स्वामी विवेकानन्द के प्रवचनों से प्रभावित होकर किसी ने कहा-लगता है आपकी पहुंच ईश्वर तक है। आप मुझे उस तक पहुंच दीजिए। उसके मिलने का स्थान बता दीजिए।
स्वामीजी ने कहा आप अपना पता मुझे लिखा जाइए। जब ईश्वर को फुरसत होगी तब उसे आपके घर भेज दूँगा।
वह व्यक्ति अपने मकान का पता लिखाने लगा।
स्वामीजी ने कहा - यह तो ईंट चूने से बने घरौंदे का पता है। आप स्वयं अपना पता बताइये कि आप कौन है? किस प्रयोजन के लिए नियत थे और क्या कर रहे है?
व्यक्ति इनके प्रश्न में छिपी दार्शनिकता का संकेत समझा और इस नतीजे पर पहुँचा कि पहले आत्मसत्ता के स्वरूप और उद्देश्य का पता लगना चाहिए। बाद में ही ईश्वर के मिलन की बात बनेगी।
एक राजकुमार उस गाँव में दौरे पर आया तो एक ग्रामीण युवती पर आसक्त हो गया। उसके पिता पर उस लड़की का विवाह उससे कर देने का दबाव डालने लगा।
लड़की तैयार न थी। वह राजमहलों में अन्तःपुरों का उत्पीड़न जानती थी। उसने स्पष्ट मना कर दिया। पिता भयभीत था कि उस पर कोई आफत न आव।
लड़की ने समझ से काम लिया और राजकुमार से कहलवाया कि दस दिन बाद पधारें। तब उत्तर मिलेगा। राजकुमार चला जाय।
लड़की ने उसी दिन से दस्तों की दबा ले ली। भोजन बन्द कर दिया। मल को एक घड़े में बंद करती रही। दस दिन में शरीर पुरी तरह सूख गया। नहाई नहीं सो शरीर से बदबू आने लगी। खुले बालों में जुएं पड़ गये। मरणासन्न सूखी लकड़ी जैसी उसकी आकृति बन गई।
राजकुमार आया। उस युवती के पास गया उसकी दुर्दशा देखी। पूछा तुम्हारे रूप लावण्य का क्या हुआ? युवती ने मल संग्रह वाले घड़े की ओर इशारा किया कि उसमें बंद है। खोलकर देखा गया तो उसमें संचित मल की भयंकर बदबू आ रही थी।
राजकुमार सोचने लगा कि क्या इसी का नाम सौंदर्य है? उसने विचार बदल लिया। वापस लौट गया। युवती को भी संतोष की साँस लेने का अवसर मिला। ज्ञान से आवेशों को उतारा जा सकता है।