मात्र संयोग नहीं, अंतः स्फुरणा से उपजे चमत्कार

March 1989

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कई बार हम बनाना कुछ चाहते हैं और बन कुछ जाता है। करना कुछ चाहते है, पर संयोगवश हो कुछ जाता है। ऐसे संयोगों ने विज्ञान को कई महत्वपूर्ण आविष्कार दिये है। ऐसी कई खोजें तो इतनी महत्वपूर्ण साबित हुई कि यदि ये मनुष्य को उपलब्ध नहीं होती, तो अनेक ऐसी सुविधा साधनों और आवश्यकताओं का आनन्द-लाभ हम उठा ही नहीं पाते, जो अब उठा रहे है।

एक तरह से दृष्टिकोण बदलकर देखा जाय तो हम पायेंगे कि ये महज संयोग नहीं है। आर्थर कोस्लर ने अपनी पुस्तक “द रुट्स ऑफ काइन्सीडेन्स” में लिखते है कि अविज्ञात के गर्भ में सारा ज्ञान छिपा पड़ा है जो अपनी अंत सामर्थ्य को जगा कर उससे तादात्म्य स्थापित कर लेता है, वह अपनी तन्मयता व मानसिक रुझान के अनुरूप उस जानकारी को पा लेता है।” यह सही है। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि कोई उपयोगी वस्तु अनायास ही खोजली जाती है। इसमें प्रकृति प्रेरणा एवं अंत स्फुरणा दोनों का योगदान होता है।

घटना सन् 1103 की है। मूर्धन्य फ्राँसीसी रसायनवेत्ता एडपोर्ड बैनेडिंक्ट्स अपनी प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। सामने की शेल्फ में विभिन्न प्रकार के रसायनों से भी अनेक शीशियाँ रखी थी। इन्हीं के बीच सेल्युलाइड से भरी बोतल भी रखी थी। उनने कुछ परीक्षण के लिए सेल्युलाइड की बोतल उठानी चाही, पर अचानक वह हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ी। बोतल तो टूट गई, पर उसके टुकड़े बिखरने की बजाय परस्पर जुड़े रहे। बैनेडिंक्ट्स ने जब यह देखा, तो उन्हें आश्चर्य हुआ। वे यह जानने के लिए कि आखिर इसका कारण क्या है। बोतल को उठा कर उसका निरीक्षण करने लगे। इसमें ज्ञात हुआ कि बोतल की भीतरी सतह पर सेल्युलाइड की एक पतली पर्त चढ़ गई थी। इसी के कारण काँच बिखरे नहीं।

इस घटना को देखकर उनके मन में एक विचार कौंधा कि काँच के निर्माण के समय बीच में नाइट्रो सेल्यूज की एक पर्त चढ़ा दी जाय तो एक विशेष प्रकार के मजबूत काँच का निर्माण हो सकता है और बस, इसी के उपरान्त ऐसे शीशे बनने लगे, जिनका उपयोग आज मोटर गाड़ियों में किया जाता है।

