समर्पण एवं शरणागति

March 1989

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परम पुरुष की प्राप्ति हेतु साधना उपासना के क्षेत्र में समर्पण का महत्व असाधारण है। निज के पुरुषार्थ के सहारे एक सीमा तक ही बढ़ना सम्भव है। निज के पुरुषार्थ के साथ अनुदानों का भी महत्व है। व्यवहारिक जगत में भी प्रगति हेतु जितना प्रयत्न स्वयं को करना पड़ता है उससे कहीं अधिक अनुकूलताएँ सुविधाएं सृष्टा ने प्रदत्त की हैं। यदि ये भी बनाये रखना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव भी था। प्राण, वायु, सूर्य का प्रकाश, ताप इत्यादि मनुष्य विनिर्मित नहीं अपितु परम सत्ता का अनुदान ही हैं। पृथ्वी और उसमें भरी खनिज सम्पदा के बारे में भी यही बात है। जल तो मनुष्य के जीवन का आधार है। इस सम्पदा को जुटाने का श्रेय भी सृष्टा को ही है।

प्रयत्न पुरुषार्थ का अपना महत्व है और बाहरी अनुदान का अपना। यदि बाहरी सहयोग न हो तो प्रगति पथ पर आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं होगा। बच्चे का विकास माता के अनुदान से ही सम्भव होता है। ऐसा न होने के विकास कर सकना सम्भव न हो सकेगा।

ऐसे अनेकों अनुदान हैं, जो लोग सभी को मिलते हैं उन्हें पाकर अपने-अपने प्रयत्न पुरुषार्थ के अनुरूप लोग सफलता अर्जित करते है। आत्मिकी क क्षेत्र में भी भौतिक जगत की तरह पुरुषार्थ का परिचय देना पड़ता है। आत्म परिष्कार हेतु सुयश, तप, तितिक्षा आदि शारीरिक मानसिक उपचार करने पड़ते हैं। आत्मिक प्रगति का आधार इन्हीं से विनिर्मित होता है। पर इन सबसे अधिक आवश्यक है, दैवी अनुग्रह की प्राप्ति। परिष्कृत अन्तराल में परमात्मा चेतना के अवतरण के बिना साधना के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है। इसके लिए समर्पण योग की साधना की आवश्यकता है।

समर्पण के भाव को रामकृष्ण ने रूपक की भाषा में बिल्ली के बच्चे की पद्धति कहा है। इसका तात्पर्य है, मन प्राण, बुद्धि का अन्त समर्पण। इसमें बाह्य समर्पण का भी समावेश है। जैसे जो चीजें साधना का विरोध करती हैं उनका त्याग करना। इस समर्पण प्रक्रिया का सारतत्त्व भगवान पर विश्वास और भरोसा साधक का यह भाव होना चाहिए कि मैं भगवान को चाहता हूँ अन्य किसी को नहीं। मैं अपने को पूर्णतया भगवान को ही देना चाहता हूँ और चूँकि मेरी अन्तरात्मा भगवान को ही पाना चाहती है, इसलिए में उनसे अवश्य मिलूँगा और प्राप्त करूंगा। इस भाव को अपने अन्दर बढ़ने देना चाहिए। इस तरह समर्पण की पूर्णता से भगवत चेतना का अवतरण मनुष्य के परिष्कृत अन्तराल में बन पड़ता है।

गीताकार ने भी “तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत सर्वधर्मान् परित्यज्यमामेकं शरणं ब्रज” आदि बातें कह कर समर्पण की प्रधानता उपदिष्ट की हैं।

इस प्रकार के शरणागति के आमंत्रणों में भगवान इतना ही कहते हैं कि अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को अहम् को, ईश्वर को समर्पित कर दें। इसके बाद सही माने में समर्पण का जो लाभ मिलना चाहिए वह प्राप्त होता है। अनेकों प्रकार के अनुग्रह भक्त को प्राप्त होते हैं। ईश्वर को समर्पण से तात्पर्य किसी व्यक्ति विशेष या सूक्ष्म शरीरधारी देवी देवताओं के साथ मित्रता बढ़ाने, से नहीं अपितु समष्टि चेतना के प्रति सर्वभाव से समर्पित होना है। दूसरे शब्दों में इसका अभिप्राय व्यष्टि का समष्टि में क्षुद्रता का महानता में विसर्जन करना है।

