सार्थक तप

January 1991

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“बापू! बापू!! अरे देखिए न, काका को क्या हो गया है?” बच्चों का एक पूरा झुण्ड कोठरी के द्वारा पर दौड़ आया। अभी सवेरा हुआ ही था। दिसम्बर जनवरी के महीने में सूर्य रश्मियाँ वैसे भी अलसाई रहती हैं, फिर तो आज उन ने कोहरे की सफेद चादर तान रखी थी। ऐसे में इतनी सुबह बालकों के समूह का द्वार पर कमल की पंखुड़ियों की तरह सिमट आना। क्यों न सिमटें? आखिर एक वही तो हैं जिनसे छोटे-बड़ों की शिकायतें आपस की नोक-झोंक सब कुछ कह लेते हैं। कभी -कभी तो उनसे उनकी भी गलतियाँ बताने में नहीं चूकते। सुनकर वह हँसते हैं समझते हैं और तब जवाब में पूरा आश्रय परिसर खिलखिलाहट से भर जाता है। आज फिर पता नहीं क्यों?

द्वार खोलते ही सबके सब घुस गए। बच्चों से घिरे उन ने पूछा “क्या हुआ तुम्हारे काका को?” बच्चों के ये काका दुनिया की विचित्र वस्तुओं से भी विचित्रतम्। कहा जाता है कि संसार के सात आश्चर्य हैं किन्तु ये ऐसे कि सातों आश्चर्य इन्हें देखकर स्वयं आश्चर्य में पड़ जायँ। सभी आश्रमवासी उनके बारे में यही राय रखते थे। आपस में हो रही चर्चा में कहीं न कही उनका नाम अवश्य कूद पड़ता। इस नाम कूद से बातों का मजा बढ़ जाता था। उनका जीवन क्रम उपवास करने लग जाय तो 68 दिन तक बिना खाए पिए बने रहें और अगर खाने लग जायँ तो आश्रम का सारा दूध अकेले पी जाने लगें, तब गौशाला के इंचार्ज ने बापू से विनय की इस समय लगभग बीस सेर तो दूध ही होता है, वह सब का सब काका के पेट में चला जाता है। बापू हँस पड़े “कोई प्रयोग कर रहा होगा, मैं मना कर दूँगा” और दूसरे दिन से बारह-तेरह किलो खली खाने का क्रम चला। यह छूटा तो महीनों कड़वी नीम की पत्ती के घोल पर गुजरे। आश्रमवासी हैरत में पड़े आखिर ये हैं क्या? इतना कठोर जीवन कि कठोरता को भी कँपकँपी छूट जाय। इस पर बीमारी तकलीफ उनसे कोसों दूर।

तब आज फिर क्या कोई नया...? बापू की मुसकान अपने आप में गहरा रहस्य छुपाए थी। बच्चे तो अपना सारा आश्चर्य उन्हीं की झोली में उड़ेलने आए ही थे। तनिक सा संकेत मिलते ही सब के सब एक साथ बोल पड़े “आज रात क्या हुआ? तू नहीं मैं बताऊँगा... नहीं मैं।” आखिर हँसते हुए उन ने सबको चुप कराया फिर एक बारह-तेरह साल के बालक को बोलने का इशारा किया।

“कल शाम काका ने गायों की लम्बी वाली नाद को साफ किया फिर उसमें पानी भरा उसने बताना शुरू किया हम लोगों ने सोचा कि ऐसे ही सफाई चल रही होगी। पर नहीं वह तो टाट की एक लँगोटी पहने नंगे बदन सारी रात उसी पानी में लेटे रहे। कल रात की सर्दी उफ! जैसे उसे स्मरण मात्र से झुरझुरी हो आयी हो।” “असली बात बता।” एक साँवले से तनिक वाचाल लगने वाले लड़के ने अपनी आँखें मटकाते हुए टोका। इसके पहले कि दोनों में नोंक-झोंक हो जाती, उन ने मुँह सिलवा लिया बापू। मुँह सिलवा लिया।” अब तो उन्हें भी ताज्जुब हुआ। मुहावरा तो सुना है मुँह सिलवाना पर कोई सचमुच में। किस चीज से सिलवाया है। तांबे के तार से। कई लड़के एक साथ बोल पड़े।

अब की बार गाँधी जी को गम्भीर होना पड़ा। लोग जब कहते है बापू तुम्हारे आश्रम में चोर से लेकर संन्यासी तक तरह -तरह के आदमी रहते हैं। आपने इन्सानों का चिड़िया घर खोल रखा है। सुनकर वह हँसते हुए मजाक में कहते चिड़िया घर नहीं शिव की बारात है। नन्दी- भृंगी से लेकर भूत-बैताल, साँप-बिच्छू सभी हैं। वीरभद्रों की भी भारी तादाद है। भाँति-भाँति के इन्सानी नमूनों में एक यह भी फिर कुछ सोचते हुए पूछा अच्छा अब क्या कर रहे हैं? नदी के पानी में दोनों हाथ उठाए खड़े आकाश की ओर देख रहे हैं। बच्चों का जवाब था।

