पतन के मौसम में गये-गुजरे ही बढ़ते हैं और उन्हीं का विस्तार होते देखा जाता है, किन्तु उत्थान का समय आते ही उसके भी चिन्ह समय से पूर्व प्रकट होने लगते हैं। वह लक्षण है प्रतिभाओं का अभिवर्धन और उनकी भावनाओं में, गतिविधियों में, उत्कर्षवादी तत्वों का अभिवर्धन।
अन्य जीव जन्तुओं की भाँति मनुष्यों में भी अनगढ़ों की, गये गुजरों की संख्या बढ़ती रहती है। यह वह चिन्ह है, जिसके सहारे अगले दिनों अशुभ संभावनाओं का विस्तार होने जैसा अनुमान लगाया जा सकता है। अनीति का, अवाँछनीयता का जब भी विस्तार हुआ है, तब उससे पूर्व यह पाया गया है कि कि घटिया व्यक्तित्व ही बढ़ने और क्रियाशील होने लगे हैं। इसी की प्रतिक्रिया परिस्थितियों में विपन्नता बढ़ने के रूप में देखी जाती है, किन्तु जब मानवीय उत्कृष्टता की पक्षधर आशावादी व्यक्तियों की समर्थता और अभिवृद्धि होने लगे, तो समझना चाहिए कि वे संभावनाएँ निकट आ गईं, जो अनौचित्य को गिराती और प्रगति के उत्साह भरे आधार खड़े करती हैं।
पिछले दिनों भी सराहनीय क्रान्तियाँ हुई हैं, तब अनुकूलताएँ आकाश से नहीं बरसीं, वरन् मात्र इतना हुआ है कि औचित्य की पक्षधर प्रतिभाएँ बढ़ीं, सुविस्तृत हुई और कार्यरत दृष्टिगोचर हुई हैं। मनुष्य की सामर्थ्य असीम है। जब वह प्रकट होती है, तो प्रतिभा कही जाती है। यदि वह उच्च स्तर की हो, तो समझना चाहिए कि उनका समुदाय छोटा अथवा स्वल्प साधन वाला होते हुए भी अपने मनोबल के आधार पर महत्वपूर्ण अनुकूलताएँ उपार्जित कर लेता है। साथियों की भी कमी नहीं रहती, अनुयायियों का अभाव भी नहीं देखा जाता, सबसे बड़ी बात यह है कि उनके अन्तराल में ऐसे तूफान उठते हैं, जो उच्चस्तरीय वातावरण बनाये बिना रह सकते ही नहीं। व्यक्तिगत वरिष्ठता के चरितार्थ होने पर ऐसा भी होते देखा गया है कि उस उत्साह में असंख्यों भाव तरंगित होने लगते हैं। यह समुदाय ही उन महाक्रान्तियों की भूमिका बनाता है, जिसे ऐतिहासिक माना और सराहनीय कहा जाता है। कुछ के अन्तराल में उठी आदर्श की उमंगे अन्यान्यों को भी अपने रंग में रंग लेती हैं और देखते-देखते उस दिशा निर्धारण पर चल पड़ने वाले असंख्यों मनस्वी ऐसे कार्य कर गुजरते हैं, जिनके अनुकरण करने वाले आश्चर्यजनक संख्या में दीख पड़ते हैं। अनुकूलता भी अपने अनुरूप अनेकों साधकों को एकत्रित कर लेते हैं।
जिन परिस्थितियों में कोई बड़ा काम बन पड़ने की संभावना नहीं होती, उनमें अनौचित्य को घटाने या मिटाने की संभावना इसलिए नहीं दीखती कि प्रतिकूलताओं का पलड़ा बहुत भारी दीखता है और टकराने पर जीतने के लक्षण कम ही दीख पड़ते हैं, हार की संभावना को देखते हुए उत्साह भी ठंडा पड़ जाता है। किन्तु होता कुछ ऐसा विलक्षण एवं विपरीत है, जिसमें आशा और अपेक्षाओं का अनुकूल प्रवाह बहने लगता है और अप्रत्याशित सफलताओं के आधार न जाने कैसे और कहाँ से बन जाते हैं। क्रान्तियाँ प्रायः अप्रत्याशित