प्रायश्चित्त चिकित्सा का प्रचलन बढ़ रहा है।

January 1991

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मनुष्य की शारीरिक मानसिक आरोग्यता इस बात पर निर्भर करती है कि वह स्वास्थ्य स्रोतों का कितनी बुद्धिमत्ता के साथ पालन करता है। आरोग्यता अथवा रुग्णता इस बात पर भी निर्भर है कि व्यक्ति प्राकृतिक नियमों एवं साधनों का किस हद तक सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करता है। संतुलित एवं उपयुक्त भोजन, जल, वायु, धूप-सेवन, व्यायाम विश्राम, पर्याप्त नींद और भावनात्मक स्थितियाँ यहीं हैं पूर्ण स्वास्थ्य के मूलभूत आधार, जिनका समुचित परिपालन करते रहने पर आरोग्य को अक्षुण्ण रखा और दीर्घ जीवन का आनन्द उठाया जा सकता है।

कनाडा के मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानी डॉ. जे. जैक्सन का कहना है कि संसार की वर्तमान परिस्थितियों में प्रचलित चिकित्सा प्रणाली ने स्वास्थ्य सम्बन्धी नियम, उद्देश्य और परिभाषा को ही बदल दिया है। उपचारात्मक आयुर्विज्ञान पर अत्यधिक जोर देने के कारण एक ऐसी तकनीकी पद्धति का विकास हो गया है जिसमें व्यक्ति अपने अन्दर झाँक कर स्वयं के अंतर्मन में छिपे रुग्णता के कारणों का निष्कासन न कर स्वास्थ्य की देखभाल का काम चिकित्सक को सौंप कर अपनी जिम्मेदारी से छुट्टी पा लेता है। अब ऐसा मान लिया गया है कि आरोग्य भी अन्य वस्तुओं की भाँति सुपर बाजार से खरीदा जा सकता है। अस्वस्थ व्यक्ति अपना रोग और धनराशि डाक्टरों के पास ले जाता है ओर बदले में वह उसे मनभावनी गोलियाँ और महँगे टॉनिक दे देता है। लोगों की अब ऐसी आम धारणा बन गई है कि डॉक्टर के पास प्रत्येक रोग की चिकित्सा उपलब्ध है। इस अत्युत्साह ने उस विवेकशीलता पर भी पर्दा डाल दिया है जिसके द्वारा भी कभी मनुष्य रुग्णता को अपने ही संचित दुष्कर्मों, प्रकृति-नियमों के उल्लंघन आदि को मानता था।

आध्यात्म मनोवेत्ताओं ने शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधियों का कारण मानवी दुष्कर्मों, संचित कुसंस्कारों को माना है और कहा है मनः संस्थान जब मनोविकारों से पाप, ताप एवं कषाय-कल्मषों से विकृत हो जाता है तो उसका प्रभाव आरोग्य पर भी पड़ता है और मनःसन्तुलन पर भी। इसकी पुष्टि नवीनतम वैज्ञानिक शोधों ने भी कर दी है कि मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ढांचा भी लड़खड़ाने लगता है। अतः मन का परिशोधन-परिष्कार ही समग्र स्वास्थ्य एवं आत्मोन्नति का मूल है। अध्यात्म शास्त्र में इस उपचार प्रक्रिया को प्रायश्चित के नाम से जाना जाता है जिसमें अपनी गतिविधियों का परिमार्जन किया और गुण, कर्म स्वभाव को सुधारा जाता है, साथ ही मन में जमा कूड़े करकट के ढेर को साफ किया जाता है। पूर्व में बन पड़े अनीति-अन्याय की भरपाई की जाती है और जीवन के श्रेष्ठतम् सदुपयोग की रीति-नीति अपनाई जाती है।

आधुनिक मनःचिकित्सकों के भी कदम अब इस दिशा में बढ़े हैं और उन ने “डाइनैटिक्स” नामक एक अभिनव चिकित्सा प्रणाली का विकास किया है जिसे ‘साइंटोलाजी’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके अन्वेषक एल-रौन हुनई के अनुसार मनुष्य के अंतर्मन में छिपे कषाय-कल्मष एवं अपराध भाव ही जब-तब रुग्णता के रूप में फूटते रहते हैं जिनका उपचार न तो औषधियाँ कर सकती हैं और न जीन नियंत्रण की वर्तमान तकनीक ही। इनका निष्कासन प्रायश्चित प्रक्रिया से ही संभव है।

पापों के प्रकटीकरण और प्रायश्चित द्वारा शारीरिक-मानसिक रुग्णता से मुक्ति “क्रिश्चियन साइंस ऑफ हीलिंग ” का एक मुख्य अंग मानी जाती है। ऐसा प्रतिपादन डॉ. नारमन विसेण्ट पील तथा जे. सीट्रसट ने अपनी कृतियों में अनेक रोगियों का हवाला देकर किया है। वर्तमान प्रचलित समस्त चिकित्सा पद्धतियों में यदि इस विधा को स्थान दिया जा सके तो न केवल स्वास्थ्य संरक्षण का उद्देश्य पूरा होगा वरन् मनः परिष्कार व आत्मिक प्रगति के दुहरे लाभ भी हस्तगत होंगे।


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