परिवर्तन के अग्रदूत

January 1991

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सितम्बर 1963 का प्रभात। रविवार के इस रोज प्रायः सभी यीशु भक्त सामूहिक प्रार्थना के लिए चर्च जाया करते हैं। बर्मिंघम स्थित एक चर्च में इसी तरह लोग प्रार्थना के लिए जा रहे थे। इस गिरजाघर को लोग अश्वेतों के चर्च के नाम से जानते थे और जाते भी इसमें अधिकाँशतया अश्वेत ही थे। कुछ अन्दर प्रवेश कर रहे थे और कुछ इधर-उधर टहल रहे थे। काफी भीड़-भाड़ थी।

इसी बीच तेजी से आती हुई एक मोटर रुकी। उसमें चार-पाँच गोरे अमेरिकी उतर कर तीर की तेजी से गिरजाघर की ओर बढ़े। उनकी ओर किसी का ध्यान जाय इसके पहले उनमें से एक ने हथगोले निकाले और एक-एक साथियों के हाथ में थमा दिया, बचा एक उसके स्वयं के हाथ में था। तभी चर्च की घण्टी की आवाज हुई पर जोरदार धमाकों के बीच इसे कौन सुनता। यह आवाज श्वेत अमेरिकियों के हथगोलों से उभरी थी। विस्फोट होते ही भगदड़ मच गई। अनेकों मरे घायल हुए और बहुसंख्यक भगदड़ में कुचले गए। इन मौतों के दर्दनाक दृश्य को देखकर लगता था जैसे ईसा को सूली चढ़ा दिया गया हो और शैतान ठहाके लगा रहा हो।

इस तरह की यह अकेली घटना नहीं थी। उस क्षेत्र में आए दिनों ऐसी तबाहियाँ होती रहतीं। इन सबके पीछे किसी न किसी प्रकार गोरे लोगों का हाथ था। जिस जगह विस्फोट हुआ था, वहाँ मध्यम वर्गीय अश्वेत नागरिक रहते थे। ये सभी किसी न किसी प्रतिष्ठित व्यवसाय में लगे सम्मानित जीवन बिता रहे थे। विगत दिनों की घटनाओं ने सभी को आतंकित कर दिया था। इन विस्फोटों के कारण जन समुदाय ने उस पूरे क्षेत्र का नामकरण ही “डाइनामाइट हिल” कर दिया था।

इन सबका कारण था काले लोगों द्वारा अपने मानवीय अधिकारों की माँग। उसी बस्ती में एक प्रबुद्ध और विचारशील किशोरी रहती थी ऐंजेला डेविस। चर्च के बम काण्ड में उसकी चार सहेलियाँ मरी थी,। अपनी सहेलियों के शरीर के चिथड़े-टुकड़े देखकर उसकी आत्मा दहल उठी। उसके मन में रह-रह कर उभरता कि काले शरीर के भीतर भी लाल रंग का खून है वैसी ही हड्डियां है सभी कुछ वैसा ही है सिर्फ चमड़ी का अंतर रह जाता है और आत्मा तो दिखाई नहीं देती। उसका कोई रंग भी तो नहीं है। सारा कुछ एक सा होने पर भी बाहर के जरा से भेद के कारण पशु से भी बदतर, गया गुजरा स्वयं को मनुष्य तक कहने का अधिकारी नहीं? और दूसरे जो अपने को मनुष्य कहते हैं उनमें कहीं से मनुष्यत्व नहीं। अंतर जरूर है प्रवृत्तियों का, जीवन के प्रति दृष्टिकोण का। निश्चित ही बहुसंख्यक मनुष्यों की मानवीय संवेदनाओं, आत्मिक गुणों का गला शैतान बेदर्दी के साथ घोंटता जा रहा है। तभी, तभी तो मनुष्य सृजन का देवता होते हुए विनाश का शैतान बनता जा रहा है। धन, जाति, रंग आदि अनेकों भेद भाव पैदा कर अपने ही भाइयों को नृशंसता पूर्वक तड़प-तड़प कर मरने के लिए विवश कर रहा है। ऐसे ही न जाने कितने विचार उसके मन में आते रहे और उसने संकल्प लिया कि वह इन भेद की दीवारों को ढहाने, सोई सम्वेदना को जगाने की भरपूर कोशिश करेगी। इसके लिए सब कुछ न्यौछावर करने में उसे तनिक भी हिचक न होगी।

