आइए! इस वसंत पर एक संकल्प दुहरायें।

January 1991

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जो नहीं दे सका, कोई भी आज तक,

पूज्य गुरुदेव! वह, दे दिया आपने।

प्राण में प्रेरणा - भाव संवेदना,

बुद्धि को श्रेष्ठ चिन्तन, दिया आपने॥

वस्तुतः ये पंक्तियाँ दुहराते हुए सहज ही स्मरण हो आता है,उन अनगिनत बहुमूल्य अनुदानों का जो एक विशाल हृदय वाले पिता, लाखों प्रज्ञा परिजनों के आराध्य पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर लुटाते रहने का अनवरत क्रम चालू रखा व अभी भी सूक्ष्म व कारण शरीर से सक्रिय हो, प्रत्येक को अपनी उपस्थिति का बोध करा रहे हैं। बसंत पर्व 21 जनवरी 1991 की पूर्व वेला में उनके आध्यात्मिक जन्मदिवस पर हर वर्ष पूज्य आचार्य श्री को अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाने गायत्री तीर्थ आते रहे। अगणित शिष्य परिजन उन्हें सशरीर तो नहीं पाएँगे पर उन्हें यह कदापि बोध नहीं होगा कि उन्हें नवजीवन देने वाली, उनकी उपलब्धियों की मूल स्त्रोत गुरुसत्ता की उपस्थिति यहाँ नहीं है।

यह महामानवों की रीति-नीति होती है कि वे जीवन के हर पल की सुनियोजित विधि व्यवस्था बना कर आते व एक पल भी नष्ट किए बिना अपने कर्तृत्व में निष्ठापूर्वक लग जाते हैं। महाकाल की पक्षधर सत्ता जो समय की गति से भी तीव्र भागते हुए अस्सी वर्ष में अनेक गुना काम करती चली गयी, एक ही तथ्य प्रतिपादित करती है कि दैवी चेतना अवतरित हो सक्रिय जीवन्त बनने को सतत् उद्यत रहती है। आवश्यकता पात्रता विकसित करने भर की है। एक सुदूर देहात में जन्मी एक महान आत्मा कभी अपने व्यक्तित्व कर्तृत्व से विचार क्रान्ति को एक आँधी लाकर खड़ा कर देगी, लोकसेवियों की एक सेना अपने पीछे छोड़ जाएगी, यह संभवतः उन दिनों तीस व चालीस के दशक में किसी ने सोचा भी न होगा। यह तथ्य सही है कि बहुसंख्य महामानव, अवतारी पुरुष अपने कार्यकाल में कम, बाद में अपने पीछे छोड़े गए निर्धारणों व कर्तृत्वों के कारण पहचाने गए।

एक तथ्य और भी महत्वपूर्ण पूज्य गुरुदेव के जीवन से जुड़ा है, वह है लोक श्रद्धा, जनसम्मान के प्रति एक सही अर्थों में ब्राह्मण व्यक्ति की निस्पृहता। जीवन भर वे जिस फसल के बीज बोते रहे, प्रसुप्तों की सुसंस्कारिता जगाते रहे, नित नूतन निर्धारणों से, व्यक्ति से समाज निर्माण तक के विभिन्न सोपानों का उद्घाटन करते रहे, जब उसकी पराकाष्ठा का समय आया, तब उन ने अपने द्वार बन्द कर लिए व प्रतिष्ठ को वितरित कर दिया, अपने शिष्यों, कार्यकर्ताओं में। बड़े उत्साह से वे अपने इन किंचन अनुयाइयों का सब आने वालों से परिचय कराते पर प्रत्येक समझदार कार्यकर्ता भली भाँति जानता था कि जो कुछ भी कहा जा रहा है, वह उससे की जा रही अपेक्षा भर है, वह अभी उस प्रशंसा के समीप पहुँचने से कोसों दूर है। पर यही तो महानता है महामानवों की। यह जताने की कि या तो आदर्शवाद की इस परिधि में, जो बताई जा रही है, वे स्वयं को ले आएँ नहीं तो लोक सेवा युग का नेतृत्व का क्षेत्र छोड़ दें।

