क्रान्ति का अर्थ है “नवीन संरचना”, “आमूलचूल परिवर्तन।” यह परिवर्तन चाहे सामाजिक हो, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक, साँस्कृतिक अथवा धार्मिक कुछ भी हो, सभी के मूल विचार में विचार-क्रान्ति ही सन्निहित होती है। जब मनुष्य को एक सामाजिक संरचना अथवा व्यवस्था पुरानी या असंतोषजनक लगने लगती है, उसी समय से उसके मन में उथल-पुथल मचने लगती है। तब एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव की जाने लगती है, जो तत्कालीन समय और समाज के अनुरूप हो और उसकी शान्तिमय प्रगति में सहायक भी। प्रारंभ में ऐसी हर एक क्रान्ति का रूप वैचारिक ही होता है। बाद में यह अपने साकार रूप में आती है। इस प्रकार यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि विचार-क्रान्ति का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है, जितना समाज के उद्भव का इतिहास।”
यह उद्गार प्रकट किये हैं मूर्धन्य समाज शास्त्री एफ. किंर्ग्डन वार्ड ने अपनी बहुचर्चित कृति “फुटसटैप्स इन सिविलाइजेशन” में। यह सत्य है कि आदिकाल में विचार-बुद्धि के उदय के साथ ही मनुष्य की भौतिक स्थिति में परिवर्तन होना आरंभ हो गया होगा। जब एक परिस्थिति एवं स्थिति उसे कष्टकर व असह्य लगती होगी, तो उसके विचार तंत्र सक्रिय होते होंगे और वह नई स्थिती एवं परिस्थिति की खोज के लिए प्रयास आरंभ करता होगा। इस प्रकार यह परिवर्तन उसके लिए कुछ समय तक संतोषजनक रहता होगा और फिर वही प्रक्रिया आरंभ होती होगी अर्थात् प्रारंभ में विचार एवं पुनः उसका मूर्तिमान रूप। यह प्रक्रिया जब व्यक्तिगत होती है, तो प्रगति कहलाती है और जब सामूहिक बन जाती है, तो वही ‘क्रान्ति’ कहलाने लगती है। “इन दि बिगनिंग” नामक पुस्तक में जी. ईलियट स्मिथ कहते हैं कि मानवी विकास के आरंभ काल में चूँकि समाज का सर्वथा अभाव था, अस्तु यह परिवर्तन व्यक्तिगत स्तर से आरंभ हुआ एवं कालक्रम में जब समाज राष्ट्र का विकास हुआ, तो क्रान्ति शुरू हो गई।
समाज के विकास के साथ क्रान्ति की शुरुआत क्यों व कैसे हुई? इस प्रश्न का उत्तर प्रिंस क्रोपाट्किन अपने निबन्ध “क्रान्ति की भावना” में देते हुए कहते हैं कि चूँकि क्रान्ति सामूहिक परिवर्तन का द्योतक है, अतः समाज के किसी क्षेत्र विशेष में आमूल-चूल परिवर्तन उसके एक इकाई में परिवर्तन से संभव न होगा, क्योंकि समाज की प्रत्येक इकाई एक-दूसरे से सम्बद्ध है, अतएव सभी इकाइयों को एक साथ वाँछित साँचे में ढाल कर ही इस लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। वे कहते हैं कि इन्हीं परिस्थितियों में क्रान्ति का जन्म होता है। एक ऐसी क्रान्ति जिसकी आँधी-तूफान रूपी सशक्त विचारधारा की चपेट में आकर समाज के समस्त तत्कालीन अवाँछनीय तत्व समाप्त हो जायँ और उनकी जगह ऐसे युगानुकूल तत्व ले लें, जो मानव समाज को शान्ति संतोष की विचारधारा से अनुप्राणित कर दें।
