परोक्ष जगत में बहते सशक्त प्रवाह

March 1989

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यों हर मनुष्य की गतिविधियाँ अपना प्रभाव वातावरण पर छोड़ती है पर उनमें से प्रतिभाओं के बढ़े प्राण की मात्रा प्रचलन प्रवाह विनिर्मित करने में विशेष भूमिका निभाती है। जिन दिनों ऋषि मुनियों का, तपस्वी मनीषियों का साधु ब्राह्मणों का युग था, उन दिनों उनकी संयुक्त समरस गतिविधियाँ ऐसा वातावरण बनाती थी कि उसके प्रवाह में सर्व साधारण को अपनी गतिविधियों में शालीनता सहकारिता जैसे तत्व भरने पड़ते थे। सर्वत्र स्नेह सौजन्य की धारा बहती थी। मध्यकाल में जब सामन्ती रौब–दौब था, तब न केवल उनके मुसाफिर जमींदारों ने वैसा ही तौर तरीका अपनाया वरन् साधारण प्रजाजन भी उसी की नकल बनाने लग। बड़ों का आतंक छोटों के लिए सहज स्वाभाविक बन गया। अंग्रेजी शासन में बड़ों का अनुकरण करते हुए सामान्य लोगों ने भी वैसी ही वेश भूषा पहनना आरम्भ कर दी। उसी भाषा को बोलने में रुचि दिखाई। आहार-विहार में भी वही अनुकृति सहज स्थान पाती चली गई यह फिल्मों का जमाना है, इन दिनों हर युवक-युवती पर वैसा ही स्वभाव एवं रहन सहन व्यवहार अपनाने की उतावली पड़ी हुई है। बुद्ध, ईसा, गाँधी की भी अपने-अपने समय में प्रचण्ड लहरें चली थी और उनसे बहुत बड़ा जन समुदाय प्रभावित होता चला गया।

अमीरी का नशा सम्पन्नता के क्षेत्रों में उद्भूत हुआ है। मालदारों के ठाट बाट, रहन सहन, श्रृंगार, सज्जा, अपव्यय, दुर्व्यसन जन साधारण के द्वारा अपनाये जा रहे है ताकि वे भी इस आधार पर धनी मानी समझे जाने की लालसा किसी प्रकार पूरी कर सकें। अन्य अवसरों पर तो उतना नहीं होता पर विवाह शादियों के दिनों यह ललक चरम सीमा तक पहुँच जाती है। दुल्हन के लिए बड़े जेवरों की ऐसी सज्जा सजाई जाती है मानों वह किसी करोड़ पति की बेटी हो और ससुराल वाले कुबेर के खानदान वाले हों। बारात की सज धज, महंगे प्रीतिभोज, बैंड, आतिशबाजी आदि में पैसा इस तरह उछाला जाता है मानों इन लोगों के घरों में सोने चाँदी के खजाने गढ़े हो। दहेज भी इस प्रकार माँगा जाता है मानो देने वाला जो चाहा जाय वही देने में समर्थ है। इसे एक प्रकार का उन्माद ही कह सकते है, जो विवाह शादी के दिनों चरम सीमा पर देखा जाता है पर उसकी खुमारी आगे पीछे भी बनी रहती है।

कामुक दृष्टिकोण भी अब नशेबाजों की तरह परस्पर प्रतिस्पर्धा का विषय बनता जा रहा है। देह व्यापार की खुली दुकानें भी कम नहीं है। फिर लुक छुप कर जो होता है उसे तो अति विनाशकारी ही कहा जाता है। नशों पर रोक भी लगती जा रही है, दूसरे उन्हें महँगा भी किया जा रहा है फिर भी उसकी खपत के आँकड़े तूफानी गति से ऊपर उठते जा रहे है।

यह सब क्या है? इसे एक प्रकार से प्रचलन प्रवाह की चित्र-विचित्र धाराएँ ही कहा जा सकता है। जो कुछ प्रतिभावानों द्वारा चलाई जाती है और उन्हें सामान्य जन आँखें मूंदकर अपनाते गले उतारते जाते है। सम्प्रदायों और दार्शनिक राजनैतिकवादों को छोड़ने अपनाने में भी समय पर अदृश्य प्रवाह चलते है। जब तक उनके पीछे प्रेरणाएं रहती है तब तक वे गतिशील भी रहते है।

