जिन्दगी अनुभूतियों का पिटारा है। कड़वे-कसैले, मृदु-सुस्वादु सभी तरह की अनुभूतियों से भरे क्षण हरेक की जिन्दगी में आते हैं। अथवा यों कहें कि जीवन इन मनोरम और डरावनी पगडंडियों से गुजरता है या उसे गुजरने के लिए मजबूर होना पड़ता है। एक की हमें अभिलाषा रहती है, दूसरे से हम कतराना चाहते हैं। एक प्रिय लगता है दूसरा अप्रिय। एक को बिना देखे हम चुनना चाहते हैं, दूसरे को देखकर भी आंखें मींच ली जाती हैं। सुख की राहों पर चलते हुए सोचते हैं जीवन ठहर जाय। विषाद के क्षण भी युगों का भारी भरकम बोझ लगते हैं। लाख तिरस्कार, अनपेक्षा, उपेक्षा के बावजूद ये क्षण हम में से प्रत्येक की नियति बनकर आ ही जाते हैं। क्यों? क्या इनकी भी कुछ उपयोगिता है? या सृष्टि के कुशल सृजेता से यह अकुशल भूल रह गई।
सवाल बड़ा अहम् है और कौतुकपूर्ण भी। विषाद के क्षणों की उपयोगिता सुनने से पहले जी चाहेगा कान बन्द कर लें। पाँव उधर बढ़ने से स्वतः इनकार कर बैठेंगे। कहीं यह मानसिकता हमारी अपनी भ्रान्ति तो नहीं! अन्यथा जिसके द्वारा ऐसी अनुपमेय सृष्टि गढ़ी गई जहाँ प्रत्येक वस्तु घटना अपने उचित स्थान पर ठीक और उपयोगी है, वहाँ विषाद के बारे में बिना सोचे-समझे निर्णय ले डालना ठीक नहीं मालुम पड़ता।
प्रीतिकर क्षणों में हमारा अपना जीवनक्रम बँधे-बँधाए ढर्रे में चलता रहता है। बहुत कुछ अर्थों में हम बेहोशी जैसा समय गुजारते हैं। क्रियाशीलता और बेहोशी में विरोधाभास लगता जरूर है पर बेहोश आदमी भी क्रियाशील रहता है। दिल की धड़कन फेफड़ों की साँय-साँय रगों में खून की भाग दौड़ यह क्रियाशीलता नहीं तो और क्या है? क्रिया के घेरे को उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने तक तो सीमित नहीं किया जा सकता। मनोवैज्ञानिकों ने अपनी नई-नई प्रायोगिक छान-बीन के द्वारा यह सूचित किया है कि इन्सान की क्रियाएं दो तरह की मानसिकता की उपज हैं। एक जिसे अचेतन मन कहते हैं अर्थात् संस्कार आदतों, यादों, पूर्वाभ्यासों के जखीरे के संकेतों द्वारा। दूसरा सचेतन मन जो सोचने-समझने विवेकपूर्ण निर्णय लेकर काम करने में भलाई समझता है।
पहले के द्वारा संचालित क्रियाओं में हमें सोचने की जरूरत नहीं पड़ती। उठने-बैठने, खाने-सोने में भला सोचने की क्या जरूरत। आदत पड़ गई है सब निभ जाता है। दिल-गुर्दे, फेफड़े भी तो इस तरह आदत के मुताबिक जिम्मेदारी निभाते रहते हैं। सोच-विचार का क्या काम? जहाँ सोच-विचार न हो, उचित अनुचित का विवेक न रह जाय, उस दशा का नाम बेहोशी ही तो है। बेहोश आदमी कैसे बैठा है, पड़ा है अर्धनग्न अथवा निर्वस्त्र उसे इसकी कोई चिन्ता नहीं। आखिर वह बेहोश जो ठहरा।
मनोवेत्ता एच. जी. अर्नहीम ने किताब लिखी है “काँशस लिविंग”। इस पुस्तक में उसने लम्बे-चौड़े सर्वेक्षण के बाद साँख्यिकीय आकलन प्रस्तुत किए हैं। उसके अनुसार बहुसंख्यक समुदाय ऐसा है जो सचेतन मन का कम से कम इस्तेमाल करता है। जिन में जीवन के प्रति स्वयं की जागरुकता है उनकी संख्या गिनी चुनी है। अपनी आदतों के मुताबिक एक ढर्रे जैसे जीवन-जीने वाले इस बहुसंख्यक समुदाय को नाम दिया है- बेहोश दुनिया। जब कभी यह बेहोशी अपनी सीमा को तोड़ती हुई ज्यादा गहरी होने लगती है तब आते हैं, विषाद के क्षण। इनका आगमन हमारी चेतना को झकझोरता है। हमारे आन्तरिक पौरुष को चैतन्य करने की कोशिश करता है। इस कोशिश से हम कितना फायदा उठाते हैं यह हमारी अपनी स्थिति पर निर्भर है। घर-परिवार में मित्रों के साथ बैठ कर आमोद मनाया जा रहा हो तो अपना तक ध्यान नहीं रहता। सब कुछ अनजाने में यन्त्र की तरह चलता रहता है। किन्तु वहीं यदि हिंस्र पशुओं से भरे जंगल से गुजरना पड़े तो अनजाने भय से मन संतप्त रहता है। यह विषाद-पूर्ण संतप्तता निरंतर चौकन्ना बनाए रखती है। सब ओर जाँच परख कर एक-एक कदम सोच समझ कर रखे जाते हैं।
