युग को निहाल कर देने वाला उच्चस्तरीय पुरुषार्थ

January 1991

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संसार में दृश्यमान जड़ पदार्थों के साथ-साथ ऐसी एक सर्वव्यापी नियामक सत्ता भी है, जो इस आश्चर्य भरे ब्रह्माण्ड का सृजन करने से लेकर और भी न जाने क्या-क्या बनाती रहती है। अध्यात्म का तत्वदर्शन समझने की जिज्ञासा रखने वालों को इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।

असल की नकल इन दिनों खूब चल पड़ी है। नकली चीजें सस्ती भी होती हैं। चलती भी अधिक है और बिक्री भी उन्हीं की अधिक होती देखी जाती है। नकली सोने के, नकली चाँदी के जेवरों की दुकानों में भरमार देखी जाती है। नकली हीरे मोती भी खूब बिकते हैं। नकली दाँत अधिक चमकते हैं। नकली घी से दुकानें पटी पड़ी हैं। नकली शहद सस्ते भाव में कहीं भी मिल सकता है? पर वह वस्तुएँ ऐसी चमकीली होते हुए भी असली जैसा सम्मान नहीं पातीं। बेचने पर कीमत भी नहीं उठती। अध्यात्म का नकलीपन भी बहुत प्रचलित हुआ है। उसे उपहार-मनुहार की टंटघंट पूरी करके उन लाभों को पाने की प्रतीक्षा की जाने लगती है। जिनके लिए प्रबल पुरुषार्थ और व्यक्ति के उठे हुए स्तर की अपेक्षा की जाती है। समुचित मूल्य चुकाने पर कोई कीमती वस्तु ऐसे ही तिकड़मबाज़ी के सहारे हाथ कैसे लगे? देखा जाता है कि मनोकामनाओं का पुलिंदा बाँधे फिरने वाले जिस तिस देवी-देवता के पीछे गिड़गिड़ाते फिरने के उपरान्त भी खाली हाथ लौटते हैं और विधि विधान में कोई गलती रहने या पूजापाठ को व्यर्थ बताने की नास्तिकों जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहते हैं। आये दिन लाभ मिलते रहने की बात न बनते देख कर उस प्रक्रिया को छोड़ भी बैठते हैं या जब तब अनमने मन से लकीर पीट लेते हैं।

अच्छा होता अध्यात्म का दर्शन, स्वरूप, उद्देश्य और प्रयोग के संबंध में गहराई में उतर कर जानने का प्रयत्न किया गया होता और पूरा मूल्य देकर असली चीज पाने की मान्यता बनाई होती। तब इस संदर्भ में किसी को कोई शिकायत करने की आवश्यकता न पड़ती।

सर्वविदित है कि विश्व शक्ति के भण्डार में सर्वोपरि आत्मबल है। उसकी तुलना धन बल, बुद्धि बल, शस्त्र बल, सत्ताबल, आदि से नहीं हो सकती। वे सभी छोटे और बौने पड़ते हैं। जो कार्य आत्मबल सम्पन्न कर सके वे दूसरों से नहीं बन पड़े। पुरुषार्थ का अपना प्रयोजन तो है, पर यदि उसके पीछे आत्मबल का समावेश न हो तो फिर समझना चाहिए कि फुलझड़ी का तमाशा मात्र बन कर रह गया। असुरों में से अनेकों ने साधना बल के सहारे कई प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त कीं, पर वे न तो अधिक समय टिकीं और न अन्ततः सुखद परिणाम ही प्रस्तुत कर सकीं। भस्मासुर, महिषासुर, वृत्रासुर, रावण आदि की सिद्धियाँ अन्ततः उनके और उनके संबंधियों के लिए विनाश और विपत्ति का कारण ही बनीं। इसके विपरीत उस दिशा में उद्देश्यपूर्ण कदम बढ़ाने वाले स्वल्प साधना में भी उच्चस्तरीय एवं प्रशंसनीय सफलता प्राप्त कर सके। बुद्ध, गाँधी, अरविंद, रमण, रामकृष्ण, चाणक्य, रामदास, विवेकानन्द, दयानन्द, आदि की साधनाएँ जहाँ उन्हें मनस्वी बना सकीं वहीं उनके कर्तृत्व ने समाज का असाधारण हित-साधन किया। ऋषियों की समस्त शृंखला उसी प्रकार की है। वे स्वयं तो आकाश में नक्षत्रों की तरह अभी भी चमकते हैं, साथ ही उनके समय में उनके साथ जो भी रहे वे सत्संग जन्य लाभों से निहाल होकर रहे और उच्चकोटि के अनुदान-वरदान प्राप्त करके कृतकृत्य हो सके।