जिन दिनों पूज्य गुरुदेव ने अपने मिलने जुलने का क्रम बन्द कर स्वयं को कठोर तप तितिक्षा में नियोजित किया, उन दिनों यदि अन्याय धर्मोपदेशकों की तरह वे कदाचित एक बार भी कार्य क्षेत्र में निकल जाते व मात्र दो माह का दौरा कर पूरा भारत व विश्व घूम आते तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे प्रसिद्धि के चरम शिखर पर होते किन्तु परिपक्वता -प्रौढ़ता की यही अवधि आते ही उन ने अपनी अगली तैयारी आरंभ कर दी। वह थी सूक्ष्म जगत में छाई विपन्नताओं, भावी विभीषिकाओं से जूझने हेतु अपनी आत्मसत्ता को तपाकर चतुर्दिक् संव्याप्त होने की प्रक्रिया। परिजन के हित की भी उन्हें देख−रेख करनी थी, साथ ही ऋषि सत्ताओं के साथ सघनताओं से तादात्म्य स्थापित कर परोक्ष जगत को तपाना था। इस के लिए प्रायः सात वर्ष यह सत्ता एक ही कक्ष में बैठी, वहीं से सारा वातावरण बनाने का कार्य करती रही। जब भी कार्य क्षेत्र- को संभालने, नेतृत्व करने या हार-पुष्प पहनने का अवसर आया तो उन ने अपने प्रतिनिधि आगे कर दिये। ऐसी निस्पृहता कहीं देखने को मिलती है आज के महत्वाकांक्षा से भरे इस जगत में? जिन्हें अनायास ही यह सम्मान मिल गया व जिन ने इसको पचाकर अपना दायित्व भी निभाया, वे निहाल हो गए, जन-जन के श्रद्धा भाजन बन गए। जो पचा नहीं सके, वे न जाने कहाँ विलुप्त हो गए। एक उदाहरण वे अपने सामने स्थापित कर गए कि मात्र वहीं लोकसेवी जनता के शाश्वत सम्मान का अधिकारी बनता है, जो अपनी मार्ग दर्शक सत्ता की तरह ब्रह्मनिष्ठ जीवन जीता है।

यही तथ्य पिछले दिनों परिजनों ने संकल्प श्रद्धाँजलि समारोह में साकार होते देखा। यदि किन्हीं या किसी को ऐसा लगा हो कि उसने या उन ने जो योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाया उसी कारण यह कार्यक्रम सफल हुआ तो झुठलाने को व साक्षी हेतु अगणित प्रमाण सामने है,। श्रेय चाहे कोई भी ले ले किन्तु कोई यह कह सकता है कि इतनी बड़ी सारी व्यवस्था किसी एक या एक समूह के बस की बात थी? नहीं कदापि नहीं। जब राष्ट्रव्यापी अराजकता का दौर चल रहा हो, यातायात के साधन ठप्प पड़े हों, रिजर्व की गई स्पेशल ट्रेनें भी स्थगित कर दी गई हों, स्थानीय प्रशासन बार-बार कह रहा हो कि परिस्थितियों को देखते हुए आप अधिक से अधिक पचास हजार की आशा करिए। इससे ज्यादा व्यक्ति न तो आ सकेंगे न ही हमें स्वप्न में आशा है। किन्तु परिजन आए गाँवों से, कस्बों से, नगलों से, नगरों से तथा विश्व भर में फैले केन्द्रों से। 25 सितम्बर से 1 अक्टूबर के बीच आने वालों का ताँता लगा रहा व व्यवस्था परोक्ष सत्ता बिठाती रही। कहने को यह कहा जा सकता है कि आवास समिति ने व यातायात, आपूर्ति विभाग ने सबको सँभाला व सब को यथोचित ठहराया किन्तु सभी को भली भाँति अहसास था कि कौन सा छात्र उस अवधि में इस पूरे तंत्र पर छाया हुआ इसकी सुरक्षा कर रहा था। एक भी परिजन को रास्ते के अस्त−व्यस्त यातायात ने नहीं रोका व सभी अपने मुकाम पर पहुँचते चले गए।

