चोट खाया हुआ साँप आक्रमणकारी पर ऐसी फुँकार मार कर दौड़ता है कि उसके होश छूट जाते हैं, बचाव के लिए भागना ही पड़ता है। साँसारिक व्यथाओं से विक्षुब्ध मनुष्य की भी ऐसी ही स्थिति होती है जब मनुष्य को पीड़ायें चारों ओर से घेर लेती हैं और कोई सहारा नहीं सूझता तो वह निष्ठापूर्वक अपने परमेश्वर को पुकारता है। हार खाये हुये मनुष्य की कातर -पुकार से परमात्मा का आसन हिल जाता है और उन्हें सारी व्यवस्था छोड़कर भक्त की सेवा के लिए भागना पड़ता हैं। मनुष्य ने बुलाया हो और उसकी शुभेच्छा न आई हो, मनुष्य ने सहायता माँगी हो और परमात्मा ने मनोरथ पूर्ण न किया हो, मनुष्य की प्रार्थना पर परमात्मा दौड़ कर न चला आया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ और न ही आगे कभी होगा। मनुष्य के विश्वास की शक्ति के आगे परमात्मा को सदैव झुकना ही पड़ा है।
उसे बुलाइये, वह आपके अंतःकरण में दिव्य प्रकाश बन कर उतरेगा, मधुर संगीत बनकर हृदय में गुंजन करेगा, आशीर्वाद बन कर आपके दुख-दर्द दूर करेगा, पर उसे सच्चे हृदय से बुलाइये, निष्कपट और निश्छल होकर पुकारिये।
ऐसा समय आता है जब मनुष्य संसार को भूल कर कुछ क्षण के लिये ऐसे दिव्य लोक में पहुँचता है जहाँ उसे असीम सहानुभूति और शाश्वत शान्ति मिलती है। प्रार्थना की इस आँतरिक स्थिति और उसके आनन्द को कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है। परमात्मा के सन्निकट पहुँच कर आत्मा जब भक्ति भावना से अपनी वेदनायें प्रस्तुत करती है तो अनिर्वचनीय आनन्द मिलता है। अंतःकरण की समस्त वासनायें विलीन हो जाती हैं। इन्द्रियों की चेष्टायें शान्त हो जाती हैं। उस आनंद की अभिव्यक्ति करते हुए महाकवि सूर ने लिखा है :-
ज्यों गूँगहि मीइ फल को रस उर अन्तर ही भावै। अमित स्वादु सब ही जुनिरन्तर अमित तोष उपजावै ॥ मन वाणी को अगम अगोचर जो जानें सो पावै ॥
सूर की अनुभूति का आनन्द ध्रुव ने पाया था। उसके दुःखी हृदय ने संसार से संतप्त अंतःकरण ने परमात्मा को करुण स्वरों में पुकारा था। भगवान उसके पास आये थे। कुमार ध्रुव ने पूर्णतया की स्थिति प्राप्त की थी। परमात्मा का अनुग्रह न रहा होता तो ध्रुव अजर-अमर कैसे होता?
हिरण्यकशिपु की हठधर्मिता से दुखी बालक प्रहलाद ने उसे बार-बार पुकारा, उसका नारायण बार-बार उसकी मदद के लिये दौड़ा। विष पिया उसके भगवान ने, समुद्र के गर्त में पाथेय बना प्रहलाद को भगवान्। इससे भी काम न चला तो नृसिंह बनकर प्रहलाद का भगवान खंभा चीर कर दौड़ा आया। जिसने मनुष्य को पैदा किया उसके हृदय में अपनी संतान के लिये मोह न हों, ममता न हो यह कैसे हो सकता है? मनुष्य बुलाये और वह न आये ऐसा कभी हुआ नहीं।
द्रौपदी जान गई कि इस सभा में उसे बचाने वाला कोई नहीं है। दुःशासन चीर खींचता है। लाज न चली जाय इस भय से निर्बल नारी अपने दीनानाथ को पुकारती है। भगवान श्रीकृष्ण आते हैं, उसका चीर बढ़ता जाता है। दुःशासन थक गया पर चीर समाप्त न हुआ। परमात्मा की अनन्त शक्ति को नापने की सामर्थ्य किस में है? उसे तो उनका परम भक्त ही जान और समझ सकता है।
सामूहिक प्रार्थनाओं का सदैव परमात्मा को स्वर्ग से धरती पर उतार लाने में समर्थ रहा देवासुर संग्राम की कथाओं में ऐसे अनेक वर्णन हैं। महाभारत के युद्ध की घटना है। युद्ध भूमि में किसी टिटहरी ने अंडे दे रखे थे। युद्ध जोर का चल रहा था। पक्षियों को और कोई सहारा दिखाई न दिया तो उन्होंने ईश्वर की शरण ली। परमात्मा ने उनके विश्वास की रक्षा की। एक हाथी का घंटा टूट कर अंडों को छुपाकर बैठ गया युद्ध समाप्त होने पर उसमें से पक्षियों के बच्चे सकुशल निकाल लिये गये।
