प्रकृति का विलक्षण खेल - प्रार्थना करते पेड़

March 1989

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प्रकृति का जो प्रवाह सुनियोजित क्रमबद्ध रूप से चलता रहता है, उसके विपरीत कभी अपवाद रूप में ऐसे घटनाक्रम घटते देखे जाते है, जिन्हें देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। मनुष्य तो पौधा नहीं है, वह कोई भी करिश्मा अपनी जीवनी शक्ति के सहारे अथवा अचेतन को जगा कर मन शक्ति के माध्यम से दिखा सकता है। किन्तु यदि ऐसा ही कोई चमत्कार पेड़ पौधे करने लगें व यह करिश्मा प्रकृति के नियमों के विपरीत हो तो क्या कोई जवाब दे पाना वैज्ञानिकों के लिए संभव है? संयोग या अपवाद कहकर किसी घटना को सरलता से नकारा जा सकता है किन्तु जब ऐसे विलक्षण घटनाक्रम कई जगह दिखाई देने लगे तो समष्टिगत ब्राह्मी चेतना के अस्तित्व को स्वीकारना ही पड़ता है। वस्तुतः ऐसी घटनाएँ चुनौती है-उस खोज पूर्ण मस्तिष्क के लिए जिसने विज्ञान जगत के नये नये आविष्कार संपन्न कर दिखाये है।

सर जगदीश चन्द्र बसु ने अपनी पुस्तक “वनस्पतियों के स्वलेख” में वृक्षों से संबंधित अनेक विस्मयकारी घटनाओं का वर्णन किया है। उनने अपनी उक्त पुस्तक में फरीदपुर पू बंगाल के एक अद्भुत ताड़ वृक्ष का वर्णन किया है। यह पेड़ सबेरे अन्य सभी पेड़ों की भाँति जमीन पर सीधा खड़ा रहता, परन्तु शाम में आरती के समय जब मन्दिरों में घण्टे घड़ियाल बजने लगते, तो वह अपनी प्रकृति के विपरीत जमीन पर लेट कर प्रार्थना की मुद्रा में प्रार्थना करने लगता। यह उसका नियमित क्रम था और पूरे वर्ष बिना किसी व्यतिक्रम के चलना रहता। इस विचित्र घटना की जब चर्चा फैली, तो प्रतिदिन दूर दूर से लोग इस विलक्षण वृक्ष की प्रार्थना को देखने के लिए आने लगे, जिससे वहाँ एक प्रकार से मेला सा लगने लगा। समीप वर्ती लोगों का कहना था कि इस पेड़ के समझ मनौतियाँ मनाने अथवा भेंट चढ़ाने से मनोरथ पूरे होते एवं शारीरिक मानसिक रोग आश्चर्यजनक ढंग से दूर हो जाते थे।

यह तो सुना जाता है कि पशु-पक्षी स्नान पसंद होते है और अवसर आते ही जलाशयों में स्नान कर लेते है, पर अब तक यह नहीं देखा सुना गया है कि वृक्ष वनस्पति भी स्वयं को शुद्ध रखने के लिए ऐसा करते हों। ऐसा ही एक स्नान-पसंद ताड़ वृक्ष फरीदपुर में था जिसका उल्लेख श्री बसु ने अपनी उक्त पुस्तक में किया है। वह वहाँ एक सरोवर के तट पर लगा हुआ था और प्रतिदिन शाम के समय उसमें स्नान करता था। प्रत्यक्ष दर्शियों के अनुसार दिन भर वह पेड़ समग्र रूप से खड़ा रहता। उसमें कोई हलचल नहीं दिखाई पड़ती, पर जैसे ही संध्या होने को आती वह सरोवर के पवित्र जल में स्नान करने के लिए मचलने लगता। उसकी उस समय की तड़फड़ाहट लोगों को स्पष्ट दिखाई पड़ती। कई प्रयासों के बाद वह स्वयं को पत्तों समेत सरोवर के जल में डुबो लेता। कुछ समय तक जल में निमज्जित रहने के उपरांत जब उसकी स्नान-क्रिया समाप्त हो जाती, तो वह धीरे-धीर पुनः अपने को जल सतह से ऊपर कर लेता और अपनी पूर्व स्थिति में आ जाता। ऐसा कोन सा कारण था, जो उसे अपनी प्रकृति के विपरीत स्नान करने के लिए विवश करता था, ज्ञात न हो सका। उसकी इस प्रकृति के कारण लोग उसे “स्नान करने वाला ताड़” के नाम से पुकारने और उसकी नित्य पूजा-आरती करने लगे थे।

ऐसी बात नहीं, कि पेड़ों से संबंधित ऐसी विलक्षण घटनाएँ सिर्फ भारत में ही घटित हुई हो। अन्य कई देशों में ऐसे शुद्ध, पवित्र, धर्मप्रिय व प्रार्थनारत वृक्ष हुए है। लिवरपुल (इंग्लैण्ड) के ऐसे ही एक तरुवर का वर्णन करते हुए श्री बसु अपनी पुस्तक में लिखते है कि यह वृक्ष इंग्लैण्ड में तब बड़ी चर्चा का विषय बन गया था और तत्कालीन समय के प्राय सभी ब्रिटिश पत्रों ने इसका समाचार छापा था। प्रतिष्ठित पत्र “लिवरपुलमरकरी” ने आश्चर्यजनक घटना नामक शीर्षक से मुख पृष्ठ में सुर्खियों में यह समाचार पाथा कि लिवरपुल में शिप्टन के निकट एके छोटी नहीं बहती है। वहाँ एक विलो का पेड़ है, जो काफी मोटा और ऊँचा हे। विश्व के अन्य प्रार्थनारत पेड़ों से यह उस मामले में भिन्न था, कि वह यदा कदा ही प्रार्थना किया करता था। प्रार्थना का ढंग अन्यों की भाँति ही था। वह पूरी लम्बाई में दण्डवत, धरती पर लेट जाता और अभ्यर्थना पूरी होते ही पुनः सामान्य स्थिति में खड़ा हो जाता। एक अन्य विलक्षणता उसके साथ यह थी कि वह सदा प्रातः ही वन्दना करता।