अपनी हलकी सी शाल को लपेटते हुए वह बच्चों के साथ चल पड़े। कदमों के सहारे पगडंडी को नापते उनका चिंतन चक्र चल पड़ा। अनेक गुण हैं उसमें स्वाध्यायी है, विनयशील है, कर्मठ है, सत्यवादी है। संक्षेप में एक महापुरुष के लिए जितने गुणों की अपेक्षा रहती है, प्रायः वे सभी हैं। यदि कोई दोष है तो यह कि हठी है। यों जीवन के अन्य विषयों में पारस्परिक व्यवहार में नीति परामर्श में उसका हठ कहीं भी आड़े नहीं आता। इसके प्रकटीकरण का क्षेत्र तो एक ही है जिसे वह ‘तप’ कहता है।

“तप” कितना गहरा अर्थ छुपा है इस शब्द में। जीवन का अरुणि मन्थन का, ऊर्जास्विता के अर्जन का नाम है ‘तप’। व्यक्तित्व के महासागर का मन्थन कर चौदह गुण रत्नों के प्रकटी करण की प्रक्रिया है यह। पर... अचानक उनकी नजर सामने की ओर उठी। चारों ओर कोहरे की सफेद धुँध अभी भी पगडण्डी खेतों-वृक्ष वनस्पति और इक्के-दुक्के आने-जाने वालों को अपनी सुविस्तीर्ण चादर में लपेटती जा रही थी। सन्नाटे के बीच कभी कभार नदी की लहरों की ध्वनि तरंगित हो जाती। आगे बढ़ गए बच्चों को पुकार कर पास बुलाकर स्नेहपूर्ण स्वरों में कहा साथ-साथ चलो। वह पुनः उनके बारे में सोचने लगे तप के नाम पर ही तो अपने शरीर को यातना देता है। कई बार उसे उन ने संकेत भी किए फिर वह कोई नासमझ तो नहीं है। जिसने इतिहास, अँग्रेजी, अर्थशास्त्र तथा फ्रेंच विषयों में एम.ए. (ऑनर्स) किया हो। जो सेण्ट जेव्हीयर कालेज में प्राध्यापक रहा हो।

इस ओर नहीं उस तरफ। एक बच्चे ने उनके कदमों को दूसरी ओर मोड़ा उस ओर जिधर इनके काका खड़े थे। वे सोचने लगे - “कितना प्यार करते हैं ये सब बच्चे उसको। तभी तो ऐसी कड़ाके की ठण्ड में भी आकर उसे देख गए। मुझे लेकर आये। वह भी इन बच्चों के लिए जान देता है। जब होता है तब इन्हीं बच्चों के विकास का चिन्तन। बिना किसी आशा अपेक्षा के इनके हित में लगे रहना। प्रेम भाव है, दिव्य भाव, मनुष्य में विकसित देवत्व है यह। जिस किसी भाव का स्वयं को विकास होता है, बाह्य जगत से उसी का प्रतिपादन मिलता है। जिसने अपने अन्दर घृणा पनपाई है, उसे बदले में घृणा के सिवा और कुछ न मिलेगा। जिसने अपने अस्तित्व को निचोड़ कर अमृत बिन्दु छिड़के सम्पूर्ण विश्व उसे अमृत कलश समर्पण करने में गौरव की अनुभूति करेगा।

कमर तक पानी में खड़ा उसका निष्कम्प शरीर कोहरे को बेधकर झिलमिलाता दीख रहा था।” “ये रहे।” बच्चों का समवेत स्वर गूँज उठा। नदी का जल अभी भी सफेद धुँध से ढका था। ये सब बिल्कुल पास जाकर खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद हलका सा कंपन हुआ। आकाश की ओर उसने हाथ जोड़े और पीछे की ओर मुड़ा। शायद उसने आज की उपासना पूर्ण कर ली थी। मुड़ने पर एकाएक वह अपनी आँखों पर विश्वास न कर सका दो-चार बार पलकें झपकीं। तो क्या बापू स्वयं? दिल की धड़कने तेज हो गई?

इस तरफ आ जाओ। कानों के अन्दर चिर परिचित आवाज ने प्रवेश किया। अब तो अविश्वास का कोई सवाल न था। धीरे-धीरे पानी को पार करता हुआ उनके पास आ पहुँचा। “भणशाली! क्यों इतनी तकलीफ उठाते हो?” कहते हुए उन ने अपनी शाल के अन्दर से एक सूखा कपड़ा निकाल उनके शरीर को पोंछना शुरू किया। आहिस्ते-आहिस्ते ताँबे के तार को निकाला जिससे उन्होंने अपने होठों को बींध रखा था। दूसरे क्षण ऊनी खादी का एक मोटा कपड़ा उसे लपेटने को दिया। सम्भवतः वह इसे अपने साथ लेकर चले थे। बच्चे मौन खड़े अपने काका को देख रहे थे।