छह लाख व्यक्तियों की चार या पाँच दिन तक व्यवस्था लगातार किसी कुम्भ में भी नहीं की जाती। कुम्भ में तो प्रतिदिन व्यक्ति आते व जाते रहते हैं। यहाँ तो अलग ही नजारा था। लोग ट्रैक्टर, बसों, रेलों, कारों व जो साधन मिले उनसे चले आ रहे थे, अपने आराध्य गुरु को श्रद्धाँजलि समर्पित करने। स्थानीय स्तर पर सभी आश्रमवासियों, धर्मशालाओं ने जो सहयोग भाव दर्शाया, वह अकल्पनीय था। लग रहा था कि कोई सत्ता इन से वह कहलवा रही है जो हम सुन रहे हैं। जो कभी फोम के गद्दों पर सोते थे, वे चैन से टेण्ट में, छोलदारी में सभी परिजनों के बीच सोए। जो विदा लेता मानसून 29 सितम्बर तक परेशान कर सप्तर्षि आश्रम के समीप बसाए गए एक नगर को जलप्लावित करता रहा था। वह थम गया था व पूरा कार्यक्रम तथा इसके पाँच दिन बाद तक किसी प्रकार का व्यवधान इंद्र देवता द्वारा नहीं हुआ। यह सारा तंत्र व्यक्ति ने नहीं, शक्ति ने सँभाला था तभी तो सब कुछ सुव्यवस्थित होता चला गया।

कुछ हजार की भीड़ शासन को परेशान कर देती है, अर्ध सैनिक बलों को तैनात किया जाता है व सारी व्यवस्था ऊँचे स्तर पर बनायी जाती है। ब्रह्मदण्ड धारी स्वयंसेवकों को किस देवी प्रेरणा ने इतना अनुशासित बनाए रखा कि दूर से दर्शन होने पर भी, सभी कार्यक्रमों में उपस्थिति न बना पाने के बावजूद भी तथा भोजन हेतु पंक्तियों में काफी देर खड़ा रहने पर भी किसी ने कोई शिकायत नहीं की, व्यवधान नहीं फैलाया एवं स्वयं को व दूसरों को भी व्यवस्थित बनाए रखा। संघशक्ति का अपना महत्व है। कार्यक्रम की पूर्व तैयारी व उसके सुसंचालन का दायित्व उसी महाशक्ति ने सँभाला किन्तु वह अपौरुषेय पुरुषार्थ जो उन सबने उन दिनों कर दिखाया, क्या उसकी पुनरावृत्ति संभव है। हनुमान को आत्मबोध करा के जाम्बवन्त ने उन से लंका तक पहुँचने हेतु उड़ान भरवा ली थी। क्या ऐसा ही कुछ उन दिनों सबकी स्थिति नहीं थी।

