उत्थान और पतन अपनी इच्छा पर निर्भर

March 1989

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मनुष्यता भू लोक है। इस धरती के श्रेष्ठ नागरिक बन कर मानवीय कर्तव्यों को पूरा करते हुए हम भू लोक वासी सुर दुर्लभ मानव योनि का प्राणी कहला सकने का गर्व और गौरव अनुभव कर सकते हैं।

इससे ऊँचे लोक में जाने की इच्छा हो, स्वर्ग को पाने और उसमें रहने की इच्छा हो, तो हमें ऊँचा उठना होगा। कर्तव्यनिष्ठ नागरिक मात्र रतन भर से सन्तुष्ट न होकर करुणा और ममता का विकास करना होगा। पुण्य और परमार्थ अपनाना होगा। अपना चरित्र उस मार्ग-दर्शक स्तम्भ के रूप में विनिर्मित करना होगा जिसके प्रकाश में अगणित लोग सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें।

आत्म-निर्माण मानवी कर्तव्य है, पर देव भूमिका की प्राप्ति आत्म-विकास से ही सम्भव है। अपनी अहन्ता जब संकीर्णता के बंधन तोड़ती हुई विशाल व्यापक बनती है, लोक-कल्याण ही आत्म-कल्याण लगता है, तब समझना चाहिए हम देव बने। देवताओं के लिए ही स्वर्ग बना है। हमारा विकसित देवत्व निश्चित रूप से हमें वहाँ पहुँचा देगा, जिसे स्वर्ग कहा जाता है। स्वर्ग ऊपर है, वहाँ पहुँचने के लिए ऊँचा उठना ही पड़ेगा। चरित्र, दृष्टिकोण और कर्म तीनों को ऊँचा उठाते हुए कोई भी व्यक्ति स्वर्ग के राज्य में सरलता पूर्वक प्रवेश कर सकता है।

नरक में जाने की इच्छा हो तो वह भी पूर्णतया अपने हाथ की बात है। नरक नीचे है। उसे अधः लोक कहते है। पतित जीवन जीने वाले, पतित दृष्टिकोण अपनाने वाले और पतित कर्म करने वाले अपने समग्र अधःपतन के के कारण सहज ही नरक पहुँच सकते हैं।

नीति और सदाचरण की मर्यादाओं का उल्लंघन - कर्तव्य धर्म की उपेक्षा, दूसरे के प्रति निष्ठुरता और दुष्टता का व्यवहार, इन्द्रियों का स्वेच्छाचार, मन की कुटिलता जिसने अपना ली, उसे नरक तक पहुँचने में कोई रुकावट नहीं रहती। वह फिसलता हुआ, उस स्थान तक स्वतः पहुँच जाता है, जिसे नरक कहा जाता है और जहाँ की असंख्य यंत्रणाओं का वीभत्स वर्णन किया जाता है।

मनुष्य को सर्वोपरि सम्पदा विचारणा की शक्ति के रूप में मिली हुई है। विचार-बल संसार का सर्व श्रेष्ठ बल है। पशु निर्विचार होता हैं इसलिये वे परस्पर अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान नहीं कर सकते, उनकी कोई लिपि नहीं, भाषा नहीं। वे अपने प्रति किये जा रहे, अत्याचारों का प्रतिवाद भी नहीं कर सकते। इसलिए शारीरिक शक्ति में मनुष्य से अधिक सक्षम होते हुए भी वे पराधीन हैं। विचार शक्ति के अभाव में उनका जीवन क्रम एक बहुत छोटी सीमा में अवरुद्ध बना पड़ा रहता है।

विश्रृंखलित, ऊबड़ खाबड़ धरती को क्रमबद्ध व सुसज्जित रूप देने का श्रेय मनुष्य को है। घर, गाँव, शहर आदि की रचना सुविधा और व्यवस्था की दृष्टि से कितनी अनुकूल हैं। अपनी इच्छायें, भावनायें दूसरों से प्रकट करने के लिए भाषा-साहित्य और लिपि की महत्ता किससे छिपी है। आध्यात्मिक अभिव्यक्ति और साँसारिक आहृद प्राप्त करने के लिए कला-कौशल, लेखन, प्रकाशन की कितनी सुविधायें आज उपलब्ध है। यह सब मनुष्य की विचार शक्ति का परिणाम है। सृष्टि को सुन्दर रूप मिला है तो वह भी मनुष्य की विचार-शक्ति का ही प्रतिफल है।

विचारों की विशिष्ट शक्ति का स्वामी होते भी मनुष्य का जीवन निरुद्देश्य दिखाई दे तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जायगा जिसके कार्या में कोई सूझ न हो, विशिष्ट आधार न हो उस जीवन! को पशु जीवन कहें तो इसमें अतिशयोक्ति क्या है?

सूर्य प्रतिदिन आसमान में आता है और लोगों को प्रकाश, गर्मी और जीवन देने का अपना लक्ष्य पूरा करता रहता है। वृक्ष, वनस्पति, वायु जल, समुद्र, नदियाँ सभी किसी न किसी लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं। इस संसार में यह व्यवस्था है, तभी तो प्रत्येक वस्तु प्रत्येक पदार्थ अपनी अवस्था के अनुसार अपने कर्तव्य कर्म पर स्थित है। सोद्देश्य जीवन ही मानवोचित जिया जाने वाला जीवन है अपने निर्धारण ही उसे ऊँचा उठाते व गिराते है।


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