विषाद की स्थिति आरम्भिक विचारशीलता की उपज है। जहाँ बिल्कुल विचार न हो अथवा सँवरे हुए परिपक्व विचार हों वहाँ विषाद नहीं होगा। पशु विषाद ग्रस्त नहीं होता क्योंकि वहाँ विचार नहीं हैं। मनुष्य राह है, पशु और देवता के बीच की। यहाँ विचार हैं। विषाद हैं और विषाद को पार करने की तकनीकें भी। पश्चिम में एक विचारक हुआ है जे. बर्टलेट। उसने एक पुस्तक लिखी है “डाईमेंशन ऑफ मैन”। बर्टलेट अपने इस चिन्तन कोश में कहता है - मनुष्य सेतु है पशु और देवता के बीच का। इस सेतु को पार करने का शुल्क है विषाद। इससे जूझकर इससे उबरा जा सकता है। पलायन करने वाले फिर पशुता के कुएँ में जा गिरेंगे। आज का आदमी विषादग्रस्तता से उबरने की तकनीक भुला कर पशुता की ओर मुड़ चला है। वह नशे का सहारा लेकर, कामुकता में डूब कर पशु की तरफ जाने को आतुर है। पशु की गहरी जड़ता में उसे विषाद की कोई अनुभूति नहीं। विषाद और पीड़ा को प्रायः एक समझने की भूल की जाती है। किन्तु इन दोनों में उतना ही अन्तर है जितना शरीर और मन में। पीड़ा पशु भी अनुभव करते हैं। पर विषाद का अनुभव उन्हीं को होता है जिनका मन सक्रिय और सचेतन है। जिनमें परिस्थितियों का विश्लेषण करने की क्षमता है। पीड़ा इसका कारण हो सकती है, पर इसके अलावा ऐसे अनेकों कारण है जब हमें किसी तरह के शारीरिक कष्ट के बिना शोक विह्वल होना पड़े। संवेदनाजन्य विचारशीलता की शुरुआत इस अनुभूति को उपजाती है।
मानव मन के जानकारों ने इस स्थिति का विवेचन किया है। मनोवैज्ञानिक आर. हाइमन ने “क्रिएटिविटी एण्ड प्रिपेयर्ड माइन्ड” में बताया है यद्यपि प्रारम्भिक विचारशील मानसिकता विषादग्रस्त होगी। किन्तु विचारों को उद्वेलित करने वाली परिस्थितियों में अनिश्चयात्मकता तथा स्वयं के ऊपर अविश्वास को वे प्रधान कारण मानते हैं। जिस किसी परिस्थिति का सामना होने पर ये दो कारण सामने आते हैं, इस मनोदशा का बोझ उठाना पड़ता है।
समाज के वर्तमान स्वरूप को परखने पर बहुसंख्यक व्यक्तियों की मनोदशा इस चारदीवारी में कैद देखी जा सकती है। यहाँ तक कि चिन्तकों में अस्तित्ववादियों का पूरा कुनबा ही विषादग्रस्त है। सार्त्र अनामुनो-जेस्पर, हाइडेगर पश्चिम के जो भी अस्तित्ववादी विचारक हैं इसी मनःस्थिति में हैं। यहाँ सवाल उपजता है कि लगातार ये विषाद के अवसर क्यों? यदि यह हमारी चेतना को झकझोरता है, उसकी बेहोशी तोड़ कर सोचने-समझने के लिए मजबूर करता है, तो हमारी यात्रा यहाँ से चलकर एक नव जीवन की शुरुआत तक होनी चाहिए। घटित होनी चाहिए-एक आत्म क्रान्ति। यदि यह आत्म क्रान्ति घटित होते नहीं दीख रही तब हमारी विचार प्रणाली में कहीं-कहीं जरुर भारी भरकम भूल है। अवश्य कहीं-कहीं हमारा विचारतन्त्र दोष-ग्रस्त है।