इसके चमत्कारी परिणाम सब जगह दृष्टि गोचर होते बट वृक्ष के बीज की सत्ता नगण्य ही होती है। पर ज वह अपनी क्षुद्रता के अहम् को त्याग पृथ्वी की विराटता में समर्पित हो जाता है तो उसमें नव जीवन अंकुरित होने लगता है। सूर्य कि किरणें, पवन, मेघ सभी का सहयोग दुलार उसे प्राप्त होता है। शनैः शनैः विकास करता हुआ विशाल वट वृक्ष के रूप में परिणत हो जाता है। जिसकी छाया में सैकड़ों जीव जन्तु विश्राम करते, पोषण प्राप्त करते और धूप, वर्षा से राहत पाते है। अपनी छोटी सी सामर्थ्य की गंगा में विसर्जित कर देने वाले नदी नाले भी वैसा ही सम्मान पाते और श्रद्धास्पद होते जैसा कि गंगा। मात्र उन्हें समर्पित होने का साहस अपने में पैदा करना होता है।

समर्पण का यथार्थ अभिप्राय अपनी सत्ता के विलय-विसर्जन से है। आग में पड़ने पर बबूल, आम, चन्दन सभी एक सा स्वरूप प्राप्त करते अर्थात् अग्नि मय हो जाते है। इसमें ये सब अपने गुणों को छोड़कर अग्नि के गुण प्राप्त करते, धारण करते है। भक्त को समर्पण के लिए भगवान जैसा, ही बनना होता हे। अपने व्यक्तित्व को उन्हीं गुणों से अलंकृत करना होता है जो परमात्मा में है। समर्पण वह प्रखर पराक्रम है जिसमें अपनी क्षुद्रता, संकीर्णता, स्वार्थपरता को पूरी तरह से त्याग कर परम सत्ता की दिव्यता, महानता से एक हो जाना पड़ता है। समर्पण का अर्थ निष्क्रियता नहीं है अपितु वासना, अहंकार का त्याग कर, फलासक्ति से रहित हो, अहंभाव से सर्वथा शून्य हो कर भगवान का कार्य भगवान के हाथ का यंत्र बन कर, भगवानमय होकर उन्हीं के लिए करना है। समर्पित व्यक्ति की कसौटी यही है कि वह अपनी स्वार्थ की संकीर्णता से ऊपर उठकर सदुद्देश्यों के लिए अपने शरीर और मन को लगाए। उसकी क्रियाशीलता, विचारणा, और निर्मल अन्तःकरण की उदारता व्यक्तिगत स्वार्थ में नहीं परमार्थ में नियोजित होगी।

भक्त की निष्ठा समर्पण से ही जानी जा सकती है। महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध सन्त तुकाराम ने अपने एक अभंग में बताया है कि समर्पण होने पर जीव अपनी अहंता से छुटकारा पा लेता है। उसके शरीर मन, बुद्धि, अन्तःकरण की विशेषताएं उच्चस्तरीय प्रयोजन में नियोजित हो जाती है। इस हेतु अपने अन्तराल में इस भावना को पुष्ट करना पड़ता है कि वह बूँद की तरह है इष्ट सागर की तरह। उनके प्रति प्रेम से भावित हो, द्वैत को समाप्त कर, अद्वैत, एकत्व की प्राप्ति के लिए अपनी सत्ता का अभिमान न रखकर उसे पूरी तरह से विलय करना होता है। विलय के पश्चात् जिस तरह बूँद-बूँद न रहकर सागर का स्वरूप प्राप्त करती है, ठीक उसी तरह से भक्त अपनी अहंता-ममता को मिटा कर जीव सत्ता के व्यष्टि अभिमान से ऊपर उठकर परमात्म सत्ता में विकसित होता है। उनसे एकाकार हो जाने पर उसका स्वरूप भी उन्हीं जैसा हो जाता है।

,निःसन्देह परमसत्ता के प्रति पूर्ण समर्पण भक्त को तद्रूप बना देता है। उनके दिव्य अनुग्रह स्वतः ही उसे प्राप्त होने लगते है। सत्-चित्-आनन्द का अजस्र स्त्रोत उसके अन्तराल में फूट पड़ता है। इससे ने केवल उसे स्वयं को ही परितृप्ति मिलती है अपितु निकट आने वालों को भी आनन्द-वृद्धि की सुखानुभूति होती है। ऐसे व्यक्ति प्रेरणा का स्त्रोत एवं प्रकाश का केन्द्र बनते है। उनका निज का जीवन तो धन्य होता ही है। उनके निकट का परिकर भी धन्य हो जाती है।


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