घ्राणशक्ति एवं उसकी संसिद्धि

March 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानव जीवन में गंध की महत्ता और उपयोगिता सर्वोपरि मानी गयी है। आँख, कान, जीभ, त्वचा की तरह ही नाक की गणना पंच ज्ञानेन्द्रियों में की जाती है। प्राणशक्ति का ज्ञान इसी से होता है। गंध की क्षमता सूक्ष्म होते हुए भी इतनी अधिक सुविस्तृत और प्रचंड है कि अचेतन मन तक को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है। सुगंध या सुवास कहीं से भी आ रही हो मानव मन को तरंगित किये बिना नहीं रहती। यह बात अलग है कि अस्वाभाविक एवं कृत्रिम साधनों, तीव्र सुगंधित पदार्थों का उपयोग करके उसके प्रभाव को नगण्य बना दिया गया है। इससे जहाँ व्यक्ति की प्राणशक्ति का ह्रास होता है वहीं उसकी प्रतिक्रिया निष्क्रिय-निस्तेज जीवन जीने को विवश करती और अनेकानेक मनोविकारों मनोरोगों को जन्म देती है। घ्राणेन्द्रियों की स्वस्थता पर बहुत कुछ हमारी स्मरण शक्ति की प्रखरता निर्भर करती है, साथ ही व्यक्तित्व के भावनात्मक विकास से भी इसका घनिष्ट संबंध है। अतः सुवासित प्राकृतिक तत्वों का समुचित लाभ उठाया जाना ही श्रेयष्कर माना जाता है।

मानवेत्तर प्राणियों में गंध एक विशिष्ट प्रकार की प्रेरक शक्ति का कार्य करती है। छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों से लेकर पशु-पक्षी तक घ्राणेन्द्रिय की सहायता से एक दूसरे की शत्रु-मित्र की पहचान करते, आहर-व्यवस्था जुटाते सहयोगी-सहचर ढूँढ़ते और संकटकालीन परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त करके स्वयं की तथा साथियों की रक्षा करते है। उदाहरण के लिए रेशमकीट, जिसे “बौम्बिसमोरी” के नाम से जाना जाता है, उसकी घ्राणशक्ति इतनी तीक्ष्ण होती है कि वह अपने मादा कीट द्वारा ग्रंथियों से उत्सर्जित स्राव को गंध के आधार पर दो मील से भी अधिक दूरी होने पर भी उसे खोज निकालता है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रमुख जीव विज्ञानी डा विलसन ने “प्राणि जगत में गंधानुभूति उनके जीवन को किस प्रकार से प्रभावित करती है, पर गहन अनुसंधान किया है। उनका कहना है कि गंधों में जीवन को आमूलचूल परिवर्तन कर देने की क्षमता सन्निहित होती है। जीवधारियों का तो समूचा जीवन इसी के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है। गंध की अति सूक्ष्म मात्रा भी कितनी प्रभावशाली है, इसे चींटियों से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनके अनुसार चींटियों के शरीर से निकला हुआ मात्र एक मिलीग्राम फेरोमोन उनकी एक कतार के-लम्बी पंक्ति के लिए इस समूची पृथ्वी के तीन बार चक्कर लगाने के लिए मार्गदर्शन करने हेतु पर्याप्त होता है। वस्तुतः घ्राणशक्ति ही परस्पर वार्त्तालाप का जीव जंतुओं, कीटों का मूल आधार होता है।

अन्य जीवधारियों में मछलियों को लिया जाय तो हम पाते है कि गंध ग्रन्थि की सहायता से ही वे अपनी उदर पूर्ति करने में सक्षम होती है। सेलेमेण्डर गंध के आधार पर ही अपनी मादा को ढूँढ़ सकने में सफल होता है। पक्षियों का समूह भी इसी की सहायता से एकत्रित होता और वन विहार की योजना बनाने में सफल होता है। कुत्ते की घ्राण शक्ति तो व्यक्ति की अपेक्षा दस लाख गुना अधिक होती है जिसके परिणाम स्वरूप वह गढ़े खजानों को, छिपाई गई वस्तुओं को बताने और चोर तथा अपराधियों को पकड़ सकने में समर्थ सिद्ध होती है। मौसम बदलने और किसी प्रकार के प्रकृति प्रकोप उभरने का पूर्वाभास भी कितने ही प्राणी पालते है और संकट आने से पूर्व अपना स्थान बदलने तथा सुरक्षित स्थान पर पहुँचने का प्रयत्न करते है।

