टन्-टन्-टन् शहर के घण्टाघर की बारह चोटों ने उसकी चिन्तन कड़ियों को जैसे एक बारगी बिखरा दिया। लम्बी उसांस भर कर उसने एक क्षीण दृष्टि निक्षेप सामने जल रही अँगीठी पर किया। अंगारों की धधकन को राख अपने आवरण में ढ़कने लगी थी। ऊष्मा-ऊर्जा पूरी तरह चुकती इसके पहले वह उठी। उठकर कुछ कोयले लाकर अँगीठी में डाले। हाथ से पंखा झलकर उन्हें नयी प्राण वायु दी। नयी हवा में साँस ले कोयले-अँगारे बन धधकने लगे और वह..., अपने चिन्तन की कड़ियों को बटोरने की कोशिश करते हुए बुदबुदाई-अभी तक नहीं आए-बारह से ऊपर तो हो गया।
एक छोटा कमरा और किचन-यही इनका क्वार्टर था। इसी में ये दो प्राणी रहते थे- पति और पत्नी। पति तो सुबह से निकल जाते रात्रि में कब लौटेंगे कुछ ठिकाना नहीं, लौटें भी या ना लौटें कौन कहे? और पत्नी दिन भर अकेली बैठी-कमरे की ईंटों की संख्या का अनुमान लगाती रहती। खाना बनाने के अतिरिक्त करने के इस काम के सिवा और था भी क्या? सामान के नाम पर थोड़े से बर्तन और बिछौने थे। इन सबके बीच बैठे-बैठे थक जाती तो पढ़ने लगती, पढ़ते-पढ़ते थकान लगती तो निद्रा की गोद। इससे उबरो तो पति की प्रतीक्षा इस समय वही तो कर रही थी।
यही तो है सामान्य भारतीय नारी का जीवन जिसकी वह प्रतिनिधि थी। ‘नारी’ इन दो अक्षर और दो मात्राओं की चार दीवारों ने जैसे एक बाड़ा बना रखा है जिसमें आधा मनुष्य समाज कैद है और कैदी का जीवन-जिसकी प्रतिभा-क्षमता, योग्यता-प्रगति के बीज की विवशता है कि वह घुने-सड़े और गले। क्योंकि विकास के लिए जो उन्मुक्त आकाश-सुकोमल मिट्टी चाहिए वह उसकी नियति में कहाँ? नियति न न नियति नहीं। नियति बनाने वाला कौन? परमात्मा! उसे यदि यही अपेक्षित होता तो नारी को ‘जीवन वीणा’ के रूप में क्यों गढ़ता? जिसके हर तार में मार्मिक भावनाएँ भरी हैं। जिसकी हर झंकृति-किसी के दिल में प्रेरणा का राग भरती है। तब यह नियति कदापि नहीं यह है विपत्ति-जिसका निवारण.... उह.. कहते हुए उसने बुझाने लगी अँगीठी की आग को फिर भड़काया।
...वह जाने कब आएँगे। एक बज गया है। कुछ हो आदमी को अपनी देह की फिक्र तो करनी चाहिए। उसे अपने पति पर आक्रोश नहीं प्रत्युत गौरव है उनके क्रान्तिकारी होने पर। क्राँतिकारी-अर्थात् भविष्य के समुज्ज्वल क्षितिज पर नए समाज की रचना हेतु संकल्पित शिल्पी। वह यही थे ठीक ऐसे ही। तभी तो दिन उनके लिए दिन नहीं था रात्रि-रात्रि नहीं। अहो रात्रि उन्हें अपने संकल्प की दुरूह राह पर बिना रुके बिना थके चलना था और वे चल रहे थे। उसे इसमें आपत्ति कहाँ थी उलटे खुशी थी। अन्यथा राजाओं जैसे ऐश्वर्य को छोड़ साधुओं से जीवन को वह क्यों अंगीकार करती। पर ये शिल्पकार अपने कार्य में नारियों को बाधा क्यों समझते हैं? यदि नहीं तो कुमार सिद्धार्थ पत्नी को क्यों सोता छोड़ गए? क्या वह उन्हें महात्मा बुद्ध बनने से रोक लेती?
