पास पास तीन पहाड़ों की चोटियाँ थीं। उनके ऊपर से देवता निकलें। देवताओं को रोक कर तीनों ने प्रणाम किया। देवताओं ने उनसे एक एक वरदान माँग लेने के लिए कहा।
एक पहाड़ ने माँगा कि उसकी ऊंचाई बढ़ जाय ताकि वह बड़ा कहलाए और दूर दूर से दीखे। दूसरे ने माँगा उस पर घनी हरियाली छा जाय ऐसी जिसे कोई बरबाद न कर सकें। तीसरे ने माँगा कि उसे भूमि जैसा समतल बना दिया जाय ताकि उस पर खेती की जा सके और अनाज उपज सके। देवताओं ने इच्छानुसार वरदान दिया।
देवता बहुत दिन बाद उसी रास्ते वापस लौटे। तीनों पर्वतों की परिणति पर नजर डाली। सबसे ऊँचा पहाड़ सबसे अधिक सर्दी गर्मी सहता था। कोई उस तक पहुँच भी न पाता था। हरा भरा पहाड़ दूर से देखने वालों को तो सुन्दर लगता था पर उस में घूमने फिरने के लिए वन्य पशुओं तक को स्थान न था। मात्र पक्षी रहते थे।
तीसरा समतल हुआ पर्वत अत्यंत लोक प्रिय बन गया था। उस पर बस्तियाँ बसीं और खेती होने लगी। बगीचे उगने लगे। सौभाग्यशाली इस समतल बनने वाले को ही माना गया। वैभवशाली को नहीं।
रहते जो उन्हें अनन्त काल तक मिलने वाली है। युग सृजन में श्रेय किन्हीं को भी मिले पर उसके पीछे वास्तविक शक्ति उस ईश्वरीय सत्ता की ही होगी जिसने नई सृष्टि रचने जैसे स्तर की अभिनव योजना बनाई है और उसके लिए आवश्यक साधनों एवं अवसर विनिर्मित करने का साधन जुटाने वाला संकल्प किया है। कठिनाइयों को निरस्त करने वाला साहस अपने आप में एक ईश्वरीय अनुग्रह है जो जब बरसता है तो व्यक्ति को ही नहीं, समुदाय को ही नहीं, समूचे युग को निहाल कर देता है।