मूर्धन्य पुराविद् प्रो. गोर्डन चाइल्ड अपनी रचना “मानव प्रगति की कहानी” के “नव पाषाण युगीन क्रान्ति” अध्याय में लिखते हैं कि हिमयुगों की दीर्घकालीन अवधि में बाह्य प्रकृति के प्रति मनुष्य के दृष्टिकोण में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं हुआ था, यद्यपि उसने संग्रह विधियों में भारी सुधार कर लिये थे, किन्तु हिमयुग के तुरन्त बाद प्रकृति के प्रति मानवी दृष्टिकोण में ऐसा द्रुत और आमूल-चूल परिवर्तन आया, जो भविष्य में उसके लिए लाभकारी सिद्ध हुआ। वे आगे कहते हैं कि यद्यपि हिमयुगोत्तर काल मानवी अथवा मानवेत्तर प्राणियों के विकास काल की तुलना में अत्यल्प है और लगभग इसके बीसवें भाग के बराबर है, पर इस अत्यल्प काल में ही मनुष्य ने प्रकृति के साथ सहयोग द्वारा नियंत्रित करना सीख लिया।
प्रो. गोर्डन चाइल्ड इसे भी एक क्रान्ति मानते हैं, जो सत्य है और तथ्य भी। तात्विक दृष्टि से देखा जाय, तो इसके मूल में भी विचार-क्रान्ति प्रच्छन्न नजर आयेगी। हिमयुगों के उस काल में बार-बार की प्रकृति की इस विनाशलीला से बचने के लिए तत्कालीन लोगों ने सर्वप्रथम इसके निमित्त कारणों पर विचार किया होगा और एक बार जब इसका वास्तविक कारण उन्हें ज्ञात हुआ तथा पता चला कि प्रकृति के साथ सहयोग कर इस विपत्ति से बचा जा सकता है, तो उन्होंने सामूहिक रूप से यह प्रयास आरम्भ किया। अपनी चिन्तन-चेतना व विचारणाओं में से ऐसे परिवर्तन लाकर अपने जीवन के क्रियाकलापों एवं गतिविधियों को बदला, जो प्रकृति प्रकोप के आधारभूत कारण बनते थे। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि इसके पीछे भी विचार-क्रान्ति की ही सक्रिय भूमिका थी।
इसके बाद के क्रम में हम मानवी अर्थव्यवस्था का रूपान्तरण करने वाली क्रान्ति का प्रथम दर्शन करते हैं। इसके अंतर्गत मनुष्य ने खाद्य के अपने प्रमुख स्रोतों पर नियंत्रण स्थापित किया। इसमें प्रधान स्त्रोत कृषि ही था। कृषि की भी अनेक प्रणालियाँ थीं। एक पद्धति यायावरी कृषि की थी। अमेरिका, अफ्रीका की जनजातियों में कुछ वर्ष पूर्व तक यह पद्धति जीवित थी। इसमें एक स्थान पर लगातार खेती से जमीन की उर्वरता समाप्त हो जाने के बाद कृषक उस स्थान को छोड़ कर अन्यत्र प्रस्थान कर जाते थे। कृषि की यही स्थानान्तरण संबंधी कठिनाइयों को देखते हुए उनमें विचार आया होगा कि एक स्थान पर स्थायी बस कर ही खेती की जाय। उनकी इसी विचार क्रान्ति ने ग्रामों को जन्म दिया। गाँव से फिर शहरों का विकास हुआ। उद्योग धन्धे पनपे। हल, पहियेदार गाड़ी, नौका, धातुकर्म और कीमियागीरी जैसे भौतिक और रसायन शास्त्र के आरंभिक रूपों का विकास हुआ। यह सब अधिकाधिक साधन-सुविधाएँ जुटाने के लिए विचारों में आयी उथल-पुथल के कारण ही संभव हो सका। फिर अनेक प्राचीन सभ्यताओं का विकास हुआ और आज हम उन्हीं की अगली कड़ी के रूप में विद्यमान हैं, पर इस लम्बी यात्रा में हमें अनेकानेक क्रान्तियों