मनुष्य! तू महान है

March 1989

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योगवाशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ ने राम को उपदिष्ट करते हुए कहा है कि-मनुष्य से श्रेष्ठ इस संसार में दूसरा कोई अन्य प्राणी नहीं है। निश्चित ही यह वरीसता मानव को उसकी दैहिक विशिष्टता के कारण कम अन्तराल की विशालता-विशिष्टता के कारण अधिक मिली है। करुणा, उदारता, साहसिकता, नैतिकता, सहृदयता, स्नेह-सौजन्य आदि सद्गुणों से ओत-प्रोत मानवी अन्तःकरण अवसर पाकर प्रस्फुटित होता और अन्यायों को अपने भाव तरंगों से आप्लावित-आच्छादित करता रहता है। इतर प्राणियों में इसके दर्शन नहीं होते। उच्चस्तरीय विचारणाओं-भावनाओं को गुण, कर्म, स्वभाव में समाहित करने तथा उन्हें व्यवहार के माध्यम ये प्रकट कर सकने की क्षमता मनुष्य में ही है। सृष्टा के विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुन्दर समुन्नत बनाने में केवल वही सक्षम है। इसलिए मनुष्य को ईश्वर का वरिष्ठ राजकुमार कहा और धरती पर उसका उत्तराधिकारी माना गया हैं।

मनुष्य जन्म की श्रेष्ठता को प्रायः सभी धर्मों में मनीषियों ने एक मत से स्वीकारा है। सुप्रसिद्ध मानवता वादी विचारक कोरलिस लेमोण्ट ने अपनी पुस्तक ‘‘हयूमैनिज्म ऐजएफिलसफी” में कहा है -विश्व में आश्चर्य अनेक हैं, उनमें सबसे बड़ा आश्चर्य मनुष्य हैं प्रकृति की उससे महान कृति इस संसार में दूसरी नहीं। लेमोण्ट का यह कथन वस्तुतः ऋषि प्रणीत उस दार्शनिक प्रतिपादन की ही पुष्टि करता है जिसमें कहा गया है मनुष्य सृष्टा की सुकृति है, एक अनुपम अद्वितीय संरचना है जिसके अंतराल में महान संभावनाओं के बीज सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं। ऐतरेय उपनिषद् (213) में जहाँ मानव अपने रचनाकार की -विश्व शक्ति की सुकृति है वहीं शतपथ ब्राह्मण 2-5-111 में उसे नारायण के समीप बताया गया है। ऋषि प्रणीत आर्ष ग्रंथों की तरह बाइबिल के जेनेसिस 213, 61291, 512 से 716 में मनुष्य जन्म की विशिष्टता अद्वितीयता का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसी तरह कुरान के सूरा 2 व 35135 में स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधि है। इसी धर्म ग्रंथ के सूरा 15/7, 67/3, एवं 80/16 में कहा गया है कि अल्लाह ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ आकार प्रदान किया है। तात्पर्य यह कि अपने सृष्टा को मस्त विभूतियाँ- सूक्ष्मशक्तियाँ बीज रूप में प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित है। इस तथ्य को यदि हृदयंगम किया और उन्हें जाग्रत करने का पुरुषार्थ किया जा सके तो निश्चित ही मनुष्य श्रेष्ठ है।

मूर्धन्य मनीषी पू गोपीनाथ कवि राज ने अपने एक शोध निबन्ध “मनुष्यत्व” में इसी तथ्य को प्रति पादित किया है कि प्राचीन ऋषि प्रणीत शास्त्रों में ही नहीं अन्याय देशों के धर्म शास्त्रों में भी इतर-प्राणियों को जीव देह की अपेक्षा मानव देह को अधिक उत्कृष्ट माना गया है। आचार्य शंकर ने मनुष्यत्व मुमुक्षुत्व एवं महापुरुष संश्रय को अपनी कृति “विवेकचूड़ामणि” में अति दुर्लभ बताते हुए मनुष्यत्व को प्रथम स्थान प्रदान किया है।

