भावनाओं को ऊर्ध्वगामी बनाया जाय

March 1989

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मानवीय जीवन की बाह्य गतिविधियाँ व विविध क्रिया माप अन्तराल की जिन हलचलों से संचालित हो तदनुरूप क्रियान्वित होते हैं, ..... षियों ने उसे भावना का नाम दिया है। यह भावना विचारणा के रूप में परिपक्व होती तथा क्रिया के रूप में अपनी अभिव्यक्ति करती है।

मनस्तत्वविदों ने अपने अध्ययन में स्पष्ट किया है कि भावनाओं का उद्गम क्षेत्र मनुष्य का अपना अन्तराल है। सम्मिश्रित क्रिया के आधार पर इनकी ब्राह्माभिव्यक्ति होती है। इस सम्मिश्रित प्रक्रिया के आधार पर ही इनके दो वर्ग किये गये है, सद्भावनाएँ व दुर्भावनाएँ। इनकी परिपक्वावस्था के इसी तरह दो रूप है- सद्विचार, दुर्विचार। परिपक्वता के बाद इनकी अभिव्यक्ति भी विविध रूपों में होती है, सत्कर्म-दुष्कर्म।

मनःशास्त्रियों तथा व्यवहार विज्ञानियों ने अपने व्यापक अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि यदि भावनाओं को परिष्कृत करना सम्भव बन पड़े तो व्यवहार भी उन्नत और प्रखर बन पड़ेगा। अध्येताओं ने बताया है, कि विकास की प्रक्रिया के अनुरूप भावात्मक क्षेत्र का विकसित होना भी अनिवार्य हैं।

अल्बर्ट आइन्स्टीन कॉलेज आफ मेडिसिन, न्यूयार्क में साइकियाट्री के प्राध्यापक तथा ‘प्रोग्राम इवाल्यूशन एण्ड क्लीनिकल्रिसर्च’ के निदेशक राबर्ट प्लुतचिक अपनी कृति “ए जनरल साहकोइवल्यूशनरी थ्योरी आफ इमोशन” में बताते है कि भावनात्मक विकास की सामान्य गति पशुत्व से मनुष्य की ओर होती है। पाशविक भावनाओं का जिक्र करते हुए फिलाडेल्फिया के डी.ओ.एवं. “ द बुक आफ साइकोलॉजी” में कहते है पशुओं में भावनाओं का दायरा प्रायः कामुकता, घृणा, द्वेष, संतान के प्रति मोह आदि तक सीमित रहता है। इसी के अनुरूप उसकी अभिव्यक्ति अपनी जनसंख्या में वृद्धि करने भोजन खोजने आदि में होती है। डार्विन ने पशु व्यवहार की व्याख्या इसी परिधि में की है।

विकास के परिणाम स्वरूप मनुष्य स्तर पर भावनात्मक व व्यवहारिक क्षेत्र भी विकसित होते है। किन्तु इस विकास के दौरान यह पाशविक संस्कार पूर्णतया नष्ट नहीं होते अपितु अवशेषी रूप में मन के अवचेतन स्तर में सतत् बने रहते है।

मनोविद फ्रायड ने इसी कारण अवचेतन को गतिशील और आदिम कहा है। इसको उसने दमित इच्छाओं और स्मृतियों का भण्डार बता कर मानव को बर्बर, बालक और पशु का प्रतिनिधि के रूप में निरूपित किया है। फ्रायड की सीमित दायरे में सिमटी खोज को मनोविज्ञानी जूँग न और अधिक फैलाया है। उनके अनुसार अचेतन व्यक्तिगत भी और सामूहिक भी है। व्यक्तिगत अचेतन में फ्रायड के अधोचेतन अवचेतन सम्मिलित है। सामूहिक अचेतन में मूल प्रवृत्तियाँ एवं आर्चीटाइप्स है।

फ्रायड की अध्ययन की सीमा बद्धता इस कारण है कि उसने समूचे मानवीय व्यवहार को इसी अचेतन क्षेत्र से उपजी पाशविक भावनाओं के द्वारा, संचालित बताया है। इसी को उसने मानवीय प्रकृति कहा है जबकि वह मानवीय प्रकृति न होकर इस में उत्पन्न विकृति है। कार्लजुँग ने उनकी विवेचना की संकीर्णता का कारण स्पष्ट करते हुए कहा है कि फ्रायड ने चूँकि सारे विकृति मानसिकता वाले मानोरोगियों का अध्ययन किया इसी कारण वह मात्र इसी पक्ष देख सके।

तथ्य भी है अचेतन क्षेत्र जिसमें अवशेषी पाशविक संस्कार हैं, बाह्य उद्दीपन प्राप्त होने पर पाशविक भावनाओं को जन्म देते है। तद्नुरूप विचारणा व क्रिया में भी पाशविकता की झलक दिखाई देती है।

श्री अरविन्द ने इस स्तर को अचेतन कहा है। उनके अनुसार यह अवचेतन सभी परिवर्तनों का विरोध करता है। वह उस आलस्य, दुर्बलता, अस्पष्टता, अज्ञान कोसता को स्थिर रखता और वापस लाता है जो कि भौतिक शरीर मानव और प्राण को प्रभावित करता है, अथवा छिपे हुए भय इच्छाओं, क्रोध और वासनाओं को जाग्रत करता है।

