व्यवस्था बुद्धि के विकास के मूलभूत आधार

March 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आत्म विस्तार के क्रम में प्रथम शरीर, द्वितीय चिन्तन, तीसरे उपयोग में आने वाले साधनों की बारी आती है। इन तीनों के साथ सुव्यवस्थित, सुनियोजित और जागरूक स्तर का दृष्टिकोण रखा जा सकें तो समझना चाहिए कि देखने में जितना मन मोहक संपर्क क्षेत्र लगेगा उससे भी अधिक प्रयोक्ता की वह सूक्ष्म बुद्धि विकसित होती रहेगी, जिसके आधार पर लोग बड़े बनते और बड़े काम सम्पन्न करते है।

गुण, कर्म और स्वभाव को सुसंस्कृत बना लेना ऐसी बड़ी जादुई सफलता है जिसके सहारे शत्रुता बरतने वालों को ठंडा और अन्य मनस्क लोगों को मित्र में परिणित किया जा सकता है। फूल के भीतर से निकलने वाली महक ही मनुष्यों से लेकर तितलियों तक को अपना प्रशंसक बनाती है। दुर्गन्ध जहाँ से उठती है उस स्थान से सभी दूर भागते है। दुर्गुणी व्यक्ति अपने समर्थक, प्रशंसक सहयोगी घटाता जाता है। विरोधी बढ़ते जाते है। ऐसी दशा में मनुष्य घाटे में ही रहता है॥ आग जहाँ भी रहती है सर्व प्रथम उसी को जलाती है। दुर्गुणों के सम्बन्ध में भी यह बात है। वे भले ही प्रत्यक्षतः किसी की उतनी बड़ी हानि न कर सकते हो पर उससे विरोध बैर भाव का वातावरण तो बनता ही है। जिसमें कि किसी को भी, कभी भी कुछ लाभ हुआ नहीं है।

अव्यवस्थित वाणी सबसे अधिक खतरनाक है। निन्दा चुगली से अन्य लोगों के प्रति तो विद्वेष पैदा होता ही है पर अपने स्वयं को भी यह अनुभव होने लगता है कि अपनी कही बात इसके पेट पड़ जाने पर इधर उधर फैले बिना रहेगी नहीं। इस आशंका के कारण उसे अविश्वासी बनकर रहना पड़ता है और कोई स्वजन भी उसके सामने पेट खोलकर बात नहीं करता।

क्रोध, आवेश के द्वारा होने वाली क्षति का हाथों हाथ दुष्परिणाम देखा जा सकता है। कटुवचन और अशिष्ट व्यवहार के रूप में प्रकट होता हैं। यह दोनों ही परस्पर एक दूसरे से बढ़कर है। इनके योग से मिला हुआ कटुभाषण यो दृश्य रूप में तो कोई बड़ी बात प्रतीत नहीं होता पर उसकी परिणति ऐसी होती है जिसके कारण खोदी गयी खाई कदाचित कभी भी न पाटी जा सकें।

शिष्टता और शालीनता का ध्यान रख कर बोली गयी वाणी सदा नम्रता और मधुरता से भरी पूरी ही होती है। इसका प्रभाव बदले हुए तेवरों को यथास्थान लाने में समर्थ होता है। मधुर भाषी लोग वैमनस्य को शान्त करते और सद्भावना का नये सिरे से शुभारम्भ करते देखे गये है। इस बुराई को छोड़ देना और उसे अच्छाई के रूप में बदल लेना यह कुछ ही दिनों के अभ्यास पर निर्भर है। अपने पर नम्रता का आरोपण करते हुए दूसरों को मानवोचित सम्मान प्रदान करते हुए यह सोच समझ कर बिना उतावली अपनाये बोला जाय तो उसका सत्यपरिणाम सुखद प्रतिक्रिया के रूप में परिलक्षित होता देखा जा सकेगा। शिष्टता, सज्जनता, मधुरता जैसी विशेषताओं से संभाषण कर सकना थोड़े दिनों के अभ्यास पर निर्भर है। कटु वचनों को सर्प के दाँत और बिच्छू के डंक के समतुल्य माना जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। जिनमें यह दुर्गुण जितने अंशों में स्वभाव का अंग बन गया हो उन्हें उसका निराकरण करने के लिए तत्काल प्रबल प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिए। यह कौए का कोयल में बगुले का हंस में कायाकल्प हो जाने जैसी कहावत का प्रत्यक्ष दर्शन है। अव्यवस्था का दूसरा नाम है-असंयम, अनुशासन हीनता और उच्छृंखलता भी इसी को कहते है। यही कभी अराजकता जैसी दुर्धर्ष और दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करती देखी गई है। असंयम का स्वरूप होता है उपलब्ध उपयोगी वस्तुओं को निरर्थक या हानिकारक प्रयोजनों में बिखेर देना। इसे स्वेच्छापूर्वक लुटेरों का शिकार होने जैसी मूर्खता भी कहा जा सकता है।