कई बार संयोग वश कुछ ऐसा हो जाता है, जो अन्ततः वरदान सिद्ध होता है। यही स्थिति एक बार प्रसिद्ध वैज्ञानिक लुई पाश्चर के साथ प्रस्तुत हुई 1770 में वे मुर्गियों के चूजों में पाये जाने वाले हैजे के रोग पर अनुसंधान कर रहे थे। उन दिनों यह बीमारी मुर्गियों में बड़ी तेजी से पनप रही थी। प्रतिदिन अगणित बच्चे मर जाया करते थे। इसीलिए वे इस व्याधि का अध्ययन कर कोई उपयुक्त उपचार ढूँढ़ना चाहते थे। अध्ययन से यह तो पता चला गया, कि यह बीमारी एक विशेष प्रकार के के रोगाणु के कारण होती है, पर इसे समाप्त कैसे किया जाय? यह गुत्थी नहीं सुलझ पा रही थी। प्रतिदिन वे मुर्गियों के चूजों पर नये-नये प्रयोग परीक्षण कर रहे थे, पर फल कुछ नहीं निकल पा रहा था। एक दिन इसी क्रम में उनसे एक छोटी चूक हो गई कई दिनों तक मुर्गियों की हड्डियों का एक्स्टै्रक्ट एक बर्तन में रखा रह गया। जब उन्हें इसका पता चला, तो एक नया परीक्षण करने को सोचा। वे बीमार मुर्गियों में एक्स्टै्रक्ट का इंजेक्शन लगा कर उसका परिणाम जानने को उत्सुक हुए। उनका विश्वास था कि इससे मुर्गियाँ तुरन्त ही दम तोड़ देंगी, पर हुआ इसके विपरीत। रोगग्रस्त चूजे धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगे। यह देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और जब उस रस का परीक्षण किया, तो पता चला कि उसमें हैजे के रोगाणुओं को मारने का औषधीय गुण है और इस प्रकार मुर्गियों के हैजे रोग के लिए टीके का संयोगवश आविष्कार हो गया।

कागज को दबाने के लिए पेपर क्लिप की हर पढ़ने-लिखने वाले को आवश्यकता पड़ती है, पर इसकी खोज कैसे हुई? इसे कम ही लोग जानते होंगे। हुआ यों कि एक बार एक युवक वाशिंगटन (अमेरिका) की सड़कों पर निकटवर्ती शहर जाने के लिए किसी वाहन की तलाश में था। बस के आने में देरी होते देख वह युवक वहीं चहल कदमी करने लगा। इसी क्रम मतें सड़क पर उसे एक तार का टुकड़ा मिल गया। वह उसने उठा लिया और निरुद्देश्य उसे मोड़ने-मरोड़ने लगा। वह बार-बार उसे टेढ़ा एवं सीधा करता। इसी बीच उसके मस्तिष्क में विचार आया कि इस तरह तार के टुकड़े को मोड़ कर पेपर क्लिप (यू पिन) बनाया जा सकता है। इस प्रकार यू पिन उस युवक-मस्तिष्क की खोज साबित हुई, जो अकस्मात ही हो गई। उपयोगिता की वस्तुएँ जितनी भी आविष्कृत हुई है, इनके मूल में यह अंत स्फुरणा प्रमुख भूमिका निभाती रही है।

चिकित्सा विज्ञान जब अल्प विकसित स्थिति में था, उन्हीं दिनों की घटना है। 1122 से पूर्व रक्ताल्पता रोग की कोई दबा नहीं थी। सामान्य रोगियों को लौह तत्व खिला कर किसी प्रकार ठीक कर लिया जाता था, पर जो घातक रक्ताल्पता (परनीशियम एनीमिया) के शिकार होते थे, उन्हें निश्चय ही मौत के मुँह में जाना पड़ता था। इसकी औषधि की खोज की भी एक विलक्षण कथा है। इस आविष्कार का श्रेय संयुक्तरूप से तीन लोगों को जाता है।

