भाव विस्तार ही मानव-धर्म

January 1991

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“एक तरुण आपसे भेंट करने का इच्छुक है” सहकारी के ये शब्द उनके भावों के महल में घुसने के लिए प्रवेश द्वार की तलाश करने लगे। वह पियानो के संगीत यान में बैठे स्वर-लहरियों के आकाश में विचरण कर रहे थे। नित्य-नियम के अनुसार आज भी सूर्य-रश्मियों के धरा-अवलोकन के एक घण्टे पूर्व से यह यात्रा शुरू हो गई थी। अपने घर में हो या या बाहर स्वदेश में हों या विदेश में बचपन से प्रौढ़ावस्था में प्रवेश तक उनका यह नियम भंग नहीं हुआ। व्यवस्थित जीवन में अनुशासन का बज्रलेप ही तो व्यक्तित्व की कीर्ति मण्डित करता है। उनके साथ यही घटित हुआ था। सामान्य जीवन से लेकर विश्वविख्यात संगीतकार बनने की यात्रा यही शुल्क चुका कर पूरी की।

सहायक जो उनका शिष्य भी था उनके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा में था। तन्मयता के इन उत्कर्षमय क्षणों में उसे हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह बार-बार व्यवधान पैदा करे। संगीत के स्वरों में चढ़ाव-उतार मन्दता और...। कुशल यान चालक की तरह भावाकाश से सक्रियता की सचेतन भूमि में उतरे। पियानो एक ओर रखा। दो-तीन बार पलकें झपकाई हलकी सी अँगड़ाई लेकर अपनी अधपकी डाढ़ी में हाथ फेरा और एक गिलास पानी माँगा। खाली पानी का गिलास रखने तक वह पूर्णतया प्रकृतिस्थ हो गए। सामने खड़े व्यक्ति ने अपना निवेदन पुनः दुहराया। सुनने के क्षण उनके माथे पर क्षीण रेखाएँ उभरीं जैसे वह स्मृतियों और घटनाओं को बटोरने की कोशिश में हों। कुछ सोचते हुए उन्होंने कहा “उसे यहीं भेज दो।” शब्दों के साथ सहयोगी के पाँव दरवाजे की ओर मुड़ चले।

लगभग पन्द्रह दिन पूर्व वह पोलैण्ड से अमेरिका आये थे। सदा की भाँति इस बार भी उनकी विदेश यात्रा का उद्देश्य था, संगीत आयोजनों में भाग लेना। विश्व के अनेक देशों में उनके स्वर तरंगित हो चुके थे। आयोजनों में उमड़ती भीड़ के कारण हर किसी की लालसा यही रहती थी कि आयोजक का ओहदा उसी को सँभालने का सौभाग्य मिलें। इस बार उन्होंने यह सम्मान साधारण लुहार के लड़के को दिया था। आयोजन की सार सँभाल, टिकटों की बिक्री आदि का दायित्व उसे देने के पीछे भाव यही था कि इस गरीब बालक की कुछ आर्थिक सहायता हो जाएगी। किन्तु प्रतिद्वन्द्वियों की कुटिल चालें, मौसम की गड़बड़ी जैसे अनेक कारणों ने इस सोच पर संघबद्ध हमला कर दिया। टिकटें कम बिकीं, श्रोता कम आए ऐसे में बेचारा आयोजनकर्ता तरुण करे तो क्या करे?

कमरे की किवाड़ खुलने की आहट के साथ साधारण सी पैण्ट कमीज पहने अठारह-बीस साल के नवयुवक ने प्रवेश किया। साधारण कपड़ों में लिपटा शरीर उसकी मनोदशा बयान कर रहा था। माथे पर लहरा आए उलझे रूखे बाल, सूखे होंठ, सूज गई आँखों से स्पष्ट हो रहा था उसे कई दिनों से नींद नहीं आई। हवाइयाँ उड़ रहे उसके चेहरे पर एक नजर डालते ही उन ने सारा मजमून पढ़ लिया।

“आओ बैठो।” स्वरों में केवल कंठ माधुर्य ही नहीं पितृ सुलभ सहज स्नेह भी था।

जी। हिचकिचाहट भरे इस एक शब्द के उच्चारण के साथ वह सिमटा-सिकुड़ा खड़ा रहा।

बैठो! अब उन्होंने स्वयं हाथ पकड़ कर अपने बिस्तर पर बिठा लिया।

जिस किसी तरह बैठ तो गया। पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि किन शब्दों के साथ उनको ये थोड़ी सी पूँजी थमाएँ। अन्य आयोजनों में उन्हें आठ-दस हजार डालर मिल जाना सामान्य बात थी। लेकिन इस बार...पर वह भी क्या करे? क्या नहीं किया? कहाँ नहीं गया? टिकटों की बिक्री के लिए कितना श्रम नहीं किया... पर..।

सामने बैठे ख्यातिनामा संगीतकार की अनुभवी आँखें उसके इस भावोद्वेलन को पढ़ रही थीं। वस्तुतः स्थूल शरीर तो एक लिफाफा भर है। इसके भीतर एक भाव शरीर है, जिसमें भाव लहरियाँ प्रति क्षण उद्वेलित होती रहती हैं। ये ही भाव स्थूल रूप लेते हैं। तरुण के भाव-मन्थन से उमग रही लहरों को गिनते हुए उन ने दो कप काफी मँगाई। एक कप उसके हाथ में आग्रहपूर्वक थमा कर दूसरी अपने होठों से लगा ली।