असंयमों में चार प्रमुख है (1) इन्द्रिय असंयम (2) अर्थ असंयम (3) समय असंयम (4) विचार असंयम। समझा जाना चाहिए कि ये चारों ईश्वर प्रदत्त आदि महत्वपूर्ण शक्तियों को बड़े छिद्रों वाले फूटे घड़े में डालकर बहा देने के समान है। यदि इन छिद्रों को बन्द कर दिया जाय तो दैवी अनुकम्पा की तरह निरन्तर बरसती और अन्तराल के उद्गम से उभरती रहने वाली क्षमताओं के भण्डार किसी भी व्यक्ति को अति समर्थ एवं असाधारण कार्य कर सकने योग्य बना सकते है।

देखा यह जाता है कि सामान्य जन चटोरेपन की आदतों में निरत रह कर अपना स्वास्थ्य खोखला कर लेते है। दुर्बल और रोगी रहकर अकाल मृत्यु मरते है। यदि जिह्वा और जननेन्द्रिय को संयम में रखा जा सके तो शरीर समर्थ एवं मन समुन्नत स्तर का बना रहेगा। अर्थ संयम रखा जाय-सादा जीवन उच्च विचार की नीति का परिपालन किया जाय-औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाया जाय तो ईमानदारी से सीमित आजीविका कमाते हुए भी व्यक्ति सुखी और संतुष्ट रह सकता है।

समय ही जीवन है। एक एक क्षण को बहुमूल्य मणि मुक्तक मानकर उसका सदुपयोग करते रहा जाय तो व्यक्ति एक ही जीवन में कई जीवनों जितने महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है। व्यस्त रहने वालों को न तो खुराफातें सूझती है और न कुसंग में पड़कर दुर्व्यसन सीखने की संभावना रहती है।

विचारों की शक्ति असाधारण है। यदि मस्तिष्क में कल्पनायें, आकाँक्षायें, योजनायें उच्च स्तरीय बनती रहें तो पतन की आशंका समाप्त होगी और सर्वतो मुखी अभ्युदय की पृष्ठभूमि बनती चलेगी। विचार ही व्यक्ति को ऊँचा उठाते है। आवश्यक संपर्क बनाते और साधन जुटाते है। इन चारों का असंयम ही व्यक्ति की अगणित क्षमताओं का अपहरण कर लेता है। इन्हें बचाया जा सके तो समझना चाहिए कि लुट जाने वाला वैभव अपने ही हाथों रह गया। अगले ही दिनों उसके बढ़ जाने और बीज से वृक्ष की तरह विस्तार पाने की संभावना से जुड़ गया।

व्यवस्था बनाने व सिखाने के लिए आमतौर से किसी कारखाने, उद्योग, परिसर विभाग आदि की की आवश्यकता पड़ती हे। वह शिक्षार्थी को उपलब्ध होती ही रहे, यह आवश्यक नहीं। फिर जहाँ प्रबन्ध करने के लिए पहुँच गया है, वह आवश्यक साधन एवं सहयोग मिल ही जाय, इसका कोई निश्चय नहीं। ऐसी दशा में यही सबसे सरल पड़ता है कि अपने आप में व्यवस्था प्रक्रिया का अभ्यास किया जाय। अपने शरीर पर अपना पूरा अधिकार है। तनिक सी इच्छा शक्ति का दबाव देते ही उसे कुछ भी करने के लिए तत्पर किया जा सकता है। शरीर सध गया तो समझना चाहिए कि सुदृढ़ स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन का आधार–स्त्रोत हाथ लग गया। पैसे का अपव्यय न हो तो कम कमाने वाला व्यक्ति भी आय के अनुरूप व्यय का बजट बनाकर काम चलाता और सुखी संतुष्ट रह सकता है। समय की बर्बादी न हो तो योग्यता, सम्पादन और साधनों के उपार्जन में आश्चर्यजनक सफलता मिल सकती है। विचारों का उत्पादन हम स्वयं ही करते हे। उसकी लगाम पूरी तरह अपने हाथ है। इस बहुमूल्य पूँजी की अस्त व्यस्त रूप में बिखेरने के स्थान पर यदि उन्हें किन्हीं रचनात्मक कामों में लगाते रहा जाय तो कोई भी व्यक्ति अपने अभीष्ट प्रयोजनों में आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है। महामानवों के जीवन इतिहास इसी तथ्य को साक्षी देते हुए सर्वत्र पाये जायेंगे।

दूसरों को समझाना, संभालना, सुधारना कठिन हो सकता है। पर अपने सुधार परिष्कार में तो मनोबल की कमी के अतिरिक्त और कोई बाधा हो ही नहीं सकती। हिम्मत और दूरदर्शिता को अपनाये रहा जाय तो अपने शरीर और मन को ही नहीं, गुण, कर्म, स्वभाव को भी उच्च स्तरीय बनाने में सफलता मिल सकती है। आदतें बदली और सुधारी जा सकती है। जिस वातावरण में हम रहते है वह अपना ही चुना और पसन्द किया हुआ है। यदि उत्कंठा हो तो उसे पूरी तरह बदला जा सकता है। जिस प्रकार पिछले दिनों हेय स्तर का संपर्क बनाया गया था, उसी प्रकार उच्च स्तरीय वातावरण के साथ भी संपर्क साधा और प्रगति पथ पर बढ़ चलने के लिए उत्साहवर्धक वातावरण में प्रवेश किया जा सकता है। परिष्कृत व्यक्तित्व और वातावरण के साथ जुट जाना ही अभ्युदय की अनेकानेक संभावनाओं से भरा-पूरा रहना है।