घटना इस प्रकार है। अमेरिका में न्यूयार्क के डा मेनाट ने एक निजी अस्पताल खोल रखा था, जिसमें कई प्रकार के रोगों की चिकित्सा होती थी। सन् 1122 में उन्होंने वही के डा मर्फी को अपना सहयोगी बनाया, जो स्वयं भी एक कुशल चिकित्सक थे। डा मर्फी को अध्ययन का बड़ा शौक था। वे पत्र पत्रिकाओं के पठन पाठन में बड़ा रस लेते थे इसी क्रम में एक पत्रिका में उन्हें डा विपेल का एक चिकित्सा संबंधी लेख पढ़ने को मिला, जिसमें बताया गया था कि पशुओं पर किये जाने वाले प्रयोगों से कुत्ते से बारम्बार खून लिया जाता है। रक्त की अतिशय कमी के कारण ये एनीमिया रोग के शिकार हो जाते है, पर जब उन्हें दूसरे जन्तुओं का यकृत खिलाया जाता है तो धीरे-धीरे स्वस्थ हो जाते है। इस लेख को पढ़ कर डा मर्फी के मन में विचार उठा कि क्यों न रक्ताल्पता के मरीजों पर यह प्रयोग किया जाय उस समय उनके चिकित्सालय में घातक एनीमिया के कई रोगी थे। डा मेनाट ने डा मफी को उन रोगियों पर प्रयोग करने की अनुमति दे दी। उक्त रोगियों में एक उग्र स्वभाव की महिला भी थी, जो यकृत खाने के लिए तैयार ही न हो रही थी इस पर परिश्रम पूर्वक यकृत का एक्स्ट्रैट तैयार किया गया और उस महिला को दवा के नाम पर इसे पिलाया जाने लगा। एक सप्ताह बाद उसके रक्त परीक्षण से व्याधि में सुधार दिखाई पड़ने लगा और फिर बड़ी तेजी से वह स्वास्थ्य लाभ करने लगी। डा मर्फी को आश्चर्य इस बात का हुआ कि प्राणलेवा एनीमिया से ग्रस्त यह महिला स्वस्थ कैसे होने लगी? चूँकि उस चिकित्सालय में यह इस प्रकार की पहली घटना थी, अतः अचम्भा होना स्वाभाविक ही था। सामान्य रक्ताल्पता वाले मरीजों में लोहे की कमी पूरी कर देने भर से काम चल जाता था और पीड़ित व्यक्ति ठीक हो जाता था, पर रोग की जानलेवा स्थिति में इने मात्र से कोई काम नहीं बनता था, अतः डा मर्फी ने एक्स्टै्रट का विश्लेषण करने का निश्चय किया। जब इसका परीक्षण किया गया, तो उसमें लौह तत्व के अतिरिक्त विटामिन बी-12 भी उपस्थित पाया गया। जाँच के रूप में जब विटामिन बी-12 को ऐसे रोगियों को दिया गया, तो परिणाम पहले जैसा प्राप्त हुआ। इस प्रकार जब यह निश्चय हो गया कि उक्त बीमारी में विटामिन बी-12 ही अपना औषधीय चमत्कार दिखाता है, तो बाद में इसे संश्लेषण द्वारा दवा के रूप में विकसित किया गया। इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए सन् 1126 में डा मेनाट, मर्फी और विपेल को संयुक्त रूप से चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इस सम्पूर्ण घटना का वर्णन अमेरिका के डॉ लेविस थामस ने अपनी पुस्तक “दि यंगेस्ट साइन्स” में विस्तारपूर्वक किया है।

एल्युमिनियम के पहले पाइपों का प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों में किया जाता है। यह घर में विद्युत तारों की वायरिंग में भी प्रयुक्त होता है और दूसरे कार्यों में भी काम आता है। पर इसका निर्माण भी सोद्देश्य नहीं, वरन् अनायास ही हो गया। हुआ यों कि न्यूयार्क (अमेरिका) का जाँर्जली नामक एक व्यक्ति कमीज में प्रयुक्त होने वाले बटन बनाने का बड़ा इच्छुक था। इससे पूर्व बटन, प्राय प्लास्टिक के बनते थे, पर वह धात्विक बटन बनाना चाहता था, वस्तु बाजार से बटन बनाने वाली एक मशीन और एल्युमीनियम की चादर खरीद लाया और बटन बनाना शुरू किया। उसने मशीन में चादरें डालनी शुरू की और बटनों के निकलने का इन्तजार करने लगा, पर जाँर्जली के आश्चर्य की सीमा न रही, जब उसने देखा कि बटन की जगह मशीन से धात्विक नलियाँ बन कर निकल रही है। वस्तुतः मशीन की डाई में कुछ त्रुटि रह गई थी। इसी कारण चपटे बटनों के स्थान पर नलियाँ बनने लगी थी और इस प्रकार अचानक ही एक नया आविष्कार हो गया। इसी के बाद से धात्विक नलियों का निर्माण व्यापारिक स्तर पर आरंभ हुआ।