भगवान के अनुग्रह से कितने छोटे-छोटे असाधारण श्रेय साधन से सम्पन्न हुए हैं। हनुमान, अंगद, नल-नील, जामवन्त, भागीरथ, प्रह्लाद, सुदामा, विभीषण आदि की सफलताएँ ऐसी ही हैं जिन्हें वे अपने निजी पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं कर सकते थे। मनुष्य के अपने पुरुषार्थ की भी महत्ता है, पर उसके साथ यदि दैवी अनुग्रह के रूप में आत्मबल भी सम्मिलित हो जाता है तो फिर सोने में सुगंध के सम्मिश्रण जैसी बात बन जाती है। महाप्रभु ईसा का जीवन उदाहरण के लिए सामने है। कुन्ती, सावित्री, द्रौपदी, सुकन्या, अरुन्धती आदि महिलाओं ने भी अपनी साँसारिक योग्यता की तुलना में आत्मिक विभूतियों के सहारे कहीं अधिक पाया था।

इक्कीसवीं सदी में मानवी पुरुषार्थ की आवश्यकता तो बहुत पड़ेगी। सतयुग की तरह साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों की तरह असंख्यों को आत्मोत्कर्ष की सेवा साधनाओं में भी अपने को खपाना पड़ेगा, किन्तु यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इतना बड़ा काम मात्र मानवी भागदौड़ से पूरा हो जाएगा। जब अपने छोटे से कुटुम्ब के थोड़े से दायरे में वाद-विवाद, मनोमालिन्य, लोकव्यवहार के झगड़े काबू में नहीं आ पाते तो 600 करोड़ मनुष्यों में से प्रत्येक के पीछे लगी हुई ढेरों दुष्प्रवृत्तियों का कुप्रचलन कुछ थोड़े से व्यक्ति थोड़ी सी योजनाएं बनाकर हलके-फुलके व्यक्तियों के सहारे उसे पूरा कर सकेंगे, यह आशा कैसे की जा सकती है। इतने प्रबल पुरुषार्थ और समाधान के पीछे दैवी शक्ति का समावेश भी होना चाहिए अन्यथा मानवी पुरुषार्थ अपनी भूलों, कमजोरियों एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण ही सफलता के स्थान पर असफल होते देखे गये हैं।

आत्मबल का सम्पादन कठिन नहीं वरन् सरल है। उसके लिए आत्मशोधन एवं लोक मंगल के क्रियाकलापों को जीवनचर्या का अंग बना लेने भर से काम चलता है। व्यक्तित्व में पैनापन, प्रखरता का समावेश इन्हीं दो आधारों पर बन पड़ता है। यह बन पड़े तो दैवी अनुग्रह अनायास बरसता है और आत्मबल अपने भीतर से ही प्रचुर परिमाण में उभर पड़ता है। केवट, शबरी, गिलहरी, रीछ वानर, ग्वालबाल जैसों की भौतिक सामर्थ्य स्वल्प थी, पर वे अपने में देवत्व की मात्रा बढ़ा लेने पर ही इतने मनस्वी बन सके जिसकी चर्चा इतिहासकार आये दिन करते रहते हैं। सुग्रीव की विजय के पीछे उसकी निज की बलिष्ठता मात्र ही कारगर नहीं हुई थी। नरसी मेहता ने अभीष्ट धन अपने व्यवसाय से नहीं कमाया था। अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर किसी एक धनवान की कृति नहीं है। इनके पीछे देवत्व का अदृश्य सहयोग भी सम्मिलित रहा है। ध्रुव को ब्रह्माण्ड के केन्द्र बनने का श्रेय उसके तपोबल के सहारे ही संभव हुआ था। अगस्त्य का समुद्रपान और परशुराम द्वारा अपने कुल्हाड़े के बल पर लाखों -करोड़ों का जो “ब्रेन वाशिंग” हुआ था उसे किन्हीं वक्ताओं के धर्मोपदेश से नहीं किया जा सकता।


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