इन्हीं दिनों विद्यालय के व्यवस्थापकों ने उसका नाम न्यूयार्क के सुविख्यात एलिजाबेथ अर्विन स्कूल के लिए चुना। यह चुनाव उक्त स्कूल के मानवतावादी संचालकों की स्कॉलरशिप योजना के तहत हुआ था। छात्रवृत्ति पाकर वह न्यूयार्क पढ़ने चली गई। पुराने स्कूल और नए स्कूल के शैक्षणिक स्तर में जमीन आसमान का अन्तर था। यहाँ की शिक्षा कहीं अधिक ऊंचे स्तर की थी। परिश्रमशीलता की सारी पूँजी लगाकर उसने फ्रेंच भाषा में विशेष योग्यता के साथ स्नातक की परीक्षा पास कर ली।

उनकी श्रम निष्ठ और मनोबल से प्रभावित हो संचालकों ने छात्रवृत्ति बरकरार रखी। फ्रेंच साहित्य में प्रवीणता के साथ उसने इंस्टीट्यूट आफ सोशल रिसर्च में प्रवेश लिया। उनके यह सभी प्रयत्न, योग्यता अर्जन किन्हीं निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए न थे। वरन् इसके पीछे समाज के कर्णधारों को जताने का यह भाव था कि संसार के प्रत्येक मनुष्य में वह गरीब हो या अमीर काला हो या गोरा, अछूत हो या सवर्ण सभी में अपनी मौलिक विशेषताएँ हैं। यदि यह नहीं विकसित हो पा रही हों तो अधिकाँश दोष उन्हीं के मत्थे पर जाएगा जो समाज की नाव की पतवार सँभालने का दावा करते हैं। जिस बगीचे का माली सावधान हो तो क्या मजाल कि एक भी पौधा मुरझा जाय अथवा उसका समुचित विकास न हो। बुद्धिजीवी-विचारशीलों के वर्ण पर भगवान ने समाज वाटिका के माली का भार सौंपा है। यदि वह अपनी जिम्मेदारी को निभाने में प्रसाद करते हैं तो किसी न किसी समय, किसी न किसी तरह उन्हें इसका खामियाजा भुगतना ही होगा।

अब तक उसने डॉक्टरेट पूरी कर ली थी। पूरी करने के साथ अपनी जिम्मेदारी भी अनुभव कर ली कि उसकी भी गणना इन्हीं मालियों में होने लगी हैं। कर्तव्य के प्रति प्रसाद उसने सीखा न था। वह कार्य में जुटने का तरीका ढूंढ़ने लगी। तरीका एक ही समझ में आया। वर्षों से दलित पीड़ित कराह रहे निम्न वर्ग में स्व बोध जगाना। समानता और न्याय की स्थापना के लिए उनके कर्तव्यों को याद कराना। इसके व्यापक स्तर पर वैचारिक आँदोलन की जरूरत समझ में आयी।

इनके बीच वह स्थान -स्थान पर जाती घर-घर द्वार-द्वार जाकर पुकारती “तुम्हें स्वयं उठाना होगा। बाहरी सहायता से अधिक देर तक किसी का काम नहीं चलता। किसी को यत्किंचित् सहायता मददगार तो हो सकती है, प्रेरणा तो भर सकती है पर तुम्हें स्वयं अपना उद्धारक होना पड़ेगा। अपने पैरों पर खड़े होने से काम चलेगा। स्वयं की भुजाओं का पुरुषार्थ ही निर्वाह साधन जुटाने से लेकर प्रगति पथ पर अग्रसर होने जैसे सुयोग जुटाते हैं। रक्तदान आहत को तात्कालिक राहत तो पहुँचता है, पर जीवित रहने की आशा तभी बँधती है जब खुद का शरीर रक्त उत्पादन करने लगें।” उसके ये उद्बोधन वाक्य अधिक प्रभावी बन सकें इसके लिए उसने अनेकों, तरह-तरह के रचनात्मक कार्यक्रम हाथ में लेने शुरू किए।

प्रौढ़ शिक्षा साक्षरता, स्वास्थ्य संरक्षण आदि कार्यक्रमों के माध्यम से जहाँ मनुष्य की ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का शमन होता है, वहीं रचनात्मक प्रवृत्तियाँ उदय होतीं और समूची मानवी चेतना अपना सृजन कौशल प्रकट करने लगती है। जब जागृति के प्रयास सफल होना शुरू हुए। हों भी क्यों न? लगन, निष्ठ, महानता की ललक सभी कुछ मिल कर अपना चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत किये बिना रहती।

इसके साथ विरोधी-आपदाओं का क्रम भी शुरू हुआ। “श्रेयाँसि बहुविघ्नानि”, तो सार्वभौमिक सूत्र ही है। हाँ, ये आपदाएँ कमजोरों, हीन मनोबल वालों को ही डिगाती हैं, दृढ़ मनोबल वाले तो उलटे इनसे संघर्ष की प्रेरणा व प्राण पाते हैं। उसे भी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की प्रोफेसरशिप से हटा दिया गया जान से मारने तक के प्रयास भी हुए


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