यह सारा विवेचन यहाँ उस परोक्ष सत्ता, सूक्ष्म में संव्याप्त ऋषि चेतना की महत्ता बताने हेतु किया गया, जिसे हम गुरुतत्व नाम से पहचानते व जिसकी अपने कण-कण में उपस्थिति की सतत् अनुभूति कर अपना आत्मबल बढ़ाते रहते हैं। वसंत पर्व उल्लास का पर्व है, नूतन निर्धारणों का पर्व है, उन सभी अनुदानों को स्मरण करने का पर्व है जो उस दैवी सत्ता द्वारा हमें मिले व अब वंदनीया माताजी के माध्यम से प्रत्यक्षतः आगे भी मिलते रहेंगे। कृतज्ञता ज्ञापन का सही स्वरूप तो यही है कि हम उनके बताए एक एक दिशा निर्देशों पर बार-बार चिन्तन करें व उस ऋण से मुक्त होने का प्रयास करें जो हम पर चढ़ा है। समर्पण यदि सही अर्थों में गुरु सत्ता को किया है तो लेना ही नहीं, देना भी सीखें। हम सब विभूति सम्पन्न हैं। श्रमनिष्ठा बुद्धिमत्ता, संपन्नता, समर्थता, कौशल अनेकानेक रूपों में हमारे पास रत्नों के भण्डागार हैं। यदि हम सच्चे मायने में अनुदानों का ऋण चुकाना चाहते हैं। यह कहना चाहते हैं कि त्याग नहीं अपना, बस कर्ज चुकाते हैं तो बार बार स्मरण करें कि हम क्या थे, क्या से क्या हो गए व क्या करने को हमें कहा गया था? यदि यह आत्मचिन्तन सतत् चला रहा तो समष्टि में संव्याप्त परब्रह्म के विश्व उद्यान को सुरम्य बनाये रखने में कोई कसर हम छोड़ेंगे नहीं।

सन् 91 से आरम्भ हुआ यह दशक बड़ा चुनौती भरा वर्ष है। मनुष्य के अंतर्जगत से लेकर दृश्य जगत में इतने व्यापक परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहे हैं कि पलक उठाने भर की अवधि में क्या से क्या घट जाता है, पता नहीं चलता। विज्ञान की उपलब्धियों के चरमोत्कर्ष का समय है यह। इसे दोनों ही रूप देखने को मिल रहे हैं। जहाँ सुख सुविधाएँ, उपभोग व यातायात के द्रुतगामी साधन बढ़े हैं वहाँ पर्यावरण बुरी तरह प्रदूषित हुआ है, भोगविलास के साधनों ने कामुकता का उन्माद सा ला दिया है तथा युद्ध लिप्सा ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी विषम स्थिति विनिर्मित कर दी है। कब खाड़ी क्षेत्र में या सीमा पर युद्ध भड़क जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। राष्ट्र में अलगाववादी शक्तियाँ बड़ी तेजी से सक्रिय हुई हैं। जिस शासन से बड़ी बड़ी उम्मीदें लगायी गयी थीं, उसने वर्ग विभाजन रूपी विरासत छोड़ते हुए राष्ट्र को अराजकता भरी स्थिति में ला खड़ा किया है। जहाँ सारे राष्ट्र को एक होने, संघबद्ध होने की बात बुलंद स्तर में कही जानी थी, वहाँ जाति, उप-जाति के नाम परस्पर संघर्ष आरंभ हो गए हैं। साँप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक यह राष्ट्र मात्र देव संस्कृति के नेतृत्व में ही अक्षुण्णता बनाए रख सकता है, यह तथ्य भली भाँति ज्ञात होते हुए भी अलगाववादी विघटनकारी शक्तियाँ दुस्साहस करने से बाज नहीं आ रही हैं। अपना अस्तित्व असुरक्षित मानते हुए वे एक वर्ग से लड़ने को आमादा हैं। संभवतः यह सब युग संधि की इस बेला में संक्रातिकाल में घटना ही था। इन्हीं सबसे तो मोर्चा लेने हेतु ऋषि सत्ताएँ एक साथ ब्रह्मलीन हो सूक्ष्म जगत में सक्रिय हुई हैं। हमें परिस्थितियों का निषेधात्मक नहीं, उज्ज्वल पक्ष देखना है। ध्वंस तो कुछ सीमा तक होगा ही, रक्तपात भी होगा किन्तु इससे निखर कर जो भी कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा वह निश्चित ही शुभ होगा, उज्ज्वल भविष्य का संकेत लिए होगा।