मनुष्य की प्राणशक्ति देखने, सुनने और रसास्वादन को प्रमुखता मिलने के कारण दब गई है। गंध विज्ञान के विशेषज्ञों का कहना है कि हमारे सूंघने की क्षमता स्वाद चखने की अपेक्षा दस हजार गुनी अधिक है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि गंध के परमाणु वायु से भी सूक्ष्म होते है अर्थात् एक लीटर वायु में 0.00004 मिली ग्राम गंध की मात्रा घुली होती है। नासिका के संवेदी तन्तु इन्हें शीघ्र सहज ही पकड़ लेते है। किन्तु जिस वस्तु का उपयोग न हो अथवा दुरुपयोग किया जाय, तो वह निष्क्रिय और निरर्थक सिद्ध होगी। अपनी नाके के साथ भी यही हुआ है। मानवी दुर्बुद्धि ने दुर्गन्ध पैदा की है और समूचे वायुमंडल तथा वातावरण को विषाक्त बनाकर छोड़ा है। परिणाम स्वरूप घ्राणेन्द्रियों की स्वाभाविक क्षमता कुँठित होती जा रही है और गंध तन्मात्रा से सम्बद्ध सूक्ष्म संस्थान विकृतियों से भरत चले जा रहे है। शारीरिक कार्य क्षमता घटने और मानसिक संतुलन गड़बड़ाने में दुर्गन्ध या प्रतिकूल गंधों की महत्वपूर्ण भूमिका पाई गई है।

येल विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध न्यूरोसाइंटिस्ट गौर्डन शैपर्ड का कहना है कि सुगंध व दुर्गन्ध का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन से भावनाओं को उद्दीपन मिलता है और कई बार तो व्यवहार में ये ऐसा परिवर्तन ला देती है जिनसे खुशगवार या कष्टदायक बन जाता है गुलाब या चम्पा की सुगंध जहाँ मन को मोह लेती है और शरीर की हारमोन ग्रंथियों को स्वास्थ्यवर्धक रसायनों के स्राव में अभिवृद्धि करने को प्रेरित करती है, वही दूसरी ओर कुछ, अन्य गन्ध हमें भयभीत करती और यहाँ तक कि प्राण हरण करके छोड़ती है। उदाहरण के लिए तहखानों या पुराने मकबरों की सीलन भरी गंध, गंदी नालियों की सड़ाँध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। कई बार दुर्गन्ध मनुष्य को खतरे से भी रक्षा करती है। हाइड्रोजन सल्फाइड, फास्जीन, जैसी जहरीली गैसें यदि फेफड़े में प्रवेश कर जावें तो प्राण हरण करके छोड़ती है परन्तु इनकी गंध इतनी तीव्र होती है जिसकी वजह से हम उनसे मीलों दूर से ही परिचित हो जाते हैं होर समय रहते बचने के उपाय कर लेते है। इसका श्रेय घ्राणशक्ति को ही जाता है।

अधिकांश व्यक्तियों में दस हजार विभिन्न प्रकार की गंधों को सूँघ सकने की क्षमता होती है। पर जिनकी घ्राणशक्ति क्षीण हो जाती है या जो ऐनास्मियो नामक रोग से ग्रस्त होते है उन्हें इसके साथ ही अनेक प्रकार की आधि−व्याधियों से त्रस्त पाया जाता है। घ्राणेन्द्रिय में मामूली से उत्पन्न विकार से व्यक्ति को “पैरानैस्मिया” नामक बीमारी जकड़ लेती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को मस्तिष्क सम्बन्धी अनेकानेक विकृतियों का सामना करना पड़ता है। कई तरह के शारीरिक मानसिक रोग पनपने लगते है।

पुरुषों की अपेक्षा नारियों का गंध ज्ञान अधिक विकसित होता है। दोनों ही वर्गों में आयु वृद्धि के साथ इसमें गिरावट आने लगती है। पंसिलवानिया यूनीवर्सिटी के क्लीनिकल स्मेल एण्ड टेरट रिसर्च सेंटर के चिकित्सा विज्ञानियों ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में बताया है कि जैसे जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती जाती है-घ्राणेन्द्रियों की क्षमता क्षीण होने लगती है। परीक्षणकर्ताओं ने पाया है कि गंध ज्ञान की न्यूनता के कारण कई व्यक्ति मानसिक विकृतियों से घिर जाते है। विचित्र सनकों, अपराधी-उच्छृंखल प्रवृत्तियों, अचिन्त्य चिंतन, दुर्भावनाओं का शिकार प्रायः ऐसे ही लोग बनते देखे गये है। उनका मानना है कि आस पास के वातावरण में फैले दुर्गन्ध के सूक्ष्म परमाणु नासिका छिद्र से प्रविष्ट होने के पश्चात् मस्तिष्क के अति संवेदनशील घ्राण केन्द्र को पंगु बना देते हैं जिससे न केवल मानसिक विकृतियाँ उपजती है वरन् शरीर का रसायन तंत्र भी गड़बड़ा जाता है और नई-नई व्याधियों को जन्म देता है।

