“वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः”
वेद की इस ऋचा में ब्राह्मण की आजीवन पर्यन्त उत्तरदायित्वपूर्ण प्रतिज्ञा की झाँकी है कि हम पुरोहित राष्ट्र को जीवित एवं जागृत रखेंगे। सम्पूर्ण राष्ट्र जिसके इशारे पर चलने वाला हो, जिसका प्राण, दिशा, विचार भावना सभी कुछ ब्राह्मण हो, उसे क्यों न समाज का सच्चा नेता कहें। न केवल वह यही है, वरन् वह तो धर्म नेता भी है। वह मनुष्य के कुविचार, कुसंस्कार तथा कुकर्म पर निरन्तर कुठाराघात करता हुआ उनमें शांति सद्भावनाओं, सद्प्रवृत्तियों तथा सद्बुद्धि के बीजारोपण करने के लिये प्रयत्न करता रहता है।
इसीलिये उसने समाज में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लिया है। वह भूसर की उपाधि से शोभित किया गया है। क्योंकि वह पृथ्वी पर देव तुल्य सृष्टि के हित में अहर्निशि कार्य करता रहता है। इन कार्यों को निरहंकारी भाव से सम्पादित करने के लिये वह ईश्वर-उपासना से तथा आत्म-निर्माण की कठोर जीवन-साधना में अमर शक्ति प्राप्त करता है।
ब्राह्मण को ऋग्वेद में मुख की उपमा इसी कारण दी गई है। वह मुख में स्थित मस्तिष्क के समान समाज में मस्तिष्क प्रेरणा तथा दिशा की पूर्ति करता रहता है। आँख सदृश वह स्वयं के चरित्र का सूक्ष्म दृष्टा बनकर स्वयं की त्रुटियों का परिमार्जन करता रहता है। जो चरित्र गढ़ने में पूर्णतया अग्रसर है, वह कान नाक के समान समाज की हर गंदगी का निवारण करते हुए सामाजिक शुभ कार्यों के लिये समर्थन तथा सहयोग प्रदान करता है। जिह्वा के समान ब्राह्मण विषैली दुष्प्रवृत्तियों को समाज-पुरुष के पेट में जाने से रोकता है। जिस प्रकार मुख अपने पास कुछ न रखते हुए पाचन हेतु उदर को भेजता है, उसी भाँति अपरिग्रही बन करके अपने समस्त आध्यात्मिक, बौद्धिक, भावनात्मक अर्जन के समाज हित में अर्पण कर देता है। जिह्वा के समान मधुर-भाषी बनकर समाज को सत्प्रेरणा देता है। वह इस प्रेरणा के युग में लेखनी द्वारा समाज को दिशा भी प्रदान करता है।
जहाँ ब्राह्मण हारते हैं, वह देश खोखला हो जाता है। वर्तमान समय में देश की दुर्दशा का मूल कारण यही है कि राष्ट्र को सही दिशा देने वाला प्रबुद्ध वर्ग अर्थात् ब्राह्मण अपने कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों से च्युत हो गया है।
अपने पुरुषार्थ द्वारा अर्जित इस महान पद पर आसीन ब्राह्मण -पुरोहित के कर्तव्य बहुत कठोर हैं। सर्व प्रथम वह अपने दुर्गुणों को दूर करके सद्गुणी, चिन्तक तथा मनन कर्ता बनता है। जिससे उसका चरित्र समाज में सामान्य समाज पुरुष की अपेक्षा सदैव ऊँचा बना रहे, तभी वह अन्य लोगों पर अपने चरित्र का प्रभाव डाल सकता है। वह अपनी भावनाओं से जन-जन के हृदय में अपना स्थान बना लेता है। घर-घर अलख जगाने की प्रक्रिया संपन्न करता है। तभी तो समाज उसके पदचिह्नों पर चलता है तथा उसे भरपूर सम्मान भी देता है। जहाँ तक भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रश्न है वह आजीविका नहीं लेता। वरन् आवश्यकतानुसार समाज से समय-समय पर उसे आर्थिक सहयोग मिलता है। वेतन भोगी बनने पर समाज में उसका स्तर कर्मचारी के समान हो, तो वह कर्तव्यच्युत हो सकता है।
वर्तमान समय में अंधविश्वास, कुरीतियाँ, भ्राँतियाँ रूढ़ियां, अज्ञान आदि का अंधकार सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, आदि क्षेत्रों में छाया हुआ है। उस अंधकार में प्रकाश फैलाने के लिए गाँधी, दयानन्द, विवेकानन्द आदि महान पुरुषों के समान सामान्य जनों के बीच से ब्राह्मणत्व उभर कर आना चाहिए। ब्राह्मण वह जो ब्रह्म परायण जीवन जीता हो। वर्ग कोई सा भी हो किन्तु कर्तृत्व उसके ब्राह्मणोपम हों। संयमी, तपस्वी, ब्राह्मणोचित निर्वाह में जीने वाले आध्यात्मिक, महत्वाकांक्षा संपन्न लोकसेवी ही नवयुग की आधारशिला रखेंगे।