रंगों की दुनिया भी बड़ी विलक्षण है। कई बार सुन्दर आकर्षक रंग ही हमें तरंगित उत्तेजित करते है और कई बार मन इसके कारण वितृष्णा से भर उठता है। पर्व-त्योहारों एवं खुशी के मौकों पर हम नये व रंगीन कपड़े पहन कर मौज मस्ती मनाते और प्रसन्नता जाहिर करते है, पर इतना निश्चित है कि रंग न होता, तो दुनिया रंग के आविष्कार की कहानी भी कोई कम मनोरंजक नहीं है।

एक बार हेनरी पारकिन नामक अंग्रेज बालक क्रिसमस की छुट्टियाँ मनाने अपने घर आया। वह अपने घर से दूर एक अन्य शहर में रहकर पढ़ता था और बड़ी खोजी वृत्ति का लड़का था। रसायन शास्त्र के प्रति उसकी विशेष अभिरुचि थी। इसी कारण से अपने घर पर भी एक छोटी प्रयोगशाला उसने बना रखी थी, जिसमें विभिन्न प्रकार के रसायनों की ढेर सारी बोतलें थी। उसकी इच्छा थी कि वह सिन्थेटिक क्वीनाइन अथवा उस जैसी कोई नयी चीज बनाये। इसीलिए एक दिन उसने कुछ रसायनों को परस्पर मिला कर उसका सम्मिश्रण तैयार किया एवं कुछ समय के लिए उसे यों ही छोड़ दिया। थोड़े समय उपरान्त तरल रसायनों के मिश्रण वाले फलास्क की दीवार में एक काली पर्त चढ़ गई। उसने जब इसे अल्कोहल से साफ करना चाहा, तो उसके संपर्क में आते ही काला रंग बदल कर बैंगनी हो गया। यह मात्र एक संयोग ही था, जिस के कारण बैंगनी रंग बन कर तैयार हुआ। यही रंग विश्व का पहला अप्राकृतिक और कृत्रिम रंग साबित हुआ। इस आविष्कार के बाद हेनरी पारकिन की गणना वैज्ञानिकों में होने लगी और इसके उपरान्त उसने विभिन्न प्रकार के न छूटने वाले कृत्रिम रासायनिक रंग तैयार किये। आज इन्हीं रंगों के सहारे टेक्सटाइल मिल में अनेकानेक प्रकार के रंगीन और आकर्षक कपड़े तैयार किये जाते है। रंगों की चित्र विचित्र दुनिया जो जन्मी उसके मूल में यह खोज ही थी।

इस प्रकार संयोगवश अथवा भूलवश हुई घटनाओं की उपेक्षा न कर यदि सहज मिल रही उस अन्त प्रेरणा पर ध्यान दिया जाय, उसका अध्ययन कर कारणों का पता लगाया जाय, तो कई बार नये तथ्यों व सत्यों की जानकारी मिलती है, जो आगे चल कर काफी महत्वपूर्ण साबित होती है। ऐसी बात नहीं, कि ऐसे संयोग सिर्फ किन्हीं-किन्हीं के साथ घटित होते है। होते तो यह प्रायः प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में है, पर हर व्यक्ति उस पर ध्यान नहीं दे पाता, उसकी उपेक्षा कर देता है, फलतः जो महत्वपूर्ण उपलब्धि उसे मिल सकती थी, जो यश और गौरव वह प्राप्त कर सकता था, उससे वंचित रह जाता है। ऐसे अवसरों पर जो जिज्ञासा दिखाते एवं खोजबीन की वृति प्रदर्शित करते है, वहीं श्रेय के भागी बनते है। विज्ञान की आज की प्रगति का श्रेय मानवी जिज्ञासा एवं अंत से उपजी प्रेरणा को, अंतर्प्रज्ञा को दिया जाय तो यह अत्युक्ति न होगी।


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