जैन धर्म में भी मनुष्य जन्म की महत्ता का वर्णन आता है। उनकी मान्यता है कि यह शुभ का लक्षण है क्योंकि इसका उदय शुभ की सिद्धि के लिए हैं इस विषय में भगवान महावीर उत्तराध्ययन सूत्र 3/6 में कहते है कि जब अशुभ कर्मों का विनाश होता है, तभी आत्मा शुद्ध निर्मल ओर पवित्र करती है और प्राणी मनुष्य योनि को प्राप्त होता है इसी ग्रंथ के एक अन्य सूत्र 10/5 में तीर्थंकर महावीर कहते हैं संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर उधर भटकने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है वह उपलब्धता सहज नहीं हैं। बौद्ध धर्म में इसी तथ्य को प्रति पादित करते हुए कहा गया है कि मानव रूप प्राप्त होने पर सत्य ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धत्व कर प्राप्ति इसी शरीर में संभव है। नैतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास करते हुए निर्वाण स्थिति तक पहुँचना इसी शरीर में संभव है, किसी श्रद्धालु को यह सहज स्वीकार्य भले ही हो, किन्तु सत्यान्वेषी बुद्धि उसे तब तक किंचित मात्र भी स्वीकार न करेगी जब तक उसे क्यों का प्रत्युत्तर तर्क, तथ्य व प्रमाण सम्मत न प्राप्त हो। यह प्राप्ति आवश्यक भी है अन्यथा उपरोक्त स्वीकारोक्ति अंधश्रद्धा मात्र बन कर रह जायेगी।

इस क्यों का विश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करते हुए महर्षि अरविंद अपनी अनुपम कृति “द लाइफ डिवाइन” में कहते है कि जीवन एक सार्वभौमिक शक्ति का रूप एक गतिशील प्रेक्षण है। यह उस परम चेतना की सतत क्रिया अथवा क्रीड़ा–कल्लोल है जो विभिन्न रूपों में क्रियाशील दिखती है।

यह प्रक्रिया मनुष्य सहित समस्त मानवेत्तर प्राणियों में समान रूप से गतिमान है। यही कारण है कि सभी जीव नवीन रूप धारण करते हैं। जीवन की निरन्तरता समाप्त नहीं होती। अव्यक्त, अव्यस्थित, मौलिक, निवर्तित अथवा विवर्तित जीवन सर्वत्र है। केवल उसके रूपों एवं व्यवस्थाओं में भिन्नता है। इस दृष्टि से सभी में जन्म, यौवन, वार्धक्य एवं मरण आदि अवस्थाएँ एवं उत्तेजनाओं के प्रति प्रतिक्रिया ही परिलक्षित होती है। परन्तु चेतनात्मक विकास की दृष्टि ये मनुष्य वरिष्ठ ठहरता है। उसका मानसिक विकास, संकल्प शक्ति की अद्भुत सामर्थ्य सम्पन्नता, ज्ञान-विज्ञान को जन्म दे सकने वाली विवेक बुद्धि-प्रज्ञा ऐसी विशिष्टताएं हैं जो इतर प्राणियों में किंचित मात्र भी नहीं देखी जाती। यह श्रेष्ठता ही मनुष्य को अन्यायों से अलग कोटि में रखती है। श्री अरविंद के अनुसार शक्ति की अभिव्यक्ति की उच्चता के अनुरूप मानव में समूचा संगठन भी उच्चतम कोटि का विनिर्मित हुआ है। शारीरिक संरचना, स्नायु संस्थान की एवं अंतःस्रावी विशिष्टताएं प्राणिक संघटन, मानसिक क्रिया विज्ञान, सूक्ष्म भाव संस्थान आदि अपने आप में अनेकों विशेषताएँ लिए हुए है।

जड़ पदार्थ में जीवन अचेतन रूप से क्रियाशील चेतना शक्ति के रूप में संगठित हुआ है। इस प्रक्रिया की त्रिविध अवस्थाएँ हैं - जड़ जीवन, प्राणात्मक जीवन और मानसिक जीवन। इसे अवचेतन, चेतन व आत्म चेतन के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है। निम्नतम वह है-जिसमें स्पन्दन अभी भी जड़ की निद्रा में पूर्णतया अवचेतन है और पूर्णतया यंत्रवत प्रतीत होता हों। उदाहरणार्थ परमाणविक संरचना में इलेक्ट्रान प्रोटोन आदि कणों की गति। मध्यम स्थिति वह है जिसमें वह एक प्रतिक्रिया के योग्य हो जाता है जो अब भी अधिमानसिक है परन्तु उसकी सीमा पर है जिसको हम चेतना कहते हैं। विभिन्न पादपों एवं कनिष्ठ मनुष्येत्तर प्राणियों में इस के विविध स्तर दृश्यमान होते हैं। सर्वोच्च स्तर में जीवन मानसिक प्रत्यक्ष क योग संवेदन के रूप में चेतन मानसिकता का विकास करता है जो इन्द्रिय, मन, बुद्धि के विकास का आधार बनता है।