कुछ ऐसी ही मान्यता सोवियत रूस की एकेडमी आफ साँइसेज के जीव भौतिक विज्ञानी डा0 कोनोवलोव की है। अपने अनुसंधान में उन्होंने बताया है कि हाइपरटेंषन जैसा प्राणघातक रोग दुर्गन्ध और दुर्भावनाओं के कारण पैदा होता है इसके लिये वे उत्पन्न मानसिक तनाव को मूल कारण मानते है। उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा है कि दुर्गन्ध के कारण न केवल त्वचा का स्वेदन बढ़ता है, रंग और तापमान परिवर्तित होता है वरन् शरीर रोग कारक कीटाणुओं का अड्डा बनने लगता है। उनके अनुसार नवजात बच्चों की बायोलॉजिकल फील्ड में गंध की एक विशिष्ट प्रक्रिया देखी गई है। तीव्र सुगंधित द्रव्यों को लगाने या जलाने से उसके स्वास्थ्य पर तीव्र असर पड़ता है। जन्मदात्री द्वारा विनिर्मित स्वच्छ सुगन्धित प्राकृतिक वातावरण में ही शिशुओं का समुचित शारीरिक मानसिक विकास संभव है।

चिकित्सा क्षेत्र में अब मल, मूत्र, रक्त आदि परीक्षणों की तरह रोग निदान के लिए शरीर से निकलने वाली गंध को भी माध्यम माना जाने लगा है। तथ्यतः प्रत्येक रोग शरीर में एक विशिष्ट प्रकार की गंध को जन्म देता है जिसे घ्राण शक्ति विकसित कर लेने वाला कोई भी चिकित्सक सरलतापूर्वक जान सकता है। प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री डा हैनिकन के अनुसार मानव शरीर की गंध सदैव एक सी नहीं रहती वरन् समय-समय पर उसमें परिवर्तन होता रहता है। प्रमुख रूप से यह परिवर्तन रोगों के आक्रमण पर ही आता है। उदाहरण के लिए खसरा की बीमारी में शरीर से गरम चपाती जैसी, मलेरिया में खरगोश जैसी एवं प्लेग में मीठी खुशबू का अनुभव होता है। यूरीमिया व लीवर फैल्योर की गंध भी सूँघने पर तुरंत पहचान में आ जाती है। गंध शक्ति विकसित करके चिकित्सा उपचार की इस नवीन विधा का लाभ हर चिकित्सक निदान हेतु उठा सकता है।

विशेषज्ञों कहना है कि शारीरिक मानसिक व्याधियों के निराकरण में समुचित सुगंधित द्रव्यों या पुष्पों के माध्यम से महत्वपूर्ण सहायता मिल सकती है। सुरक्षित द्रव्यों के छिड़काव से या अग्नि में डालने से जहाँ वातावरण का परिशोधन होता है वही शुद्ध वायु का लाभ भी मिलता है परन्तु यही पदार्थ जब अत्यधिक तीव्र एवं उत्तेजक होते है तो स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है। सात्विक, संतुलित और उपयोगी प्राकृतिक गंध वह है जो मिट्टी वनस्पतियों और उनके महकते-खिलते पुष्पों से अथवा वनौषधियों को वाष्पीभूत करने पर निकलती है। चंदन व केशर की सुगंध सिरदर्द को ठीक कर देती है। पीली मिट्टी को सूँघने से नकसीर का बहना रुक जाता है। हिमालय के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाये जाने वाले ब्रह्मकमल के सुरभित वातावरण में जाने पर मस्तिष्क तनाव रहित हो जाता है और देर तक ठहरने पर गहरी योग निद्रा लग जाती है। खुशबू के माध्यम से तनावग्रस्तता को दूर करने में वैज्ञानिकों ने भी सफलता अर्जित की है। येल विश्व विद्यालय के मूर्धन्य वैज्ञानिक गैरी प्रवार्टज तथा इंटरनेशनल फ्लेवर्स एण्ड फ्रैगनेन्स, न्यूयार्क के क्राइग वारेन ने खोज निकाला है कि सेब की ताजी सुगंध से मानसिक तनाव को घटाया जा सकता है। इन्होंने लगभग 200 लोगों पर इस तरह के परीक्षण किये और पाया कि ताजे सेबों को सूँघने से उच्च रक्त दाब सामान्य स्तर पर आ जाता है और व्यक्ति हलका-फुलका महसूस करने लगता है।

