जिसने परायी पीर को जाना

January 1991

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बर्फ की हलकी परत अभी भी सड़क पर थी। सुबह के सूरज ने अपनी किरणों के पारस स्पर्श से इसे सोने का बना दिया था। बस यही लगता था सड़क पर किसी ने दूर-दूर तक सोना बिखरा दिया है। पहली नजर ही आँखों को चौंधिया देती। किनारे खड़े वृक्ष स्वर्ण लोलुपता से दूर निर्लोभी संत की भाँति मौन थे। एक अपूर्व निस्तब्धता वातावरण को चारों ओर से लपेटे थी। कभी-कभार हवा का हल्का झोंका इसे तरंगित कर देता अथवा इक्के-दूक्के आने-जाने वाले इसे चीरते निकल जाते। वह भी हल्के कदमों से गुजर रहा था। ओवरकोट और पैण्ट उसके शरीर को पूरी तरह लपेटे थे। भारी जूतों ने बर्फ और पैरों के बीच मोटी दीवार बना रखी थी।

अचानक उसकी दृष्टि पेड़ के नीचे पड़ी किसी चीज से टकराई। तो.. क्या.. सन्देह ने पैरों को उस ओर चलने के लिए विवश किया। पास पहुँच कर सन्देह विश्वास में बदला यही कोई पन्द्रह-सोलह साल उम्र रही होगी। गरीब के मुँह पर, छाती, मुट्ठियों और पैरों पर बर्फ के कण-चिपके थे। दस्ताने से अपना हाथ निकाल कर उसकी छाती टटोली। अभी साँस बाकी थी, लगता है देर नहीं हुई। एक पल में कर्तव्य निश्चित हुआ। अपना ओवरकोट उतार कर उसके शरीर पर लपेटा। उसे कन्धे पर डालकर एक ओर चल पड़ा। आज की सेंक चिकित्सीय सुविधा ने बालक को होश में ला दिया। होश में आने पर उसने बताया कि वह एक होटल में काम करता है। ओवरकोट और कुछ पैसे बालक को देकर एक अन्तर्द्वन्द्व के साथ चल पड़।

अन्तर्द्वन्द्व-क्या दिए गए धन और सामान के बारे में? नहीं पिता के व्यवहार ने उसे चिन्तित कर दिया था। ओवरकोट न देखकर वे क्या कहेंगे और मैं क्या जवाब दूँगा? मन के पन्नों पर इसी की एक लम्बी प्रश्नोत्तरी तैयार करने लगा। उसके पिता कोई गरीब हों-ऐसी बात नहीं। उनके धन के चर्चे तो आस-पास होते रहते। लाखों की सम्पत्ति थी उनके पास। पर उन्हें डर था लड़के की यह उदारता कहीं उन्हें कंगाल न बना दे। वे उसे डाँटते रहते।

वह करे भी तो क्या? फिजूल खर्ची, दुर्व्यसन उससे कोसों दूर थे। पर उसके मन में दुःखी दरिद्र और कष्ट पीड़ितों के प्रति अपार करुणा थी। निजी आवश्यकताओं में बेहद कम खर्च करने वाला वह पीड़ितों को सब कुछ दे डालता। एक बार तो अपने घर की कई वस्तुएँ गरीब लोगों में बाँट दीं। पूछने पर कहा जब हम इन वस्तुओं का कोई उपयोग नहीं कर पा रहे हैं तो जरूरतमंद इनसे क्यों वंचित रहें। पिता से मार खाने पर अब वह अपने व्यक्तिगत खर्चों में कटौती कर सेवा सहायता किया करता। कुछ समय तक घर वालों को इसका पता नहीं चला पर जब यह मालूम पड़ गया कि वह अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर लोगों को बाँट रहे हैं। तब एक दिन पिता ने बुलाया और कहा-सुना है तुम अपनी जरूरतें कम कर दानवीर बन रहे हो।

उसने उत्तर दिया- “न जाने क्यों मुझे दूसरे लोगों को देख उनकी जरूरतों का ख्याल आ जाता है। मैं सोचने लगता हूँ कि मैं तो इन वस्तुओं के बिना भी अपना काम चला सकता हूँ। उन लोगों को क्यों कुछ न दूँ, जिनका इन पर हक है।” इस पर भी डाँट मिली।

एक-एक कर ऐसे ही अनेकों वाकयों को सोचते वह घर के पास आ पहुँचा। सामने पिता टहल रहे थे। देख कर मुँह सूख गया सारी सर्दी हवा हो गई। ओवरकोट के बिना इन्हें देखते ही उनके तेवर चढ़ गए। व्यंगात्मक भाषा में बोले-क्यों जी -दानवीर! आज कोट भी बाँट आए। जी.. ज.. जी घबराहट के कारण उससे कुछ बोलते नहीं बन रहा था। पिता ने डपटते हुए कहा यदि तुम्हें दान का इतना ही शौक है तो क्यों नहीं अपनी मेहनत से कमा कर लोगों को बाँटते हो।

“अब ऐसा ही करूंगा” युवक अपने पिता को प्रणाम कर उलटे कदमों से लौट पड़ा। यद्यपि उलाहना सामान्य ढंग से दिया गया था, किन्तु वे निकल पड़े। वापस न लौटने को।

ग्रह त्याग कर वे एक साधु मठ पहुँचे, साधुओं ने उनसे खाने के लिए पूछा। भूख के कारण पेट की आंतें तो कुलबुला रही थीं पर पिता की बात याद आ गयी और बोले “मैं इस प्रकार कोई वस्तु नहीं लेना चाहता। मेहनत करके पेट भरना चाहता हूँ आप पहले मुझे काम दीजिए।”

साधुओं ने उन्हें बरतन मांजने का काम बताया। एक दिन नहीं वर्षों यही सिलसिला चला। घर वापस बुलाने की कोशिशें नाकाम हुई। आत्म निर्भरता और सेवा भावना का समन्वय करने वाला यह युवक विश्व का महान सन्त बना। शताब्दियाँ बीत जाने पर भी विश्व मानवता संत फ्राँसिस के नाम से जाने जाने वाले इस मानव को आत्म निर्भर सेवा भावना के प्रतीक के रूप में आज भी नमन करती है।


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