मन को शरीर राज्य का अधिपति कहा गया है। उसमें पनपने वाली विकृतियों से शरीर में गड़बड़ियों के लिये प्रशासन तंत्र को भले ही पूरी तरह उत्तरदायी न ठहराया जा सकें, क्योंकि समाज में ऐसे तत्वों का अस्तित्व भी रहता है जो शासन तंत्र की उपेक्षा करते हैं, उसकी परवाह नहीं करते और व्यवस्था में रुकावट डालते हैं। परन्तु शरीर के सम्बन्ध में ऐसा कुछ नहीं है, क्योंकि शरीर में ऐसा कोई घटक नहीं है जो मन की उपेक्षा कर सके। मन से बलवान कोई इकाई शरीर में है ही नहीं। निर्विवाद रूप से शरीर पर मन का ही एक छत्र राज्य है। इस तथ्य को जानने के बाद यह मानने से इंकार करने का कोई कारण नहीं है कि मन का असंतुलन, शोक, संताप तथा उद्वेगों के साथ रोग बीमारियों के रूप में भी अपना प्रभाव उत्पन्न करे। विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुँचता जा रहा है कि रोगों का कारण शरीर में नहीं मन में है।
इस तथ्य को अब चिकित्सा-विज्ञान ने सिद्धान्ततः स्वीकार भी कर लिया है और इस आधार पर रोगों के उपचार की नई पद्धतियाँ भी खोजी तथा अपनायी जाने लगी हैं। बड़े शहरों में साइकियाट्रिस्ट, फिजीशियन उपचार करते समय रोग परीक्षण के साथ रोगी के मनोविश्लेषण पर भी ध्यान देते हैं। उपचार की यह पद्धति काफी सफल रही है और कोई आश्चर्य नहीं की अगले दिनों प्रचलित चिकित्सा पद्धति की उपयोगिता को नकार दिया जाए तथा उसके स्थान पर मानसोपचार एवं औषधोपचार की मिश्रित चिकित्सा पद्धति अपनाई जाय। पिछले दिनों ब्रिटेन के डॉ. हैरी एडवर्ड्स ने बिना दवा और बिना औजार के एक नई चिकित्सा पद्धति विकसित की है, जिसे उन्होंने ‘स्प्रिचुअल हीलिंग” अथवा “आध्यात्मिक चिकित्सा” का नाम दिया है।
डॉ. हैरी एडवर्ड्स ने अपनी पुस्तक “ट्रुथ अबाउट स्प्रिचुअल हीलिंग” में इस चिकित्सा पद्धति के सिद्धाँतों और विधियों का उल्लेख करते हुए ऐसे कई रोगियों के विवरण दिये हैं जिन्हें डाक्टरों ने लाइलाज घोषित कर दिया था, किन्तु आध्यात्मिक चिकित्सा से वे ठीक हो गये। बम्बई के मनोहर लाल कुडालकर भीषण सूत्रण रोग से पीड़ित थे। वर्षों से इलाज कराते रहने के बावजूद भी वे ठीक नहीं हो पा रहे थे। बल्कि उनके सम्बन्ध में “मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की” वाली उक्ति चरितार्थ हो रही थी। डॉ. हैरी एडवर्ड्स की अध्यात्म चिकित्सा से वे पूरी तरह ठीक हो गए। लंदन की एक महिला एलिजाबेथ विल्सन का रोग भी विचित्र है। सन् 1909 में जब वह कुल साढ़े तीन वर्ष की थी, उसकी रीढ़ की हड्डी में दर्द हुआ। दर्द इतना भयंकर था कि उसे पूरे एक वर्ष तक बिस्तर पर सीधे लिटाये रखा गया और उसका इलाज भी कराया गया लेकिन रोग ठीक होने के बजाए गंभीर ही होता चला गया। चौदह वर्ष तक पहुँचते-पहुँचते तो पीड़ा असहनीय हो चुकी थी और वह चलने फिरने में असमर्थ हो गई। इस तरह वह पूरे 30 वर्ष तक इस पीड़ा को झेलती रही। चिकित्सकों ने हार मान ली और उसके मर्ज को लाइलाज बताया। सन् 1950 में एलिजाबेथ के अभिभावकों को किसी ने डॉ. एडवर्ड्स के बारे में बताया उनके उपचार से वह कुछ ही हफ्तों में ठीक हो गई।