कुछ पल इन्हीं चुस्कियों में गुजर गए। काफी पीने के बाद लड़के की बेचैनी में कुछ कमी के लक्षण दिखाई दिए। इसे काफी का असर कहें या स्नेह का संजीवनी स्पर्श! कुछ सोचते हुए उसने जेब टटोली। हाथ में नोटों की गड्डी उलटते पलटते हुए उन्हें थमाई। शान्त भाव से उन ने नोट पकड़े गिना और एक ओर रख दिए। ये तीनों कार्य बड़े निस्पृह भाव से निःशब्द माहौल में हुए।

नोट रखकर उन ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा-हॉल का किराया बिजली का बिल चुक गया। “नहीं” इस एक शब्द के पात्र में उसकी समूची वेदना इकट्ठी हो गई। थोड़ा रुक कर युवक बोला “टिकटों की बिक्री से सिर्फ आठ सौ सैंतीस डालर मिले थे सो आपके सामने हैं। आप इन्हें ले लें। हॉल का किराया मैं धीरे-धीरे चुकाता रहूँगा। हताशा की एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए उसने कहा।

“कैसे चुकाओगे?” लड़के की आर्थिक स्थिति से वह अनभिज्ञ नहीं थे। साधारण लुहार की आय ही कितनी! जैसे-तैसे तो उसने इस आयोजन की हिम्मत जुटाई। सोचा था कुछ बचेगा तो नया धन्धा करूंगा पर।

“निराश मत हो॥” उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए वह बोले “निराशा जीवन की शत्रु है। भावों का कुचला जाना व्यक्तित्व को कुचल देता है। तुम नहीं जानते भाव और किया किस प्रकार एक दूसरे से जुड़े हैं।” भावों का पारखी बोल रहा था। पर करूं क्या? न चाहते हुए भी माथे पर चिन्ता की लकीरें घहरा आई।

उन ने कोने में रखे नोटों के बण्डल में कुछ बड़े नोट और मिलाए और ये सभी नोट उसकी जेब में रखते हुए कहा “इनमें से हॉल का किराया बिजली का बिल चुकाने के बाद भी इतना कुछ बच रहेगा कि तुम कोई नया धन्धा शुरू कर सको।”

उनके द्वारा दी गयी राशि को हाथ में पाते ही तरुण अचकचा गया। उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गई। यह अकल्पनीय उदारता.. वह भी इस सहज ढंग से। उसे सूझ नहीं रहा था क्या कहे? कहाँ तो सोचा था आयोजन में हुए व्यय को चुकाने के लिए न जाने कितने दिन खटना पड़ेगा। तकादे... अपमान... तिरस्कार के एक पर एक दृश्य उसके मन में मचल रहे थे और कहाँ अब? इस उदारता के बाद... परिवर्तित जीवन की कल्पना में वह स्वयं को खोने लगा।

“आपका यह... अहसान...मैं.. जीवन. में कभी. कभी.. भुला... नहीं”। भावावेग के कारण शब्द गले में अटक रहे थे। उन ने उसे टोकते हुए कहा “यह अहसान नहीं, जीवन्त मनुष्य का फर्ज है।” “जीवन्त मनुष्य का” कुछ न समझते हुए उसने उनकी ओर देखा।

“हाँ” वह कह रहे थे “ मुर्दे का सहज धर्म है निष्क्रियता निष्ठुरता। मुर्दा यदि सक्रिय भी हो तो सड़न और बीमारी फैलाएगा। पर जीवन्त व्यक्ति तो वही है, जो मानव मात्र की वेदना के प्रति संवेदनशील हो। यदि तुम इसे चुकाना चाहते हो तो स्वयं संवेदनशील बनना? जीवन चेतना का औरों में प्रसार करना। संवेदनाओं का वितरण कर सके, जिसे तुम उदारता कहते हो उस परम्परा को निभा सके तो समझना न केवल तुमने मेरा अहसान चुका दिया बल्कि मुझे अहसानमन्द बना दिया।” मार्मिक ढंग से कहे गए संगीतकार के ये वाक्य उसकी किन्हीं अदृश्य गहराइयों में उतर गए।

इस घटना के बाद कालप्रवाह ने अनेकों दृश्य बदले। परिस्थितियों के ज्वार-भाटों ने उसकी और उस जैसी न जाने कितनी जिन्दगियों में उलट-फेर की। लड़का-युवक बना उसने खानों के उद्योग में करोड़ों रुपए कमाए। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर यूरोप की शोचनीय दशा में सुधार लाने के लिए अमेरिका ने दस करोड़ डालर का ऋण स्वीकृत किया उसके वितरण का जिम्मा उसे ही मिला। ऋण वितरण करते समय उसने 1874 की इस पुरानी याद को सँजोते हुए कहा “मैं यह अमेरिका का दिया धन नहीं, पोलैण्ड के संगीतकार पेडेरेवस्की की दी गई संवेदनाएँ बाँट रहा हूँ।” संवेदनाओं के इस वितरक को अमेरिका निवासियों ने राष्ट्रपति के सर्वोच्च आसन पर बिठाया। विश्व ने इसे ‘हर्बर्ट हूवर’ के नाम से जाना। उनके राष्ट्रपति के कार्यकाल में 1930 की भयानक मन्दी आई। इसी मन्दी से ग्रसित यूरोपीय राष्ट्रों ने ऋण चुकाने में असमर्थता व्यक्त की। तो हूवर ने उदारता पूर्ण व्यवहार करते हुए कहा मेरा कार्य मनुष्य धर्म का निर्वाह है, जीवन का प्रसार है। हूवर की भाँति यदि मानव आज की विषाद पीड़ित मानवता पर स्वयं की संवेदनाओं का अमृत छिड़क सके मनुष्य धर्म का निवाह कर जीवन का प्रसार कर सके, तो आने वाला कल उसे भी लोक नायक बनाए बिना न रहेगा।


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