वैशेषिक दर्शन में र्पामि आन्हिक के छटे सेत्र में चौबीस गुणों की व्याख्या की गयी है परन्तु उनमें प्रधानता गंध को ही मिली है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि गुणों में गंध को मुख्य और स्वाभाविक माना गया है। पार्थिव परमाणु का प्रमुख उपादान कारण गंध तन्मात्रा है, शेष तो उसके सहयोगी सहायक भर है विश्व विख्यात शल्य क्रिया विशेषज्ञ डा क्रिश्चेन बनार्ड ने भी अपनी कृति बाडी बशनी में कहा है कि पंच तन्मात्राओं में गंध प्रमुख है। उनके अनुसार गंध की प्रभावशीलता न केवल पार्थिव शरीर की गतिविधियों तक सीमित है, वरन् मन-मस्तिष्क भी इससे अछूता नहीं रहता। भाव-संवेदनाओं के विकास में सुगंधित सुरभित वस्तुओं का सान्निध्य, एवं सुवासित वातावरण अधिक लाभ प्रद समझा जाता है। मनुष्य के स्वभाव, आचरण और चिंतन की दिशा धारा को भी विशेष गंधें अपने ढंग से मोड़ती-मरोड़ती रहती है।

यही कारण है कि पूजा-उपासना के विविध अध्यात्म उपचारों में अगरबत्ती, धूपबत्ती, कपूर, चन्दन, लोबान, दीपक तथा हवन-अग्निहोत्र एवं वनौषधियों की धूनी धूम आदि सुगंध उत्पन्न करने वाले कृत्यों को सम्मिलित किया गया है। जिनके सहारे मानसिक परिष्कार और वातावरण परिशोधन का उभय पक्षीय प्रयोजन पूरा होता रहे। अग्निहोत्र में जलाये गये सुगंधित पदार्थ वायुभूत होने के पश्चात् समूचे वातावरण में सुगंध फैलाते है साथ ही मानवी मन को भी सकारात्मक दिशा धारा प्रदान करते है अतः गंध ज्ञान को विकसित करके प्रवृत्तियों के परिशोधन का नया ढाँचा खड़ा किया जा सकता है, गंध से संबंधित मस्तिष्कीय केन्द्र भी सीधे भाव संवेदनाओं के केन्द्र हाइपोथैलेमस एवं लिम्बित सिस्टम से जुड़े होते है। जो गंध मन को अच्छी लगती है, वह प्रसन्नता दायक न्यूरो हारमोन्स स्रवित करती है। इस प्रकार गंध साधना द्वारा भी ध्यान योग की प्रक्रिया पूरी कर तनाव मुक्त होना तथा उच्च स्तरीय आनंद को प्राप्त करना सींव है।

ब्रह्माजी ने सृष्टि का सृजन आरंभ किया। अनेकानेक जीव जन्तु बनाते चले गये। उनके मन में विचार आया कि कोई आलोचक नियुक्त करना चाहिए जो निर्माण में रहने वाली कमियों को बताता चले साथ ही सुधारने का परामर्श देता रहे।

इसके लिए एक विद्वान नियुक्त किया गया। उसने गौर से देखना और खोट बताना शुरू किया। हाथी को देखकर कहा यह ऊपर तो देख ही नहीं पाता। ऊंट को देखकर कहा - इसे पैरों तले की वस्तुएँ तक तो दीखती नहीं। इसी प्रकार बन्दर को नटखट और अजगर को आलसी बताया। विद्वान ने हर जीव की कमियाँ बताई। पर उसे यह ने सूझा कि सुधार किस प्रकार क्या किया जाय?

ब्रह्माजी रुष्ट हुए और बोले आपको छिद्रान्वेषण भर आता हैं सुधार का उपाय बताकर मेरी सहायता कहाँ कर पाते है। अच्छा अब अधिक कष्ट न कीजिए सिर्फ इतना बता कर बात समाप्त कीजिए कि आपकी बिरादरी वाले मनुष्य में क्या कमी है।

विद्वान ने सकपकाते हुए इतना ही कहा - यह बड़ा धूर्त है। इसके मन और व्यवहार में पाखंड भरा रहता है। यदि संभव हो तो इतना कर दीजिए कि इसके मस्तिष्क में एक खिड़की बना दीजिए ताकि संपर्क में आने वाले व्यवहार पर ही न लुभा जाय उसके मन की स्थिति भी देख सकें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118