संसार में प्रायः लोग अपने विभिन्न कामों के द्वारा सुख की तलाश करते रहते हैं। कोई एक तरह से इसकी ढूँढ़-खोज करते रहता है, कोई दूसरी तरह से। इसी के लिए अनेक तरह के साधनों को इकट्ठा करने की होड़ बढ़ती जा रही है। पर ऐसे लोग जिन्होंने ढेरों साधन सामग्रियों को बटोरा है उन्हें भी अशाँति शोक संताप से घिरा देखा जा सकता है। ये सभी सुविधाएँ मिलकर भी उन्हें इससे छुटकारा दिला सकने में समर्थ नहीं हैं। ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि वास्तविक सुख कहाँ है? इसे कैसे पाया जा सकता है।
विचार करने पर पता चलता है कि सभी साधन सामग्रियाँ आखिर हैं तो जड़ ही। इनमें अपनी कोई सामर्थ्य ही नहीं है। न तो कोई पदार्थ किसी को सुख दे सकता है और न दुःख। जिस प्रकार बन्दूक में अपनी कोई ताकत नहीं, वह यन्त्र भर है। चलाने वाला उससे किसी की रक्षा भी कर सकता है और मार भी सकता है। इसमें बन्दूक का क्या गुण-दोष? ठीक इसी तरह इन पदार्थों में न तो कोई सुखद तत्व है, और न दुखद जिससे वे किसी को अपनी इस विशेषता से खींच सकें अथवा दूर हटा सकें। यह मनुष्य की अपनी चेतना है, जो बहिर्मुखी प्रवृत्ति होने के कारण उससे सम्बन्ध स्थापित कर उसे सुखद या दुखद बना लेती है। इसकी उन्मुखता और भावों के अनुसार कोई पदार्थ किसी को सुखद किसी को दुखद लगता है।
भारतीय चिन्तकों ने इस चेतना को आत्मतत्व की संज्ञा दी है। पश्चिमी मनोवैज्ञानिक एरिक फ्राम ने अपनी पुस्तक ‘मैन फॉर हिमसेल्फ ” में इसे मनोविज्ञान तत्व कहा है। उनके अनुसार जिस समय मनुष्य की चेतना सुखोन्मुख होकर पदार्थ से सम्बन्ध स्थापित करती है, सुखद लगता है। जब यही दुःखोन्मुख होकर सम्बन्ध स्थापित करती है, वह दुखद लगता है। स्वयं में तो संसार की सभी चीजें जड़ हैं। वे अपनी ओर से किसी को सुख-दुख दे भी कैसे सकती हैं। ये तो अपनी चेतना गत भाव हैं, जो इनमें सम्बन्ध स्थापित कर उसे सुख देने वाला अथवा दुःख देने वाला बना देते हैं। पदार्थों से सुख या दुःख मिलने की धारणा पूरी तरह भ्रमात्मक है।
बुढ़ापा आ जाने पर मनुष्य को वही पदार्थ रसहीन लगने लगते हैं, जिनके पीछे वह अपनी जवानी में दौड़ा भागा करता था। सारा का सारा सुख पता नहीं कहाँ चला जाता है? असलियत यह है कि कमजोरी अथवा बुढ़ापे में बाहरी चीजों से सम्बन्ध स्थापित करने वाली इन्द्रियाँ दुर्बल या शिथिल हो जाती हैं। यह शिथिलता ही पदार्थों को नीरस और निस्सार बना देती है।
बुढ़ापे में ही नहीं, जवानी में भी सुख की अनुभूतियाँ समाप्त होती देखी जाती हैं। बुखार आने पर या स्वाद-इन्द्रिय जीभ में छाले पड़ जाने पर वही स्वादिष्ट भोजन जिनके लिए अभी तक लार टपकती थी, अब रसहीन और बेकार लगते हैं।
सही माने में रस की अनुभूति का कारण इन्द्रियों की स्थूल बनावट नहीं, बल्कि इनसे परे चेतना है। वही चेतना, जो समूची देह, प्राण और मन में समायी है। यही सर्व व्यापक चेतना आत्मा है। सुख का कारण एवं आनन्द का स्त्रोत यही है। यह न तो किसी पदार्थ में है न किसी अन्य वस्तु में। इसे तो आत्मा में ही जीवात्मा के द्वारा अनुभव किया जा सकता है। सुख का संसार इसी में बसा है। खोज का क्षेत्र भी वही होना चाहिए। साँसारिक विषय और वस्तुएँ साधन भर हैं। इनका उपयोग सिर्फ जीवन निर्वाह के लिए है। सुख के लिए इनके पीछे भागने -भटकने से वही परिणाम सामने आएँगे जो मरीचिका में भूले-भटके मृग के सामने आते हैं।
मनोवैज्ञानिक कार्ल युँग ने अपनी पुस्तक “मॉर्डन मैन इन सर्च आँव सोल” में सुख और दुख दोनों की अनुभूति को सापेक्ष बतलाया है। उसके इस कथन में भारतीय दर्शन की मान्यता को प्रयोगों की कसौटी पर खरा सिद्ध करने की झलक मिलती है। बात भी सही है। कोई मध्यम वर्ग का आदमी किसी मिल मालिक सेठ की तुलना में गरीब है, पर दरिद्र की तुलना में वह अमीर है। बुखार से पीड़ित व्यक्ति पूरी तरह से स्वस्थ पहलवान की तुलना में दुःखी है, पर कैन्सर रोग के रोगी की तुलना में सुखी। इसी तरह लगभग सभी दुःख और सुख सापेक्ष हैं। उसी स्थिति में एक आदमी अपने को दुखी महसूस करता है, दूसरा सुखी। फिर सही बात क्या है?