काम में आने वाली वस्तुओं को भी अपने लिए परीक्षा के प्रश्नपत्र मानकर चलना चाहिए, जो सदा यह देखते रहते है कि हमें सँभाल कर सँजोकर ठीक तरह देखा गया या नहीं। जिनकी उपेक्षा की गयी है वे कुरूप लगेंगे और समय से पहले ही समाप्त होकर पलायन कर जायेंगे। इसके विपरीत यदि उन्हें सम्मान दिया गया है। संभाल कर सम्मानपूर्वक यथा स्थान रखा गया है तो बदले में वे हाथों हाथ उस सदाशयता को प्रतिफल प्रदान करेंगे। लोगों की आँखों में सुसंस्कारिता की शोभा सज्जा एवं कलाकारिता की छाप बिठायेंगे। बाहर वाले उस स्थान में प्रवेश करते ही यह अनुभव करेंगे कि यहाँ कोई सभ्य, सुसंस्कृत एवं कलाकार स्तर का व्यक्ति निवास करता है। इसके विपरीत बिखरी हुई, बेतरतीब पड़ी वस्तुएँ हर किसी से यह चुगली करती है कि जिसके के यहाँ वह आया है, वह आदत में फूहड़ किस्म का और सभ्यता की कसौटी पर अनपढ़ स्तर का है। भले ही वह पैसे वाला या अधिक पढ़ा लिखा ही क्यों न हो।

परिवार में कई सदस्य रहते है। उन सभी को साफ सुथरा और कायदे करीने का बनाना पड़ता है। उनमें से कुछ ही बेशऊर होते और आने वाले पर पूरे परिवार के सम्बन्ध में बुरी छाप छोड़ते है। ठीक इसी प्रकार यदि प्रयोग में आने वाली वस्तुएँ अस्वच्छ एवं अव्यवस्थित स्थिति में रखी हुई है तो वे निर्जीव होते हुए भी सजीव मुखर लोगों की तरह से इशारे में सारी पोल खोलकर रख देगी। धन, पद और शिक्षा आदि के आधार पर बड़प्पन की छाप डालने की जो कोशिश की गयी थी उस पर पानी फिर जायगा। मैली-कुचैली, अस्त व्यस्त, टूटी फूटी, बेसिलसिले रखी हुई वस्तुएँ घर में रहने वालों के घटिया स्वभाव और व्यवस्था बुद्धि से अपरिचित होने का इजहार करती है। स्वयं ही अपने आपको उपेक्षित अनुभव करती है और वहाँ से जल्दी ही कही चले जाने का मन बनाती है। भले ही वे चोर के हाथ में पड़े या कबाड़ी की दुकान में जाकर आधे चौथाई दाम में बिकें। ऐसे लोग पुरानी वस्तुओं को गँवाते और नई खरीदते रहने में इतना पैसा लुटाते है, जिसकी बचत से कितनी ही उपयोगी एवं आवश्यक वस्तुएँ खरीदी जा सकती थी।

लोग अपने घरों को सजाने के लिए कई प्रकार की तस्वीरें, खिलौने तथा दूसरी कीमती चीजों को खरीदते सुसज्जा की आकर्षक स्थिति बनाने का प्रयत्न करते हे। जिनके पास फालतू पैसा है, उनके लिए यह सब कठिन भी नहीं किन्तु मध्यम श्रेणी के लोग तो उतना खर्च नहीं कर सकते। इतने पर भी वे वस्तुओं को सुव्यवस्थित रखकर धनिकों से अधिक सुसंस्कृत सिद्ध हो सकते है। अपनी घरेलू वस्तुओं को यदि बिखरी हुई स्थिति में रखा जाय तो वे कूड़ा करकट भर प्रतीत होंगी। यदि इन्हें ढंग से रखा जाय तो वे सुरुचि का परिचय देने लगती है।

सभ्यता का पहला शिक्षण यही है कि अपने घर में रखी जाने वाली वस्तुओं में से प्रत्येक को सही प्रकार से सुनियोजित और सुव्यवस्थित ढंग से सजाकर रखा जाय। यदि यह सब सीखा जा सके तो समझना चाहिए कि व्यवस्था बुद्धि में एक महत्वपूर्ण मंजिल पार कर ली। अध्यात्म का क, ख, ग, यहाँ से आरंभ हुआ समझना चाहिए। एक सुव्यवस्थित व्यक्ति ही श्रेष्ठ साधक बन सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118