थोड़ी देर में सब साथ-साथ चल दिये। आश्रम की जानी पहचानी राह पर बच्चे उछलते कूदते भाग चले। आखिर उन्हें अपना विजय सन्देश सुनने की जल्दी जो थी। भणशाली काका को डिगाना और हिमालय को डिगाना एक। पर बापू की सहायता से सब कुछ...। देखते-देखते बालकों का समूह ओझल हो गया।

इधर बापू कह रहे थे “भणशाली जिद छोड़ो’ तपस्या हठ नहीं जीवन का शोधन है। वही तो करने की कोशिश कर रहा हूँ। शब्दों में बिंधे होठों का कष्ट सना था। जवाब में बापू ने वात्सल्य भरी झिड़की दी फिर वही बच्चों वाली बात, लगता है तुम लड़कों को पढ़ाते-पढ़ाते लड़के हो गए, जिद्दी लड़के। भले आदमी! रात भर पानी की नाँद में लेटने, तपती बालू में पड़े रहने, होंठ सिलवा लेने से जीवन का शोधन कैसे होगा? उत्तर में एक चुप्पी थी, जिसे तोड़ते हुए गाँधी जी की वाग्धारा पुनः बह चली। “जिस जीवन का परिष्कार कर सैकड़ों-हजारों लाखों क्षत-विक्षत जिन्दगियों में नये प्राण फूँके जा सकते हैं, जो परिष्कृत जीवन सहस्रों सहस्र नर पशुओं को देव मानव की दीक्षा देने में समर्थ है उसी को तिल-तिल करके गलाना परमात्मा की दिव्य धरोहर का अपमान नहीं तो और क्या हैं?”

वे बोल उठे “बापू मैं तो शास्त्र विधान के अनुसार तप..।” वाक्य पूरा होने के पूर्व गाँधी जी ने टोका “शास्त्रों में गीता को पढ़ना भूल गए क्या?, जिसके सत्रहवें अध्याय में इस शरीर यातना को अविवेकियों के द्वारा किया जाने वाला आसुर कर्म कहा है। घर छोड़ो-जंगल भागो, कमरे छोड़ो-गुफा ढूंढ़ो। मनस्वियों के इसी पलायन धर्म के कारण विधाता के विश्व उद्यान का बंटाधार हुआ है। जिस बगीचे के माली भाग जाएं तो परिणाम जानते हो बगीचे और मालियों का, गाँधी ने तीव्र बेधक दृष्टि से उनकी आँखों में झाँका। कुछ पल एक कर शिक्षक के स्वर में बोले बगीचे को बनैले पशु रौंदेंगे। हँसते-खिलखिलाते फूलों को कुचले-मसले जाने के लिए विवश होना पड़ेगा और तप के नाम पर युग धर्म से मुख मोड़ने वाले इन पलायन धर्मियों को आत्मग्लानि के तुषानल में जन्म-जन्मांतर तक झुलसना पड़ेगा। आज अपने देश की दुर्दशा, उसके जिस्म पर हो रहे सहस्रशः आघातों का एक मात्र कारण इसके मालियों का पलायनवाद है।” बापू के स्वर गाम्भीर्य ने उसे सहमा दिया। मानवता के लिए उनके दिल में अहर्निशि उठने वाली घुमड़न से वह अपरिचित न था पर...।

शायद उन्होंने अपने स्वर की तीव्रता स्वयं अनुभव कर ली। इसी कारण अपने को अपेक्षाकृत सहज करते हुए कहने लगे। योगेश्वर कृष्णा तप की व्याख्या करते हुए कहते हैं शरीर का तप है सेवा के लिए श्रम। वाणी का तप है सत्य प्रिय हितकारक वचन और मन का तप है सौम्यता व विचारशीलता। हठ छोड़कर इसे अँगीकार करो-बदलो अपने मन की प्रवृत्तियों को।

वार्तालाप के क्रम में नदी से आश्रम का रास्ता कब पूरा हुआ इसका दोनों में से किसी को भान तक न होने पाया। उस दिन से प्रारम्भ हुआ उनका यथार्थ तप। हरिजन यंग इण्डिया का सम्पादन हो अथवा आटा चक्की चलाना, पूर्ण तन्मयता से आश्रम के हर छोटे-बड़े काम करते रहते। आश्रमवासी उनके इस परिवर्तित स्वरूप को देखकर चकित थे। 1942 के अगस्त महीने में महिलाओं के रक्षणार्थ किए गए उनके सत्याग्रह ने सारे देश को चकित कर दिया। चिमूर स्थान में किए गए इस सत्याग्रह पर स्वयं गाँधी जी कह उठे जय कृष्ण प्रभुदास भणसाली ने मेरा सिर दुनिया में ऊँचा कर दिया। युगधर्म के निर्वाह के लिए ‘कष्ट सहिष्णुता ही तप है।’ इसी आदर्श के निर्वाह में उनका जीवन बीता। कालप्रवाह के बदले स्वरूप में आज हमारी बारी है। इस तप का निर्वाह कर अपने मार्ग दर्शक का सिर ऊँचा करने की। ब्राह्मणोचित जीवन जी कर, ब्रह्म बीज की तरह गलकर सारी विश्वसुधा को ब्रह्म कमलों से सन्निहित कर दिया।


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