व्रतशीलता का दायित्वपूर्ण निर्वाह

January 1991

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अपना निज का तेजोवलय यदि बढ़ता है और उच्चस्तरीय बनता है, तो उसे प्राण क्षेत्र की दिव्य विभूति माना जा सकता है। उससे अपनी निजी न्यूनताओं को पूरा करना एवं त्रुटियों का परिशोधन -परिमार्जन कर सकना संभव हो सकता है। इसी को आत्मोत्कर्ष का प्रथम सोपान कहा जा सकता है। दूसरों की वास्तविक, गंभीर एवं चिरस्थायी सेवा-सहायता कर सकना भी इसी आधार पर संभव है।

योगी यती कष्टसाध्य तपश्चर्याएं करते हैं, पर सर्व साधारण को लक्ष्य रखकर लिखते समय उतना ही उल्लेख किया जाता है, जो जनसाधारण से बिना कठिनाई के बन सके। इसीलिए तप जैसे भारी भरकम शब्द के स्थान पर यहाँ ‘व्रत’ शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। सरल शब्दों में इसे ‘संयम ’ भी कहा जा सकता है।

व्रतों में जिव्हा और ज्ञानेन्द्रियों को मर्यादा में रखना, वर्जनाओं में न भटकने देना, प्रमुख हैं। आत्म-साधना के मार्ग पर चलने वालों को चटोरेपन पर नियंत्रण करना चाहिए। नित्य के भोजन में सात्विक पदार्थों की सीमित मात्रा लेते रहने का क्रम चलाना चाहिये। अधिक दृढ़ता न अपनाई जा सके, तो सप्ताह में एक दिन अस्वाद-व्रत का तो पालन करना ही चाहिए। इसके लिए रविवार या गुरुवार के दिन उत्तम हैं। इस अनुपालन से दिव्य स्तर की अनुकूलताएँ निभती हैं।

उपवास को व्रत का पर्यायवाची माना जाता है। उसकी सर्वथा उपेक्षा करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता। साप्ताहिक उपवास यदि दूध-छाछ के आधार पर चल सके, शाकाहार-फलाहार लिया जा सके तो उत्तम हैं। इनका रस लेकर भी प्रवाही आहार की मर्यादा निभ सकती है। इतना न बन पड़े तो न्यूनतम इतना तो करना ही चाहिए कि अमृताशन के सहारे साप्ताहिक उपवास पूरा किया जाय। उबले हुए धान्य को अमृताशन कहते हैं। दाल, चावल, दलिया, इसी वर्ग में आते हैं। परहेज तो पकवान-मिष्ठानों से करना चाहिए। तले, भुने, मसालेदार, शक्कर से लबालब पदार्थों को उपवास में छोड़ ही देना चाहिए। यह मनोबल की साधना है कि सप्ताह में एक दिन का उपवास किसी न किसी रूप में करते ही रहा जाय। जो तीसों दिन पेट को बंदूक की नली की तरह भरे रहते हैं, उनके लिए व्रतशीलता के आधार पर मनोबल को बढ़ा सकना कठिन है, आत्मिक प्रगति का अवरोध तो बना ही रहेगा।

दूसरा व्रत है- ब्रह्मचर्य में शारीरिक कम और मानसिक अधिक प्रतिबन्ध है। कामुक -अश्लील चिन्तन में जितना समय मन भटकता है, समझना चाहिए कि मानसिक स्तर के ब्रह्मचर्य का उतना ही अधिक क्षरण हो रहा है। नर को नारी के प्रति और नारी को नर के प्रति मित्र-सहयोगी की समतापरक भावनाएँ रखनी चाहिए। इसमें माता-पुत्र का, भाई-बहिन का, पिता-पुत्री का मानसिक सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है। नारी में पवित्रता के तत्व अधिक हैं। इसलिए उन्हें देवी के रूप में भी देखा जा सकता है। उसी स्तर की श्रद्धा को अपनाये रहा जा सकता है, पत्नी के साथ भी।

शारीरिक ब्रह्मचर्य उपयोगी तो है, पर उतने ऊँचे स्तर का नहीं, जितना कि मानसिक श्रद्धा का अवलम्बन। शारीरिक समागम में जो युग्म जितना अधिक अनुशासन, पारस्परिक सहमति से पालन कर सकें, करें पर साप्ताहिक उपवास के दिन तो उसे मर्यादा के रूप में ही निश्चित रूप से पालन करना चाहिए।

