नुकसान सहकर भी नीति का साथ

January 1991

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कालेज से निकल कर सड़क पर आते ही सामने के दृश्य ने उसे बुरी तरह झकझोर दिया। कितनी मर्मान्तक दुर्घटना थी। मरने वाले का शरीर बुरी तरह कुचल गया था। कटे हाथ-पैर टुकड़े-टुकड़े हो बिखरे पड़े थे। सड़क खून से रंग गई थी। और दुर्घटना का दोषी -खून के छींटों से रंगी अपनी कार भगाए ले जा रहा था- कार का नम्बर, कार चालक की शकल-सूरत देख वह पहचान चुका था कि वह और कोई नहीं उसी के अध्यापक महोदय हैं।

कुछ क्षणों के बाद पुलिस आयी-भीड़ छटने लगी। मर गए लड़के के अंग- अवयव बटोर कर एक कपड़े में सिले गये। सड़क से खून साफ हुआ। वह भी थोड़ी देर तक गुम-सुम खड़ा रहा फिर उसके कदम अपने घर की राह पर बढ़ चले। घर पहुँचने पर भी उसे चैन न हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे मस्तिष्क की सारी नसें फट जाएँगी। न जाने कितने सवाल मन में कौंध रहे थे। बेचारा! अभी उसकी उम्र ही क्या थी? देखने में कितना सुन्दर सुडौल उफ्! एक पल में ही तो सब कुछ गुजर गया। कम से कम रुक कर संवेदना के दो शब्द ही कह देते प्रोफेसर परन्तु उनके चेहरे पर तो प्रायश्चित की एक लकीर भी नहीं उभरी। सोचते-सोचते नींद लग गयी।

अगले दिन विद्यालय पहुँचते ही उसको प्राध्यापक महोदय ने अपने कमरे में बुलाया। ठीक वही चेहरा कल जैसे हाव-भाव कुटिल आंखों में उनकी नियत साफ -साफ टपक रही थी। तो क्या..? वह कुछ अधिक सोचता इसके पहले प्राध्यापक महोदय बोल पड़े “राय! कल तुम घटना के समय में थे।” उत्तर मिला “मैं ही क्या पूरी भीड़ थी सर!”

‘बात तुम्हारी हो रही है औरों को समझा लिया गया है” “किस बारे में सर।”

“यही कि उलटी-पुलटी बयानबाजी न करें।”

उसके मन में आया साफ -साफ कह दे कि दोषी को दोषी कहना यदि उलटी-पुलटी बयान बाजी है तो फिर सीधी क्या है? पर कुछ सोच कर चुप रहा।

मतलब समझ गए न, प्राध्यापक की कुटिल मुसकान कमरे की सफेद दीवारों को धुँधला करने लगी। उसने सहज ही पूछा “क्या यह चेतावनी है?” “यही समझो-मान लोगे तो पुरस्कार मिलेगा। सर्व प्रथम पास हो जाओगे” “और अगर न मानूँ तो” इन चार शब्दों को सुनते ही प्रोफेसर की भौंहें तन गई फुफकारते हुए बोले “परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना।” वह बिना कुछ कहे कमरे से बाहर निकल आया।

अदालत में प्रत्यक्षदर्शी गवाह के रूप में राय ने जो भी देखी थी उसका आँखों देखा विवरण यथा तथ्य सुना दिया। उन्होंने स्पष्ट बताया कि दुर्घटना प्राध्यापक महोदय की असावधानी से हुई है। कुछ छात्रों ने जो उस समय वहाँ उपस्थित नहीं थे प्राध्यापक के पक्ष में झूठी गवाहियाँ दे डालीं। लेकिन न्यायाधीश को राय का विवरण अधिक तथ्यपूर्ण और प्रामाणिक जँचा। इस अपराध के दण्ड स्वरूप जुर्माना हुआ।

इस मामले में प्राध्यापक ने जुर्माना तो भरा परन्तु राय के प्रति उसके मन में निन्द्य प्रतिशोध की भावना घर कर गई। शीघ्र ही विश्व विद्यालय की परीक्षाएँ हुई। राय ने प्रत्येक प्रश्न को पूरे मन से हल किया था। उत्तर ठीक लिखे गए थे।

पर उक्त प्राध्यापक ने अपने साथियों से अपने प्रभाव का उपयोग कर राय को अनुत्तीर्ण करा दिया। यही नहीं अपने विषय में बहुत कम अंक दिये ताकि पूरक परीक्षाओं में भी न बैठ सके। इस परिणाम की किसी को आशा न थी। हमेशा सर्वप्रथम आने वाले राय की यह दशा देखकर वे छात्र भी दुखी हुए जो स्वयं उत्तीर्ण होकर अपने मेधावी साथी से आगे निकल गए थे।

सबके दुःख मिश्रित आश्चर्य के बीच राय अब तक भली भाँति जान चुके थे कि उन्हीं प्राध्यापक महोदय की कृपा है यह, जिन्होंने अपने पक्ष में गवाही देने के लिए बहलाया, फुसलाया और धमकाया भी था।

विजय के दर्प के भाव से प्राध्यापक महोदय ने राय को बुलाकर पूछा “तुमने जानबूझ कर यह मुसीबत क्यों मोल ली? “विद्यार्थी राय का उत्तर था “सर! अनीति के साथ समझौता करके सफल होने की अपेक्षा नीति के लिए संघर्ष करते हुए हजार बार असफल होना मैं पसन्द करूंगा। अपनी आत्मा का हनन कर यदि सत्य को मैं छुपाता तो स्वयं को कभी क्षमा न कर पाता”। आदर्श की प्रति मूर्ति विधानचंद्रराय के सम्मुख प्राध्यापक शर्म से आँखें झुकाए सन्न से रह गए, इन शब्दों को सुनकर।

यही नीतियों के लिए संघर्ष करने वाला जुझारू विद्यार्थी पश्चिम बंगाल का एक आदर्श मुख्यमंत्री बना। आदर्शवादी खोता नहीं पाता ही है।


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