ऐसी ही एक घटना दक्षिण अफ्रीका की है। “फरीदपुर का प्रार्थनारत ताड़ वृक्ष” शीर्षक अध्याय में श्री बसु इस का उल्लेख करते हुए लिखते है कि अफ्रीका के एक कृषक के खेत में नारियल के कुछ पेड़ लगे हु थे। एक बार ये समुद्री तूफान में पड़ कर एक और कुछ झुक से गये। तभी से इन वृक्षों को न जाने क्या हुआ कि वे प्रायः दिन−प्रतिदिन जमीन पर लेट कर संख्या-वन्दन करने लगे। दिन भर ये सीधे खड़े रहते और शाम होते ही प्रार्थना की मुद्रा में लेट जाते। उनके मालिक किसान का कहना था कि तूफान में पड़ कर वृक्षों को जो क्षति उठानी पड़ी, वैसी किसी आगामी क्षति से बचने के लिए ही संभवतः उन में यह बदलाव आया हो और उनकी वृति ऐसी हो गयी हो तब से उनकी “दैनिक प्रार्थना” का यह क्रम कभी नहीं टूटा।

ऐसे ही, फ्लोरिडा के समुद्र तटीय क्षेत्र में एक राइजोफोरा का पेड़ है। इसके बारे में कहा जाता है कि जब समुद्र में तेज ज्वार-भाटे आते है और इसके कारण जल जब उस वृक्ष के निकट पहुँचता है तो उसकी टहनियों में विलक्षण हलचल दिखाई पड़ने लगती है। शाखाएँ जल को दूने के प्रयास में बार-बार नीचे झुकती और ऊपर उठती है। यह क्रम तब तक जारी रहता है, जब तक शाखाएँ जल का स्पर्श न कर लें। जड़ पदार्थों में इस प्रकार की गतिविधियाँ विरले ही देखने को मिलती है। पौराणिक गाथा के अनुसार एक बार यमुना के जल ने इस प्रकार का कौतुक दिखाया था, और श्री कृष्ण के चरणों का स्पर्श पाने के बाद ही उसकी लहरें थमी और अप्रत्याशित रूप से जल स्तर घटता चला गया। पर राइजोफोरा के पत्र-पल्लव क्यों समुद्र-जल का स्पर्श करना चाहते है? यह आज तक नहीं जाना जा सका है।

यह तो तरुवर की धार्मिक प्रवृत्ति की चर्चा हुई, पर पेड़ को हर्ष और शोक की अनुभूति भी होती है और मनुष्यो की तरह वे इसका प्रदर्शन भी करते है, ऐसा कम ही देखने-सुनने को मिलता है। श्री बसु ने ऐसी ही एक घटना का वर्णन “आम्र वृक्ष का रुदन” नामक अध्याय में किया है। घटना कलकत्ता के एक उपनगर के एक आम्र वृक्ष की है। यह पूर्ण रूप से विकसित एक 40 फुट लम्बा पेड़ था। इसके तने की परिधि लगभग 37 इंच थी और पत्र-पल्लवों से लदी इसकी टहनियों का विस्तार करीब सौ वगै गज में था। यह प्रतिदिन अपराह्न 1 बजे से न जाने क्यों रोना आरंभ कर देता था? और मनुष्यों एवं पशुओं की ही भाँति उसके आँसू गिरने लगते थे। फिर शाम पाँच बजते-बजते उस के आँसू पूर्णतः थम जाते और उसका रुदन बन्द हो जाता। पता नहीं इस प्रकार रोकर वह किस दुख को अभिव्यक्त करना चाहता था।

अब मास्को विश्वविद्यालय के रूसी वनस्पति शास्त्रियों ने यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिखाया है कि पेड़-पौधे भी विलाप करते है। उनने लिल्ली के पौधों पर प्रयोग-परीक्षण किये। उनके जो आँसू निकले, जब उन्हें चख कर देख गया तो उनका सल बिलकुल मानवी आँसू के सदृश्य नमकीन था।

जो चेतना मनुष्यों व अन्य जीवधारियों में है, वही वृक्ष-वनस्पतियों में भी विद्यमान है। इसीलिए भगवान कृष्ण ने अश्वत्थ (पीपल) के अंदर स्वयं का वास होने की बात कही है। भारती संस्कृति में आम, बरगद, पीपल, शमी जैसे वृक्षों की पूजा की जाती है, उसके मूल में मनश्चेतना को स्वीकारने का दर्शन ही है। प्रकृति में परब्रह्म की चेतना के कण-कण में संव्याप्त होने की यथार्थता की ही झाँकी दिखाती है, ऐसी चमत्कारी घटनाएँ।


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