वन प्रदेशों में रहने वाले आदिवासी अभी भी ऐसी परम्पराओं को अपनाते देखे जाते है जो इतिहास की दृष्टि से सदियों पुरानी और विचारशीलों की दृष्टि से सर्वथा निरर्थक हो गयी। फिर भी उन कबीलों के क्षेत्र में इस प्रकार जड़ जमाये हुए है मानों उनके विश्वास ही सनातन धर्म है। अन्यत्र भी ऐसी ही अनेक प्रकार की परम्पराएँ विद्यमान हैं और समर्थन प्राप्त किए हुए है जिन्हें विवेक की कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त उनकी कुछ भी उपयोगिता सिद्ध नहीं होती। धर्म सम्प्रदाय भी अपने समय की प्रचण्ड लहर के रूप में अनेक लोगों द्वारा अपनाये जाते है पर दूसरा कोई मोड़ आ जाने पर नये मोड़ पर चल पड़ना भी आश्चर्यजनक ढंग से अपनाया जाने लगता है। चीन क्षेत्र में कभी बौद्ध धर्म का बोलबाला था रूस के प्रभाव क्षेत्र में ईसाई और मुसलमान धर्म का बोलबाला था पर अब वहाँ सर्व साम्यवाद के जय जयकार होते जाते है। अफ्रीकी देशों में पूर्वजों की मान्यता अब कहाँ रही है वहाँ के अधिकांश निवासियों ने सभ्य कहे जाने वाले लोगों द्वारा अपनाये धर्मो को अपनाना आरम्भ कर दिया है।

उपरोक्त पंक्तियों में विचार प्रवाहों का उल्लेख है जो प्रवाहित तो अदृश्य आकाश में होते पर प्रभावित जन साधारण को करते है। यह ठीक है कि प्रतिभाशाली स्तर के मनुष्य अपनी प्रखरता के आधार पर प्रचंड विचार प्रवाहों को उत्पन्न तथा अग्रगामी करते है पर यह भी गलत नहीं है कि चलते प्रवाह के साथ ढेरों कूड़ा कचरा उसी दिशा में साथ साथ बहता चला जाता है। इसी को “माँब” मेन्टेलिटी या मास मूवमेण्ट कहते है। जब किसी प्रकार के खेल तमाशे चलते है तो देखा देखी जगह-जगह उनकी पुनरावृत्ति होने लगती है। धर्म क्षेत्र में एक उफान संकीर्तनों के प्रवचन का आया था। कभी देवालय बनाने पर लोग अपने को धर्मध्वजी मानते थे। अब राजनैतिक आन्दोलनों का बोलबाला है।

तालाब में ढेला फेंकने पर उसकी लहरें सभी दिशाओं में बहने लगती है। आन्दोलनों के संबंध में भी यही बात है। कभी कभी तो हड़तालें भी दनादन होने लगती है। एक मूर्धन्य द्वारा उठाया गया कदम दूसरों के लिए अनुकरण या प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। नर नारी आये दिन फैशन बदल बदल कर कपड़ों का प्रयोग करते देखे जाते है। यह भी एक प्रकार से हवा का प्रवाह ही है।

राजनेता जब आवश्यक समझते है, जन जन मन में अपने प्रचार माध्यमों से युद्धोन्माद पैदा करते है और आवेश इस सीमा तक उभार देते है कि युद्ध आरम्भ करना उन राजनेताओं की विवशता बन जाती है। साम्प्रदायिक दंगे भी ऐसी ही अफवाहों अथवा तथ्यों के आधार पर उभारे गये आक्रोश के फलस्वरूप ही होते है। चुनावों के समय भी ऐसे ही तनाव उत्पन्न हो जाते है।

यह अदृश्य वातावरण में चलती रहने वाली अनेक प्रकार की प्रवाह धाराओं को शक्ति सामर्थ्य का उल्लेख है। इन दिनों में यही हो रहा है। अवांछनियताओं ने लोक मानस पर बुरी तरह अधिकार जमाया है। बुराई में भलाई की तुलना में अधिक आवेश होता है। इसलिए उसका प्रवाह और भी अधिक तेजी से गति पकड़ लेता है। जबकि भलाई का प्रवाह सौम्य एवं सामान्य गति से ही प्रवाहित होता है। पेट्रोल और बारूद जितनी जल्दी आग पकड़ते है उतनी ज्वलन शक्ति सामान्य पदार्थ में नहीं होती। बुराई तेजी से फैलती है जबकि भलाई की परम्पराओं को अग्रगामी बनाने में समय लगता है और प्रबल प्रयास करना पड़ता है।

दृश्य जगत के प्रयास प्रयत्नों का अपना महत्व है। उसके लिए अनौचित्य को रोकना और औचित्य को बढ़ाना, अनेक रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम अपनाकर सम्पन्न करना पड़ता है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। किया भी जाता है, किया भी जा रहा है। किन्तु साथ ही उस पक्ष को भी नजर अन्दाज नहीं करना चाहिए, जो अदृश्य जगत में चल रहे सूक्ष्म प्रवाहों के कारण दृश्य जगत को जन साधारण को प्रभावित करता है।

इस क्षेत्र के उपायों में जन जीवन में सदाशयता के समुचित समावेश की आवश्यकता है। नीतिनिष्ठा और समाजनिष्ठा को आस्था जगत में व्यवहारिक जीवन में समुचित स्थान मिले ऐसे प्रयत्न करने चाहिए। साथ ही यह भी नहीं भुला दिया जाना चाहिए कि उत्कृष्ट प्रेरणाओं से भरे पूरे आध्यात्मिक स्तर की सामूहिक तप साधनाओं की भी अनिवार्य रूप से आवश्यकता पड़ती है। उनकी उपयोगिता समझी और प्रक्रिया भी अपनायी जानी चाहिए।


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