यूनानी कथाकारों ने अपनी कथाओं में इस दोषग्रस्तता को स्पष्ट किया है। ऐसी ही एक कथा पर कामू ने एक ग्रन्थ लिखा है “द मिथ ऑफ सिसिफस”। सिसिफस को सजा दी है देवताओं ने कि वह पत्थर को पहाड़ तक खींच ले जाए और सजा का दूसरा हिस्सा यह है कि जैसे ही वह शिखर पर पहुँचेगा, वैसे ही पत्थर उसके हाथ से लुढ़क जाएगा। फिर से वह नीचे जाए और पत्थर खींचे और चोटी तक जाए फिर यही होगा। फिर-फिर यही होता रहेगा। कथा का उल्लेख करता हुआ कामू कहता है। हम सिसिफस हैं, जो अपने विचारों के दोष से विषादग्रस्त हैं। कहानी अलग-अलग हो सकती है। पहाड़ अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन सिसिफस हम सब हैं जो मनुष्यता के सेतु को पार कर देवत्व की ओर नहीं बढ़ रहे। अनेकानेक परिस्थितियों की छान-बीन करने वाले हम सब उनका स्वयं की मनःस्थिति के सापेक्ष विश्लेषण करने में असमर्थ रहते हैं। कामू के अनुसार परिवर्तनशील परिस्थितियों का निर्माण इसलिए हुआ कि हमारी मनःस्थिति का प्रत्येक पहलू-तराश कर खराद कर चमकदार बनाया जा सके।
पर दोषपूर्ण विचार प्रणाली ऐसा करने कहाँ देती है। यही कारण है विषाद की उपयोगिता हमारे अपने जीवन में सिद्ध नहीं हो पाती। अनेकों अवसर आ चुकने के बावजूद आज भी हमें पहले की दशा में, पहले की तरह, पछताने, हाथ मलने, सिर धुनने के अलावा और क्या मिला है? हमारी विचार प्रणाली का प्रधान दोष यह है कि हम प्रत्येक अनुभूति का कारण बाहर तलाशते हैं। इस ढूँढ़-खोज के बाद उसमें फेर बदल करने की कोशिश करते हैं। यह प्रक्रिया पूरी तरह गलत तो नहीं पर त्रुटिपूर्ण जरूर है। अनुभूति सिर्फ बाह्य दशा पर निर्भर नहीं होती। यह कैसी और कितनी क्यों न हो? पदार्थ का अस्तित्व होते हुए इन्द्रिय संवेदना के बिना उसका अनुभव नहीं हो सकता और मन के बिना अनुभव पर विचार कर सकना सम्भव नहीं। मन की वकीली जिरह का तब तक कोई समाधान नहीं जब तक बुद्धि कुशल न्यायाधीश की तरह निर्णय न करे। यानि कि बात गहरी है पदार्थ तक सीमित नहीं और अनेकों चीजें हैं जो छान-बीन के योग्य हैं।
यह छान-बीन यदि की जा सके तो आश्चर्यजनक तथ्य हाथ लगेंगे। तब पता चलेगा दोषी बेचारे पदार्थ परिस्थिति नहीं हम स्वयं है। इन में यदि कहीं कोई दोष है भी तो बहुत मामूली। क्योंकि ये तो लम्बी शृंखला की एक कड़ी भर हैं। एक सुदीर्घ प्रक्रिया के घटक मात्र हैं और सर्वविदित तथ्य है कि मात्र एक घटक से प्रक्रिया की समग्र छान-बीन नहीं होती है। जहाँ इस छान-बीन की समग्रता हमारे जीवन में शुरू होती है, घटित होने लगती है एक आत्म-क्रान्ति। विषाद के क्षण-सीखने के अवसर बनने लगते हैं।
गीताकार के अनुसार अर्जुन की जीवन व्यापी क्रान्ति की शुरुआत ऐसे ही अलभ्य अवसर से हुई। इसी कारण प्रथम अध्याय का नामकरण ही विषादयोग कर दिया। प्रकारान्तर से अन्य योग इसी से निकले। विषाद गीता की ज्ञान गंगा का गोमुख सिद्ध हुआ। स्थिति पर मनन करने से पता चलता है कि अर्जुन को कोई शरीर कष्ट न था। कष्ट था मानसिक कारण से बनी सामने आयी परिस्थिति। उसने भी पहले बाह्य परिस्थिति का विवेचन करके निर्णय लिया भाग चलो। पलायन वाद का जामा सिर्फ इसलिए ओढ़ा गया क्योंकि विचार प्रणाली दोष पूर्ण थी। भगवान गुरु ने इसे सुधारा “आत्मन् विद्धि” उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत” अर्थात् विचार न कर पाने के दोष स्वयं की सत्ता को निरन्तर अवसाद में मत डालो। तथ्य समझ में आने पर घटित हुई एक आत्म क्रान्ति। जिसके हाथ गाँडीव का बोझ नहीं सँभाल पा रहे थे, उसी की वीरतापूर्ण हुंकार ने युगक्रान्ति कर डाली। धरती पर स्वर्गिकता मुस्कराने लगी।