सही स्थिती न जानने के कारण ही मनुष्य तरह तरह के सन्ताप भोगता और दुःखी होता है। योगवशिष्ठ में इस पर चर्चा करते हुए इसका कारण बताया है। इससे छूटने का उपाय वास्तविकता को समझना तथा उसके अनुसार व्यवहार करना है। यही स्थाई सुख की स्थिति है। इसी को दर्शन की भाषा में ब्राह्मी स्थिति कहकर संबोधित किया गया है।
ऐसा स्थाई सुख सामान्य दृष्टि से विलक्षण चीज है, क्योंकि सामान्य जिन्दगी में लोगों को थोड़े समय के लिए सुख मिलता है। हँसते-बोलते, खाते-पीते, ताश-चौपड़ खेलते, नृत्य-गीत का लाभ लेते इस का अनुभव किया जाता है। ऐसा लगता है कि आमोद प्रमोद में प्रसन्नता छुपी है। इसी कारण इसके लगातार बने रहने के उपाय किये जाते हैं। समझा जाता है कि इनके बने रहने पर प्रसन्नता भी रहेगी, पर यह कैसे संभव हो सकता है? क्योंकि सुख पदार्थ परक है ही नहीं, वह तो आत्म परक है, अन्दर की अनुभूति का तत्व है, माध्यम भले ही पदार्थ बन जायें, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।
डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘आइडियलिसिटक व्यू आफ लाइफ” में इसे भली प्रकार समझाया है। उनके अनुसार स्थाई सुख के लिए हमें मन को प्रशिक्षित करना होगा। बाहरी परिस्थितियों के साथ यदि इसका ताल-मेल बिठाया जा सके तो सारी जिन्दगी सुखी रहा जा सकता है। मन के प्रशिक्षण के लिए यह सत्य जानना होगा कि सुख कहीं बाहर नहीं अपने में है। बाहरी चीजों का केवल इतना उपयोग है कि शरीर की सामान्य जरूरतें पूरी होती रहें। जिस तरह मोटर की सामान्य जरूरत पेट्रोल है, वह मंजिल तक पहुँचाने में सहायक तो है, पर स्वयं मंजिल नहीं। अगर पेट्रोल की जगह कोई इत्र का उपयोग करे तो लाभ की जगह हानि ही होगी।
इसी कारण आचार्य शंकर कहते हैं जिन्दगी की सामान्य जरूरतों को दवा की तरह लेना चाहिए। दवा को न कम लिया जा सकता है, न ज्यादा। इसे ठीक-ठीक मात्रा में लेना ही भलाई है, इसके लिए मन एकाएक तो तैयार नहीं होगा। क्योंकि अभी तक इसकी दौड़ -भाग बाहर सुख खोजने में रही है। इस उलटी गति को सीधा करना होगा। जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में यह प्रयासपूर्वक मन को अपनी सत्ता के केन्द्र “आत्मा” की ओर मोड़ना है। इसकी प्रक्रिया के बारे उनका कहना है कि जब-जब मन पदार्थों में सुख की खोज करे विवेकपूर्ण उसे धीरे-धीरे समेट कर वापस केन्द्र की ओर ले जाया जाय। उनके अनुसार यह काम छोटे बच्चे को सही चीज सिखाने की तरह है। छोटा बच्चा जब चमकीली आग को पकड़ने दौड़ता है, तो अभिभावक उसे रोक कर दूसरी ओर ले जाते हैं। मन बच्चा है और विवेक अभिभावक। इस प्रक्रिया से मन इस ढंग से ढल जाएगा कि आत्मा की निर्मलता और आनन्द को सही ढंग से व्यवहारिक जीवन में उतार सके।
यह प्रशिक्षण तुरन्त पूरा हो जाने वाला नहीं है। इसके लिए लगातार जुटे रहना होगा। जैसे-जैसे इसमें गति आएगी, मन हर प्रकार की परिस्थितियों से ताल-मेल बिठा सकेगा, क्योंकि बदली हुई स्थिति के अनुसार बाहरी चीजें भोग सुख की सुविधाएँ न होकर जिन्दगी की सामान्य जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी साधन हैं। जिन्हें कम से कम लेकर काम चलाया जा सकता है।
जिन्होंने इस ढंग से मन को प्रशिक्षित किया है उनके जीवन में इस तथ्य और सत्य को देखा जा सकता है। श्री अरविन्द ने अलीपुर जेल की काल कोठरी की कठोर यातनाओं में भी सुख का अनुभव किया। तुकाराम की गरीबी उनके सुख को कम नहीं कर सकी। इस तरह के अनेकों महामानवों के उदाहरण हैं, जिन्होंने व्यावहारिक जिन्दगी के प्रत्येक क्षण को सुख में बदला है। इस स्थिति को पाने के लिए हम सभी को यह व्यवहारिक प्रक्रिया अपनानी चाहिए। इसी स्थिति को गीताकार ने “यं लब्धता चापरं लाभ मन्यते नाधिकं तत्” अर्थात् जिसको पाकर कुछ पाना बाकी नहीं रहता, कहा है।