सोचते-सोचते उसने तवा अँगीठी पर रख दिया। अब वह रोटी बना ही देगी। आटे की थाली को सामने की ओर खींचा और रोटी बेलने लगी। थोड़ी देर बाद उसने जीने पर पैरों की आहट सुनी। उसके मुख पर हल्की सी स्मित की झलक आई। क्षण भर वह आभा उसके चेहरे पर रहकर चली गई और वह फिर उसी तरह काम में लग गई।
पति आए। उनके पीछे-पीछे तीन और उनके मित्र भी थे। ये आपस में बातें करते चले आ रहे थे और खूब गर्म थे। वे अपने मित्रों के साथ सीधे कमरे में चले गए। उनमें बहस छिड़ी थी। कमरे में पहुँच कर रुकी बहस फिर शुरू हो गई। भगवान जाने क्या होगा इस देश का अस्थिर नेतृत्व-स्वार्थों की बंदर-बाँट-लोक सेवी का बाना पहने लोक शोषक। अविश्वसनीयता से उपजा अलगाव-असुरक्षा से आतंक की पैदावार। यह भी कोई मनुष्य का जीवन है, कीट पतंगों-कुत्ते बिल्लियों से भी बदतर। कौन कब मसल दे, जब तक नहीं मसल रहा तब तक पेट प्रजनन के कीचड़ में डूबे रहो। मित्र के कथन को सुनकर वह बोल उठे-मनुष्य ने अपने हाथों अपनी दुर्गति की है, निर्माण के लिए भी उसे अपने फौलादी भुजदण्ड उठाने होंगे। भगवती बाबू ठीक कहते हैं जुल्म को मिटाने के लिए अपनी खुशियों को तो होमना ही होगा। इससे वे डरें जो बुज़दिल हैं। मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वालों को डर क्या? तीसरे ने समर्थन किया।
ये सभी इसी तरह बातों में लगे थे। इतने में वह आयी और इन सबके बीच में चार थालियों में खाना लगा दिया निकट ही पानी के गिलास रख दिए। उसे देखते ही सबके चेहरे की थकान मिट गई। भाभी आपने खाना देकर तो हम लोगों को नए प्राण दे दिए। एक ने कह ही दिया। जवाब में वह हलके से हँस दी। भोजन के बीच-बीच में इसी तरह हँसी मजाक और विचारपूर्ण चर्चा होती रही। भोजन की समाप्ति के बाद मित्र मण्डल चला गया।
अब वे दोनों ही थे-
“क्यों जी! आपकी क्रान्ति में मैं भाग नहीं ले सकती?” उसने-आज अपने मन की बात कह दी। लगातार के इस बन्दी जीवन की अकर्मण्यता से वह ऊब गई थी। निठल्लापन किसे कुँठित और बोझिल नहीं करता?
“तुम।”? भगवती बाबू शायद इस प्रस्ताव के लिए तैयार नहीं थे। उनकी आश्चर्यपूर्ण मुद्रा में इसी भाव की झिलमिलाहट थी।
“मैं क्यों नहीं?”
प्रतिप्रश्न के उत्तर में उन्होंने समझाने के भाव में कहा, “इस काम में कहाँ कहाँ नहीं भटकना पड़ता न कोई मान-सम्मान। उलटे अपमान भले हो जाए। कुछ निश्चित नहीं...” वे कहते जा रहे थे और सुनते हुए वह सोच रही थी। लाखों कोशिशें अनेकानेक संत-महात्माओं-महापुरुषों के प्रयत्न इस समाज का कायाकल्प नहीं कर सके, पुनर्रचना नहीं हो सकी, इसका सिर्फ यही कारण रहा कि जड़ की उपेक्षा कर वे पत्तों पर पानी छिड़कते रहे, और जिसकी जड़ में दीमक लगी है उस वृक्ष की सिंचाई “सोचकर वह हँस पड़ी। हँस क्यों रही हो? बातों के बीच में इस तरह हँसना, शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा।
“दीमक लगी जड़ वाले वृक्ष के पत्तों की सिंचाई की बात सोचकर हँस रही थी।”
दीमक, जड़, वृक्ष, सिंचाई करने वाला पहेलियाँ न बुझाओ साफ-साफ कहो।
“आप सुनें भी तो!”
“कुछ कहो भी या पहेलियाँ सुनता रहूँ।”
“समाज की जड़ नारी है नारी के बिना क्या समाज की उत्पत्ति और प्रसार की कल्पना सम्भव है? और आज वही जड़ कुरीतियों-मूढ़ताओं की दीमक से जर्जर प्रायः है। ऐसे में जड़ विहीन वृक्ष रूपी समाज के विकास के लिए किए जाने वाले प्रयत्न क्या समग्र होंगे?” सुनते-सुनते उन्हें कथन की गूढ़ता और अपने भ्रम का भान होने लगा। अब वह किंचित गम्भीर हो सुनने लगे “नारी की जाग्रति-नारी के बिना सम्भव नहीं। पुरुष उसका बाड़ा गिरा सकता है। अर्गलाओं को तोड़ सकता है, क्योंकि ये उसी की बनाई हैं पर मानसिक भ्रान्तियाँ परिस्थितियों की विवशता के कारण उसके अपने मन की उपज हैं जिसके निवारण के लिए नारी कर्तृत्व अपेक्षित है। इस अपेक्षा को पूरा किए बिना न देशोद्धार सम्भव है और न समाज की नवीन रचना।
अब कहने के लिए बचा ही क्या था। सारी बातें साफ हो गयीं। भगवती बाबू की नींद काफूर हो गयी थी। वह सोचने के लिए विवश थे। “तुम्हारी बात सौ फीसदी सच है”। वे बोल पड़े “नारी को अपनी और समाज की नयी नियति बनाने के लिए खुद जूझना पड़ेगा,” “और पुरुष को?” इसके पहले वाक्य पूरा करें कि वह बोल उठे “उसमें सहयोगी।” दोनों की आंखें एक दूसरे से मिलीं, संकल्प की एक दीप्ति उभर कर अधरों से फिसल गई। अपने क्रान्तिवीर पति भगवती चरण व्होरा की सहधर्मिता निभाने वाली इस नारी रत्न को राष्ट्र ने दुर्गा के रूप में देखा जाना। भगतसिंह, सुखदेव, चन्द्रशेखर जैसे क्रान्तिधर्मी इन दुर्गा भाभी की प्रेरणा स्नेह सहयोग से ही धधकते अंगारे बने। समाज को आज भी नारियों से उसी क्रान्तिकारी भूमिका की अपेक्षा है।