ईश्वर को साझेदार मानें (Kahani)

January 1991

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एक कृपण सत्संग में आया करता था। कभी एक पैसा भी पूजन में चढ़ाता न था। लोग मन ही मन उसकी निंदा करते। भावभंगिमा देखकर कृपण लोगों के मनोभावों को भाँप तो लेता था।

एक दिन सत्संग करके कृपण ने कथा पर एक सौ रुपया चढ़ा दिये। देखने वाले वाह वाह कहने लगे। कृपण ने लोगों से कहा देखा आपने पैसे का चमत्कार। क्षण भर में वाह वाही हो गयी। इसीलिए तो पैसा बचाता हूँ कि उसके बदले जब जो चाहे सो खरीदा जा सके।

कथा वाचक ने समझाया कि आज कि प्रशंसा आपके दान की परिणति है। धनी तो आप पहले से ही थे पर किसी ने आपके नहीं सराहा। आज तो आप त्याग अपना कर ही प्रशंसा के पात्र बने हैं।

कहा जा चुका है कि मन शरीर का संचालक और नियामक है। मनः शास्त्री इसे शरीर का स्वामी मानते हैं। परन्तु भारतीय तत्वदर्शन मन को शरीर संचालन के लिए आत्मा द्वारा नियुक्त एक कर्मचारी मात्र मानता है अर्थात् स्वास्थ्य, सुव्यवस्था और शरीर के सुसंचालन में आत्मिक शक्ति की न्यूनता या प्रबलता ही लड़खड़ाने अथवा सम्हालने का आधार बनती है। जो परम चेतना शक्ति अपने संकल्प मात्र से इतने बड़े विश्व ब्रह्माण्ड का सृजन कर सकती है, उसे बना और बिगाड़ सकती है, उससे संबद्ध होकर शरीर को स्वस्थ नहीं रखा जा सके तो आश्चर्य ही है। शक्ति से जुड़कर स्वास्थ्य लाभ अर्जित करने की ओर अब ध्यान दिया जाने लगा है। अच्छा यही होगा कि हम प्राकृतिक जीवन की ओर मुड़े और जीवन के हर कार्य में ईश्वर को साझेदार मानें।


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