मौन, एकान्त-सेवन, चिन्तन, मनन यह चार मानसिक संयम हैं। इनके लिए साप्ताहिक उपवास के दिन न्यूनतम दो घण्टे नियत रखने की व्यवस्था करनी चाहिए। कौन सा समय किसे सुविधा-जनक पड़ता है, यह देखना व्यक्ति विशेष का काम है। प्रातःकाल सुविधा न रहती हों, तो कोई अन्य समय चुना जा सकता है। एकान्त स्थान घर में भी हो सकता है और बाहर खेत, पार्क उद्यान आदि में भी हो सकता है। साँसारिक क्रिया-कलापों वाले विचारों को न उठने दिया जाय, वरन् उन्हें आत्म-निरीक्षण, आत्म-विकास की साँगोपाँग योजना बनाने में ही निरत रखा जाय। मन को प्रारंभिक स्थिति में पूर्णतया रोका जा सकता है, संसार में अपने फैलाव को समेट कर अन्तर्मुखी किया जा सकता है। आत्मबोध और आत्म परिष्कार की परिधि में विचारणा को केन्द्रीभूत किया जा सकता है। उपरोक्त चारों प्रयोजन एक साथ सध जाते हैं, चारों आपस में गुंथे हुए हैं।

व्रतशीलता का महत्व समझा जाय। संकल्प शक्ति बढ़ाने के लिये आत्मानुशासन के निर्वाह को अति महत्वपूर्ण चरण माना जाय। साप्ताहिक व्रत साधना से उपरोक्त चरण निभते रहें तो समझना चाहिए कि चित्त वृत्ति निरोध की योग साधना और व्रत संयम की तप। साधना का छोटा, किन्तु महत्वपूर्ण प्रयास चल पड़ा।

उपरोक्त साप्ताहिक व्रत शरीर और मन की परिधि के अंतर्गत आते हैं, पर इसी से जुड़ा हुआ दिनचर्या-नियमन का आधार भी है।

तप-संयम व्रत का दैनिक जीवन में समावेश करने के लिए इन्द्रिय निग्रह के अतिरिक्त समय संयम, अर्थ समय और विचार संयम को भी अपनाना पड़ता है। समय ही जीवन है। उसका एक-एक घटक मिलकर ही जीवन रूपी महाकाल बनता है। दिनचर्या इस प्रकार बनानी चाहिए कि समय का एक क्षण भी निरर्थक न जाने पाये। प्रत्येक क्षण सार्थक, सज्जनोचित कार्यों में लगे। आलस्य और प्रसाद यही दो मनुष्य के निरन्तर साथ लगे रहने वाले शत्रु हैं। व्यस्तता ही जीवन की सार्थकता है। ओछे और घटिया कामों से समय बचाकर यदि उसे दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाले क्रिया-कलापों में लगाया जाय, तो उसका ऐसा प्रतिफल उपलब्ध हो सकता है, जिससे अपने को सन्तोष एवं दूसरों का सहयोग मिले।

अर्थ संयम का तात्पर्य है- औसत नागरिक स्तर के निर्वाह से गुजर चलाना। एक पैसा भी विलासिता में, अहंकारी ठाठ-बाठ में, प्रदर्शन और दर्प अहंकार के निमित्त खर्च न करना, लोभवश अधिक संग्रह की ललक से पिण्ड छुड़ा कर जो बचत हो सके, उसे परमार्थ में लगाना।

अनीतिपूर्वक कमाया हुआ, अनावश्यक रूप से संचित किया हुआ, दुर्व्यसनों में उड़ाया हुआ धन अन्ततः अनेकानेक संकट एवं दुष्परिणाम उत्पन्न करता है, पतन के गर्त में गिरा कर छोड़ता है।

विचार संयम का तात्पर्य है- मस्तिष्क में अनावश्यक कल्पनाएँ न घुमड़ने देना। ललक-लिप्साओं की रंगीली उड़ानों में चिन्तन को न भटकने देना। ऐषणाओं, महत्वकाँक्षाओं में मन को न उलझने देना। विचार शक्ति को रचनात्मक योजनाओं में नियोजित किये रहना। विचार ही वे बीज हैं, जो उगने पर अपने स्तर के अनुरूप ही भविष्य का निर्माण करते हैं। महामानवों ने अपने विचारों को दिशा दी है और आदर्शों से प्रेरणा ली है। हमें भी वहीं करना चाहिए।


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