से होकर गुजरना पड़ा, जिनमें धार्मिक, साँस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि कितनी ही प्रमुख हैं। अब हम आन्तरिक युग के कहे जाते हैं, किन्तु यह भी विचारों में विकास के कारण ही संभव हो सका। यदि व्यक्ति अपने विचारों को स्थिरता और स्थायित्व प्रदान कर दे, समय और परिस्थिति के हिसाब से उनमें आवश्यक फेर-बदल की ललक ही न उठे, तो निश्चय ही उसकी प्रगति भी स्थिर हो जायेगी। समाज और राष्ट्र के साथ भी यही बात लागू होती है। उन्नति की अभीप्सा ही उन्हें निरन्तर प्रगतिशील बनाये रख सकती है और यह ‘सामूहिक अभीप्सा’ ही तो ‘क्रान्ति’ है। इसके बिना व्यक्ति व समाज की कोई गति प्रगति संभव नहीं हैं।
इस संदर्भ में इस सदी के दूसरे दशक के रूसी एनार्किसटों का एकता-समता, शान्ति-सुव्यवस्था का मत ध्यातव्य है। उनका यह मूलभूत सिद्धान्त ही था “दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।” स्पष्ट है कि वे दूसरों द्वारा स्वयं के प्रति भी वैसा कोई भी व्यवहार सहन करने के पक्षधर नहीं थे, जो नैतिकता, समानता, शान्ति और सुव्यवस्था के मानदण्डों पर खरा न उतरता हो और जहाँ कहीं स्थिति ऐसी दिखाई पड़े, वहाँ क्रान्ति कर दो, क्रान्ति अर्थात् विचार-क्रान्ति उनका स्पष्ट उद्घोष था। क्योंकि यही एकमात्र उपाय है उस स्थिति से निपटने और शाश्वत शान्ति एवं स्थायित्व प्राप्त करने के लिए। कितना सही कथन है वर्तमान समाज शास्त्रियों का भी यही कहना है कि जिस समाज व्यवस्था में अशान्ति होगी उसका अन्तिम परिणाम भी क्रान्ति ही है- विचार-क्रान्ति। यही हमें उससे बचा कर आगे की स्थिति में पहुँचा सकती है। यहाँ एनार्किसटों की क्रान्ति खूनी न होकर रक्तहीन विचार-क्रान्ति ही है, क्योंकि वे साधन-साध्य, मार्ग-ध्येय की पवित्रता पर जोर देते हैं।
1917 की रूसी बोलशेविक क्रान्ति पर दृष्टिपात करें, तो ज्ञात होगा कि जारशाही की साम्राज्यवादी और दमनकारी नीतियों से परेशान होकर ही वहाँ की जनता को उसके विरुद्ध आवाज उठानी पड़ी थी। उनमें विचार चेतना जगी, तो क्रान्ति हो गई। भारत में अँग्रेजी उपनिवेशवाद व इटली में आस्ट्रियाई उपनिवेशवाद की समाप्ति, अमेरिका में दास प्रथा का अन्त, फ्राँस, चीन, क्यूबा तथा यूरोप में साम्यवादी देशों में हुई क्रान्तियाँ- इन सभी में प्रारंभ में प्रखर विचार चेतना ही प्रकारान्तर से काम करती रही है, जिसके परिणाम स्वरूप बाद में स्थिति बदली।
इस प्रकार यदि हमारे राष्ट्र व समाज के विभिन्न क्षेत्रों में हुई क्रान्तियों का सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन करें, तो पायेंगे कि उनमें से प्रत्येक के मूल में विचार-क्रान्ति निहित थी। यहाँ तक कि सृष्टि संरचना के लिए भी वही कारणभूत रही है। भगवान् सत्ता ने यदि “एकोऽहम् बहुस्यामि” का निश्चय न किया होता, तो शायद यह धरती आज वीरान और वियावान ही बनी रहती, पर विचारों में उथल-पुथल हुई और एक