तो वे अपनी निजी शक्ति के बल पर किसी प्रकार जीवित तो रहते, पर उस अक्षय कीर्ति से वंचित ही बने


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