सान्निध्य की परिणति (Kavita)

January 1991

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जिसकी तरफ निहारा तुमने, वह जीवित मधुमास बन गया।

जिस पर कर दी कृपा दृष्टि वह, पूरब का आकाश बन गया ॥

*

तुम थे स्वयं सिंधु करुणा के, सब जलधाराओं के आश्रय।

पास तुम्हारे आ जाये बस, मानव हो जाता था निर्भय ॥

तुम्हें समर्पित हर जीवन, लहरों का चिर उल्लास बन गया ॥

*

जिसको समझा पात्र उसे ही, लोकहितों की दीक्षा दी है।

जिसे बनाया कंचन-उसे सौख्य कम,अधिक तितिक्षा दी है ॥

जिसने ऐसा ताप पी लिया, वही तुम्हारा “खास” बन गया॥

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सीख लिया जिसने साँसों का विलय, लोक सेवा में करना।

सबको देना गंध- स्वयं रहकर, काँटों के बीच - निखरना ॥

ऐसा हरेक प्राण तुमसे मिल, दिव्य मलय वातास बन गया ॥

*

और चलाया जिसको अपने साथ, उँगलियाँ पकड़ कर।

जिसके प्राणों में भर दिये, साधना युक्त तपे स्वर ॥

उसका क्रियाकला तुम्हारे, सँग शाश्वत इतिहास बन गया ॥

-माया वर्मा


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