इस तरह जीवन त्रिविध अवस्थाओं में से हो गुजर कर गतिमान होता है। अपने प्रारम्भिक स्तर में वह एक विभाजित और अवचेतन संकल्प है। मध्य में मृत्यु, इच्छा, एवं सामर्थ्य हीनता जो कि वातावरण के अनुरूप आत्मा के विस्तार, अधिकार तथा नियंत्रण की ओर अस्तित्व के लिए संघर्ष को प्रेरित करता है। यह पशुओं में पाई जाने वाली उसी स्थिति का वर्णन है जिसका वर्णन डार्विन ने किया है। किन्तु यह मध्यवर्ती स्थिति मात्र है, जिसे डार्विन समग्र मान बैठे इसके पश्चात् मानस का परिपक्व स्तर आता है जो मनुष्य की अपनी विशिष्टता है। जैसे जैसे मानव कस अतिमानस की और प्रगतिक्रम बढ़ता जाता है अर्थात् विचारणा भावना में गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश होता जाता है। इसी अनुपात से आत्मरक्षा और संघर्ष की प्रवृत्तियाँ तिरोहित होती चली जाती हैं उनका स्थान प्रेम, सहयोग और पारस्परिक सेवा सहायता जैसी सद्प्रवृत्तियाँ लेती हैं। क्रमशः यह परिवर्तन अधिकाधिक परिष्कृत, सार्वभौमिक तथा आध्यात्मिक बनता जाता है और मानव को पूर्णता की मंजिल समीप दीखने लगती है। मानवेत्तर जीवों में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

डार्विन के संघर्ष का प्रयत्न मध्यवर्ती स्थिति में है न कि सर्वोच्च स्थिति में। मनुष्य इस मध्यवर्ती स्थिति को पार कर चुका है और उस स्थिति में आ गया है जहाँ संघर्ष नहीं सहयोग की भावना प्रबल होती है। जड़ से जीवन श्रेष्ठ है और उससे भी उच्चस्तरीय मानस की परिपक्व अवस्था प्राप्त मानवी चेतना श्रेष्ठ है। जिन्हें अपनी गौरव गरिमा का ज्ञान नहीं है अथवा जिनकी मानसिक चेतना विकसित नहीं हुई है, उनके लिए शास्त्रोक्त वचन-”मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति “अर्थात् मनुष्य के रूप में पशु के विचरण करने का प्रतिपादन ही सटीक बैठता है।

मन तंत्र की प्रधानता-परिपक्वता ही वह आधार है जिसके द्वारा अतिमानसिक स्तर तक मनुष्य अपना विकास कर सकता है। तुच्छता से महानता की ओर अग्रसर हो सकता है। चेतना के निम्नस्तर स्तरों से उच्चतम आयामों की और आरोहण कर सकने की योग्यता क कारण ही उसे सृष्टि का मुकुटमणि कहा गया है। चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस के शब्दों में मानव इस विश्व का सूत्र है। यदि समाधान कर लिया जाय। तो वहीं सर्वश्रेष्ठ स्थिति होगी। उनके अनुसार मनुष्य ईश्वर से तनिक ही नीचे हे। पाश्चात्य चिन्तक पास्कल ने अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि सृष्टि में मानव जीवन सर्वोत्तम इसलिए माना गया है कि वह मनचाही दिशा में अपना विकास कर सकता है ख्यातिलब्ध दार्शनिक एल्डुअस हक्सले अपने ग्रंथ- “द पेरीनियल फिलासफी” में उपरोक्त तथ्य स सहमति व्यक्त करते हुए बताते है कि मानव की इसी प्रधानता तथा आदर प्रदान किया जाता रहा है। अमरीकी समाज शास्त्री अर्नेस्ट कैकसरर ने अपनी कृति ऐन ऐसे ऑन मैन में कहा है कि ईश्वर ने मानव को अपने ही प्रति रूप में बनाया है वह अपनी विकास यात्रा पूर्ण करके उसके समरूप हो सकता है।


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