फ्रायड अपना मनोविज्ञान इसी क्षेत्र तक सीमित कर दिया है। अवचेतन स्तर के उपर्युक्त परिणाम बाह्य उद्दीपनों की सम्मिश्रित क्रिया के बाद ही घटित होते है। इसी स्तर में निहित पाशविक संस्कारों को नष्ट करने की प्रक्रिया भारतीय चिन्तन में मानसिक विकास के नाम से जानी जाती है। इसी विनष्टीकरण की प्रक्रिया को वेदान्त ने मनोदशा का नाम दिया।

मनोविश्लेषण वादी यह मानते है कि यौन वासनाओं व कला, धर्म साहित्य का एक ही समान क्षेत्र अचेतन है। इस विरोधाभासपूर्ण उक्ति का समाधान और औचित्य पूर्व दिशा दर्शन देते हुए श्री अरविंद स्पष्ट करते है कि मानव जीवन कर उच्चतर प्रक्रियाएँ कला, धार्मिक व गुह्य अनुभव अतिचेतन स्तर से संबंधित है। वे “पैसेज आफ योग” में बताते है अवचेतन नहीं अतिचेतन ही वस्तुओं का यथार्थ आधार है। वस्तुतः यही हमारी वास्तविक प्रकृति है।

किन्तु वर्तमान परिवेश में भावनात्मक स्तर व्यवहारिक क्रियाकलापों पर दृष्टि डालने से स्पष्ट होता है कि इनका संचालन क्षेत्र अवचेतन होकर रह गया है। इसका एकमात्र कारण है-तद्नुरूप बाह्य उद्दीपनों की भरमार। सिनेमा और टेलीविजन द्वारा नंगे फूहड़ दृश्यांकन, अश्लील साहित्य की बाढ़ चारों तरफ व्याप रहा प्रदूषित व तनाव पूर्ण वातावरण जो अवचेतन के इन्हीं पशु संस्कारों को उद्दीप्त कर ऐसी भावनाओं का सृजन कर रहा है जिसे दुर्भावनाओं की संज्ञा दी जानी उचित है। परिणाम स्वरूप दुर्विचार दुश्चिन्तन में अभिवृद्धि हो रही है एवं दुष्कर्म ही अवाय गति से मानव स्वभाव के अंग बनते रहे है।

मनोविदों ने भावनाओं की इस गति को रिट्रोग्रेसिव नाम दिया है। जिसका सीधा तात्पर्य है मनुष्य का पशुत्व को ओर उन्मुख होना। यदि यह गति देवत्व की ओर होती है तो इसे प्रोगेसिव कहा जाता है। किन्तु स्थिति की विपरीतता के कारण प्रथम लक्षण अधिक उभरता दिखाई देता है।

भौतिक वादी सभ्यता जिस राष्ट्र, जिस समाज व जिस क्षेत्र में जितनी अधिक बढ़ी है उतने ही अधिक अवाँछनीय उद्दीपन जन मानस के अवचेतन स्तर को प्राप्त हुए है। तद्नुरूप विचार और व्यवहार भी अधोमुखी बना है। मनो विज्ञानियों ने भारत की स्थिति का सर्वेक्षण करने के उपरान्त बताया है कि यहाँ के बड़े नगर जो भौतिकता की दृष्टि से उन्नत व सक्षम माने जाते है उसी अनुपात में पाशविक उद्दीपन निस्सृत कर रहे है। अवचेतन के ऊपर इनकी क्रिया उसी के अनुपात में पाशविक घटनाओं, अपराधों की बाढ़ पैदा कर रही है।

मनःशास्त्री इराप्रोगोफ ने अपने ग्रंथ -”साइकोलॉजी .... ए रोड टू पर्सनल फिलासफी” में कहा हैं कि भोगवादी संस्कृति जिस गति से बढ़ेगी उसी गति से जन मानस का उद्दीपन प्राप्त करता रहेगा। परिणाम स्वरूप विचारणीय क्रिया भी पशुत्व की ओर करेगी। ऐसी स्थिति में हिंसा अपराध विघटन बढ़ते ही रहेंगे। इनको रोकने के लिए किए जा रहे सभी उपाय उसी तरह सिद्ध होंगे जैसे पेड़ को बचाने के लिए उसकी जड़ को न सींच कर खाद्य पानी पत्तियों को देकर उन्हें हरा भरा रखने का प्रयत्न करना। भावनाओं की इस रिट्रोग्रेसिव गति के कारण मानव समुदाय पुनः पशुओं के झुण्ड के रूप में परिवर्तित हो जाएगा। अतः यह आवश्यक हो गया है कि जन मानस के चिन्तन की उल्टी दिशाधारा को उलट कर सीधा किया जाये। उसे सही दिशा में सोचने और करने का विवश किया जाये। भावनाओं के परिष्कार में ही उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ निहित है।


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