गायत्री परिवार से सभी को बहुत आशाएं हैं, यह संगठन अपनी जुझारू शक्ति के कारण सभी के लिए सुरक्षा का एक आश्वासन तो है ही, सबको साथ लेकर चलने की अपनी विलक्षणता के कारण सभी की आशा का केन्द्र बिन्दु है। पूज्य गुरुदेव ने जिस बीज का आरोपण कर इसे विराट वट वृक्ष के रूप में पल्लवित किया है, वह बहुत ही स्वस्थ स्थिति में अनुकूल परिस्थितियों व दैवी अभिसिंचन से गलकर इस लक्ष्य तक पहुँचा है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। प्रज्ञा अभियान, युगनिर्माण योजना का ध्वज लिए, बैज लगाए, गणवेश पहने व्यक्ति की कोई जाति नहीं पूछता क्योंकि सारा भारत अब जानता है कि इस संगठन की क्या हस्ती है। आने वाले पाँच वर्ष इस विशुद्धतः अराजनीतिक, सामाजिक पुनर्निर्माण को संकल्पित मिशन के लिए कठिन परीक्षा के रहेंगे। इसे विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों में अपना विस्तार भी करना है तथा एक निरक्षर ग्रामीण व जन जातीय स्तर से प्रबुद्ध वर्ग तक में अपनी पैठ बढ़ानी है। इसके लिए मात्र एक कदम बढ़ाना होगा। गुरुदेव द्वारा लिखे साहित्य को, उनके चिन्तन व निर्धारणों को दृश्य, श्रव्य माध्यमों से उन तक पहुँचा भर देना होगा। मनोभूमि तो पहले ही बन चुकी है। समाज रूपांतरण को कृतसंकल्प है। यह परिवर्तन, उतार-चढ़ाव उसी अकुलाहट के तो चिन्ह हैं। यदि चिन्तन क्षेत्र को पतन से उबार कर परिपक्व बनाया जा सका तो वह सब कुछ स्वतः होने लगेगा जिसे इक्कीसवीं सदी बनाम सतयुग बनाम उज्ज्वल भविष्य के रूप में पूज्य गुरुदेव बता गए हैं। उन्हीं की चेतना तो चारों ओर सक्रिय हो वह सब करा रही है जो परिवर्तन का पूर्वार्ध है।

शक्ति महासत्ता की, संरक्षण दैवी सत्ता का परोक्ष मार्ग दर्शन ऋषि चेतना का, तथा पुरुषार्थ हम नगण्य से देवमानवों का। यदि समन्वय और सशक्त रूप में इस वसंत पंचमी से क्रिया रूप लेने लगे तो मानना चाहिए कि बीसवीं सदी के इस अंतिम दशक का शुभारंभ वैसा ही हुआ जैसा पूज्यवर चाहते अथवा जैसी वंदनीय माताजी की हम से अपेक्षा है। एक भाव मन से निकालना होगा कि हम स्वयं अपने निजी कर्तृत्व से कुछ कर रहे हैं। यदि यह भाव रहा तो अपने संगठन व अन्य महत्वाकाँक्षी सामाजिक जातीय संगठन में क्या अंतर रहा? यदि निष्काम भाव से समर्पित हो अपने आराध्य के विद्या विस्तार के, सत्यवृत्ति-संवर्धन के निर्धारणों को राष्ट्र व्यापी, विश्वव्यापी बनाने हेतु हम सभी संकल्पित हों तो देखते देखते वसंत का उल्लास चहुँ ओर संव्याप्त होता नजर आएगा। तब दृश्य कुछ और ही होगा। वातावरण में महक कुछ अन्य प्रकार की होगी। उल्लास चारों ओर छाया दिखाई देगा व सभी एक स्वर से निनाद कर रहे होंगे कि सतयुग की वापसी सुनिश्चित है। ब्रह्म कमल बनकर विश्व सुधा को सुवासित करने वाले ब्रह्मनिष्ठ लोक सेवी इक्कीसवीं सदी के रूप में उज्ज्वल भविष्य लाकर ही रहेंगे। तब कविवर श्री सुमित्रानन्दन पंत की निम्न पंक्तियां साकार होती लगेंगी :-

सौरभ की शीतल ज्वाला से,

फैला उर - उर में मधुर दाह।

आया वसंत भर पृथ्वी पर,

स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह ॥


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