सुन्दर सृष्टि बन गई। संकल्प बल ने मूर्तिमान रूप धारण कर लिया, किन्तु आज वही सृष्टि भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। मानवी अस्तित्व खतरे में पड़ा दिखाई दे रहा है। ऐसी दशा में उसी विचार-क्रान्ति की आवश्यकता है, जो अति प्राचीन काल से चली आ रही है, पर इस बार की विचार-क्रान्ति मनुष्य को अध्यात्म की ओर मोड़ देगी, क्योंकि यह उसका चरमोत्कर्ष है। इसके आगे उसकी गति नहीं और मनुष्य को भी बाधित होकर उसे स्वीकारना पड़ेगा। भू उपग्रह जब छोड़ना होता है, तो उसके साथ राकेटों की एक शृंखला संलग्न कर दी जाती है, जिनमें से प्रत्येक एक के बाद एक, उपग्रह को उदग्रडडडड दिशा में लेता चला जाता है किन्तु जब शृंखला के अन्तिम राकेट की बारी आती है, तो वह क्षैतिज दिशा में मुड़ कर उपग्रह को उसकी स्थायी क्षैतिज कक्षा में स्थापित कर देता है। यही उसकी लक्ष्य है और चरम स्थिति भी।
विचार-क्रान्ति की अब तक की चरम स्थिति बुद्धि का चरमोत्कर्ष है। अब आगे उसकी सरल रेखीय गति संभव नहीं। वह दिशा बदलने वाली है। पेण्डुलम जब चरम अवस्था पर पहुँच जाता है, तो उसकी दिशा स्वतः बदल जाती है। विचार-क्रान्ति का यह अन्तिम पड़ाव है, अस्तु आगे उसकी गति बुद्धि से भाव क्षेत्र, भौतिक से अध्यात्म क्षेत्र की ओर मुड़ने वाली है। विश्व के वर्तमान घटनाक्रमों पर दृष्टि डालने पर इसकी स्पष्ट झलक झाँकी मिलने भी लगती है कि इस प्रक्रिया का शुभारंभ हो चुका है और अगले ही दिनों हम भाव-जगत में पदार्पण करने वाले हैं। आत्मिकी का यह क्षेत्र निश्चित ही युगान्तकारी होगा।
विचार-क्रान्ति की अब तक की चरम स्थिति बुद्धि का चरमोत्कर्ष है। अब आगे उसकी सरल रेखीय गति संभव नहीं। वह दिशा बदलने वाली है। पेण्डुलम जब चरम अवस्था पर पहुँच जाता है, तो उसकी दिशा स्वतः बदल जाती है। विचार-क्रान्ति का यह अन्तिम पड़ाव है, अस्तु आगे उसकी गति बुद्धि से भाव क्षेत्र, भौतिक से अध्यात्म क्षेत्र की ओर मुड़ने वाली है। विश्व के वर्तमान घटनाक्रमों पर दृष्टि डालने पर इसकी स्पष्ट झलक झाँकी मिलने भी लगती है कि इस प्रक्रिया का शुभारंभ हो चुका है और अगले ही दिनों हम भाव-जगत में पदार्पण करने वाले हैं। आत्मिकी का यह क्षेत्र निश्चित ही युगान्तकारी होगा।
विचार-क्रान्ति की अब तक की चरम स्थिति बुद्धि का चरमोत्कर्ष है। अब आगे उसकी सरल रेखीय गति संभव नहीं। वह दिशा बदलने वाली है। पेण्डुलम जब चरम अवस्था पर पहुँच जाता है, तो उसकी दिशा स्वतः बदल जाती है। विचार-क्रान्ति का यह अन्तिम पड़ाव है, अस्तु आगे उसकी गति बुद्धि से भाव क्षेत्र, भौतिक से अध्यात्म क्षेत्र की ओर मुड़ने वाली है। विश्व के वर्तमान घटनाक्रमों पर दृष्टि डालने पर इसकी स्पष्ट झलक झाँकी मिलने भी लगती है कि इस प्रक्रिया का शुभारंभ हो चुका है और अगले ही दिनों हम भाव-जगत में पदार्पण करने वाले हैं। आत्मिकी का यह क्षेत्र निश्चित ही युगान्तकारी होगा।