लंदन के ही विलियम ओल्सन “प्रोपल्स स्पाइनल डिस्क” नामक रोग से बुरी तरह पीड़ित थे। विशेषज्ञों ने एक्सरे आदि के बाद इस रोग की पुष्टि की। ओल्सन ने काफी इलाज भी कराया किन्तु रोग ठीक नहीं हुआ सो नहीं ही हुआ। अंततः ओल्सन डॉ. एडवर्ड्स के चिकित्सालय में गए। वहाँ उनका उपचार आरम्भ हुआ और कुछ ही दिनों बाद रोगी ने प्लास्टर जैकेट के बिना चलना शुरू कर दिया। चंद हफ्तों के इलाज से ओल्सन पूर्णतया निरोग भी हो गए। ओल्सन ने इसके कुछ ही वर्षों बाद 16 हजार मील से अधिक की यात्रा की और उन्होंने बताया इस यात्रा में मुझे कोई असुविधा नहीं हुई। रोग का कोई चिन्ह उनमें उपचार के बाद विद्यमान नहीं पाया गया।
डॉ. एडवर्ड्स ने अपनी चिकित्सा पद्धति के सम्बन्ध में “ट्रुथ अबाउट स्प्रिचुअल हीलिंग” में लिखा है - आध्यात्मिक चिकित्सा एक विधेयात्मक चिकित्सा विधि है और इसके परिणाम भी तर्कसंगत हैं। इसका काम मनुष्य और उसके सर्जक के बीच उचित संबंधों को पुनर्स्थापित करना है। जब कि आधुनिक प्रचलित चिकित्सा पद्धति मनुष्य को कुछ रासायनिक तत्वों का योग भर मानकर चलती है और स्वास्थ्य में खराबी का कारण इन रासायनिक संतुलनों को गड़बड़ा जाना मात्र समझती है। दवाएँ परहेज, उपचार और शास्त्र चिकित्सा को साधने के लिये किये जाते हैं। यह रासायनिक संतुलन दवा और उपचार से कुछ समय के लिये स्थापित भी हो जाते हैं किन्तु एडवर्ड्स के अनुसार स्वास्थ्य की सही सिद्धि अपने मूल स्त्रोत आध्यात्मिक सत्ता या परम चेतना है। यही कारण है जिन कई रोगों को आधुनिक चिकित्सा असाध्य अथवा दुःसाध्य मानती है। ‘स्प्रिचुअल हीलिंग’ द्वारा उन्हें बड़ी सरलता से थोड़े ही समय में ठीक कर दिया गया। इस चिकित्सा पद्धति को अपनाकर वर्षों पुरानी पीड़ा दूर होती देखी गई है।
डॉ. एडवर्ड्स का कहना है कि अध्यात्म चिकित्सा सुनिश्चित नियमों और तर्कसंगत कारणों के आधार पर अपना प्रभाव उत्पन्न करती है। उनके अनुसार हर बात का कोई न कोई कारण होता है और हर परिवर्तन के लिये किसी न किसी शक्ति का उपयोग किया जाता है, परन्तु स्वाभाविक चिकित्सा के रहस्य की खोज में एक मूल कठिनाई यही है कि हम केवल वही समझ सकते हैं जो हमारी समझ की सीमा में आती है। उदाहरण के लिये किसी ऐसे व्यक्ति को, जो जन्म से ही अंधा हो किसी रंग का वर्णन करके नहीं, समझाया जा सकता है। आध्यात्मिक चिकित्सा के साथ यही बात जुड़ी हुई है। इसके आत्मिक जगत के अभौतिक आयाम है और किसी भी अभौतिक अथवा अलौकिक विषय को भौतिक और लौकिक भाषा में या कि शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। फिर भी चूँकि हर चिकित्सा का एक सुनियोजित क्रम है। अतः इसके लिए एक विशेष प्रकार की समझ आवश्यक है।
भारत सहित विश्व के कई देशों में इस तरह के उपचार केन्द्र कार्यरत हैं और लगभग सभी स्थानों पर इस उपचार पद्धति को मान्यता दी जा चुकी है। इसका कारण यही है कि इस पद्धति से हजारों रोगियों का सफलतापूर्वक इलाज किया जा चुका है। ऐसे रोगियों को भी इस पद्धति से लाभ पहुँचा है, जिन्हें डॉक्टर जवाब दे चुके होते हैं।