गजराज की पुकार पर उन्हें वाहन का भी परित्याग करना पड़ा था। नंगे पैरों वे दौड़े थे और गज को ग्राह के फंदे से मुक्त किया था। जब भी जिस अवस्था में भी जिसने परमात्मा को सच्चे हृदय से पुकारा वह अपने आवश्यक कार्य छोड़कर दौड़ा। जीवात्मा के प्रति उसकी दया अगाध है, अनन्त है। वह भक्त का स्नेह बंधन ठुकराने में असमर्थ है।
बहुत से लोग हैं जो ईश्वर और उसके अस्तित्व को मानने से इंकार करते हैं, पर यदि भली भाँति देखा जाय तो मूढ़ताग्रस्त व्यक्ति ही ऐसा कर सकते हैं। एक बहुत बड़ा आश्चर्य हमारे सामने बिखरा पड़ा है। उसे देखकर भी जिनका विवेक जाग्रत न हो, कौतूहल पैदा न हो उसे और कहा भी क्या जायगा? पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है यह दृश्य हम किसी अन्य ग्रह में बैठे देख रहे होते हैं तो समझते मनुष्य का अभिमान कितना छोटा है। ब्रह्माण्डों की विशालता की तुलना में वह चींटी से भी हजार गुना छोटा लगेगा। अन्ततः आकाश और उस पर निरन्तर होती रहती ग्रहों, नक्षत्रों की हलचल, सूर्य-चन्द्र, सागर, पर्वत नदियाँ, वृक्ष वनस्पति मनुष्य के स्वर्ग के बदलते हुए क्षण क्या यह सब मनुष्य का विवेक जाग्रत करने के लिए काफी नहीं हैं। परमात्मा का अस्तित्व मानने के लिये क्या इतने से संतोष नहीं होता?
संपूर्ण हिन्दू संस्कृति का आधार ईश्वर-निष्ठ ही है। कोई भी धार्मिक कृत्य परमात्मा के ध्यान के बिना प्रारम्भ नहीं करते। उसे स्मरण करते ही वह शक्ति मिल जाती है जिससे मनुष्य कठिनाइयों को पार करता हुआ आगे बढ़ता चला जाय। ऐसे उदाहरण इस युग में भी चरितार्थ होते रहते हैं। संत ज्ञानेश्वर, जगद्गुरु, शंकराचार्य, संत तुकाराम, सूर और तुलसी का जीवन बीते कुछ अधिक दिन नहीं हुये। भारतीय स्वतंत्रता की उपलब्धि अभी कुछ दिन पूर्व ही हुई है। उसका प्रणेता महात्मा गाँधी अकेला था। शरीर भी कुल 86 पौण्ड का। कोई सेना साथ में न थी। कोई शस्त्र भी नहीं उठाया था उन ने। “राम-नाम’ का बल था गाँधी के पास। पर उस नाम के स्मरण और चिन्तन में ऐसी प्रगाढ़ निष्ठ भरी थी कि गाँधी के नाम से लहर आती थी और उत्तर दक्षिण में एक विकट तूफान सा उठ पड़ता था। वह शक्ति गाँधी की नहीं थी, जनता की भी नहीं थी। संपूर्ण क्रान्ति की बीज वह “राम-नाम” था जो हर वक्त गाँधी की जबान पर रहता था, उसके हृदय में गूँजता रहता था।
आदि काल से लेकर अब तक जितने भी संत महापुरुष हुए हैं और जिन्होंने भी आत्म-कल्याण का लोक-कल्याण की दिशा में कदम उठाया है उन्होंने परमात्मा का आश्रय मुख्य रूप से लिया है। मनुष्य के पास शक्ति भी कितनी है। बहुत थोड़ा शरीर बल उस पर विषयों के प्रलोभन, बहुत थोड़ा साधन बल उस पर भी साँसारिक गतिरोध, अपनी ही सामर्थ्य पर वह न तो आत्म कल्याण कर सकता है न संसार की ही भलाई कर सकता है। पर जब भी उसने ईश्वर की जयकार की उसे अपना सहयोगी चुना और सहायता के लिये पुकार की वह दौड़ा और उसकी शक्ति बन कर दिशा प्रदर्शित करने लगा। परमात्मा की कृपा पाकर मनुष्य अपना शंख बजाता हुआ चला जाता है मोक्ष उसके पीछे चलता है। ज्ञान की मशाल लेकर आगे बढ़ता है लोक-कल्याण पीछे-पीछे भागता हुआ चला जाता है। इसमें श्रेय मनुष्य को नहीं परमात्मा को है। वही शक्ति बनकर पुरुष में अवतीर्ण होता है। जो भी उसे निष्ठापूर्वक बुलाता है उसकी मदद के लिये परमात्मा आता अवश्य है। आज तक ईश्वर विश्वास न किसी का निष्फल गया है और न आगे इसकी संभावना है।