ही हुई हैं, उनके लिए न जाने कहां से उत्साह उभरा उफना कि परिस्थितियाँ बन गईं, जिनकी साधारण बुद्धि से कोई आशा या संभावना नहीं दीख पड़ती थी। हलके प्रतीत होने वाले व्यक्ति भारी पड़ते हैं और इतने बड़े काम कर दिखाते है, जिनकी पूर्व कल्पना कदाचित ही किसी में रही हो। असाधारण शक्ति आदर्शों को अपनाने से उभरती है। प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदल देने वाले अवसर यों कभी-कभी सामान्य मनस्वियों को भी मिल जाते हैं, पर सर्वांगपूर्ण सर्वतोमुखी प्रतिभा उन्हीं में उभरती है, जिनमें आदर्शों के पराक्रम पर गुजरने के उल्लास की उमंगें अपने अन्तर में ज्वार−भाटों की तरह उठती-उमगती दीखती हों।
व्यवसाय -बुद्धि सदा हानि-लाभ का हिसाब लगाती है और वही करती है जिसमें अनुकूलता दृष्टिगोचर होती है। सफलता की संभावना के अवसर असंदिग्ध नजर आते हैं, किन्तु आदर्शवादी पराक्रमों में तो तत्कालिक घाटा ही दीख पड़ता है। व्यवसाय-बुद्धि ऐसे जोखिम भरे कदम उठाने से रोकती है। मात्र आदर्शों से प्रेरित साहस ही ऐसे समर्थन करता है, जिसमें आदर्शों की रक्षा में घाटा स्पष्ट दीखता है, किन्तु अन्तःकरण वैसा कर गुजरने के बिना रुकता ही नहीं। बलिदानियों की परम्परा मात्र उन्हीं के गले उतरती है, जिनके अंतःकरण में दैवी प्रयोजनों के लिए अपना सब कुछ निछावर कर देने हेतु संकट उठाने के साथ-साथ उत्साह भरी उमंगे हिलोरे लेती हैं और घाटे में नफा तथा नफे में घाटा देखती हैं। यह दैवी प्रेरणा है। वह अपने साथ अकृत शक्ति लेकर कार्य क्षेत्र में उतरती है और न जाने कहाँ कहाँ से संबंधी-सहयोगियों की प्राणवान मंडली बुला कर साथ चलने के लिए विवश कर देती है। ऐसे प्रसंगों में देखा यह गया है कि संख्या में कम और क्षमता की दृष्टि से साधारण दीखने वाले लोग भी साहस की दृष्टि से अतिशय बलिष्ठ सिद्ध होते हैं। यों आरंभ में ऐसे लोगों के बारे में सामान्यतया यह धारणा नहीं बनती कि वे इतने बड़े शौर्य- बलिदान कर गुजरने के लिए उच्चस्तरीय साहस दिखा सकें।
शरीर-बल, साधन-बल, संगठन बल आदि कितने ही लोगों में होते हैं, पर वे उनका उपयोग भी साधारण या हेय स्तर के कार्यों में ही कर पाते हैं। त्याग-बलिदान में एक प्रकार घाटे की, जोखिम की स्थिति दीखती है, साथ ही असफलता भी मिल सकती है। इतने पर भी यदि आत्मबल उच्चस्तरीय साहस उभार दे, तो यही समझना चाहिए कि आत्मबल के रूप में देवी प्रेरणा कुछ अद्भुत कर गुजरने की प्रेरणा भर रही है। नवयुग के अवतरण पर व्यक्ति में ऐसी ही प्रेरणाओं का बाहुल्य उभरता है और असंभव को संभव बना देता है।
महान परिवर्तन इसी प्रक्रिया द्वारा संपन्न होते रहे हैं व आगे भी महाकाल साधारण मनुष्यों को ही माध्यम बनाकर उनमें नवीन चेतना फूँककर जीवन्त प्राणवान के रूप में उभार कर उनसे असंभव प्रतीत होने वाले कार्य सम्पन्न कर दिखाएगा। मानव में निहित यह संभावना ही युग परिवर्तन आधार है।