परमात्मा ने जीवात्मा को ऐसी अद्भुत विलक्षण चादर में लपेट कर इस संसार में भेजा है जिसकी संरचना और उपयोगिता शरीर के किसी भी जटिलतम अंग अवयव से कम नहीं। मनुष्य की ही नहीं, वरन् प्रत्येक प्राणी की त्वचा जन्म से मरण पर्यन्त साथ बनी रहती है। उसके आकार प्रकार में परिवर्तन भले ही हो जाय किन्तु समूल रूप से परिवर्तन नहीं होता। यह इतनी समर्थ होती है कि सभी प्रकार के सर्द, गर्म ऋतु प्रभावों को झेलने में समर्थ है। टुड्रा जैसे अति ठण्डे और सहारा जैसे अति गर्म तथा विषुवत–रेखा जैसे देशों में जहाँ वर्षा निरन्तर होती रहती है, वहाँ भी वनवासी जातियाँ खुले बदन रहती है। बहुत हुआ तो थोड़ा बहुत बल्कल, पते, आदि से शरीर का कुछ हिस्सा भले ही ढक लेते हो किन्तु उनकी त्वचा इतनी समर्थ होती है कि बदलते ऋतु प्रभावों को सहन कर सके।
वस्त्राभूषण और परिधानों का प्रचलन भले ही हो गया है किन्तु हाथ-पैर मुंह, नाक, गला आदि तो अब भी खुले ही रहते हैं। वहाँ की त्वचा खुली रहने पर भी शीत ताप की अभ्यस्त बनी रहती है। वह किसी प्रकार के वस्त्रों की अपेक्षा नहीं करती। यह बात अलग है कि सम्पन्न लोग कितने वस्त्र परिधान लाद लें। किन्तु ऋतु प्रभाव से संरक्षण कर सकने में पूर्णतया समर्थ है। वस्त्रों से यों सुविधा, सुरक्षा भले ही मिली हो किन्तु शारीरिक दुर्बलता, और परावलम्बन भी बढ़ा हैं। अन्यथा अन्य जीव जन्तु पक्षी प्रकृति प्रदत्त त्वचा आवरण से सुसज्जित आत हैं और जीवन भर वैसे ही बने रहते हैं। इतना टिकाऊ परिधान अभी तक मनुष्य निर्मित नहीं कर सका है, जो आजीवन साथ दे सके और जिसकी टूट-फूट मरम्मत स्वयमेव होती रहे। मजबूत से मजबूत वस्त्र भी कुछ ही वर्षों तक साथ देते हैं और जीर्ण होकर चीथड़ों में बदल जाते हैं किन्तु त्वचा के साथ ऐसी बात नहीं है।
शरीर शास्त्रियों के अनुसार सामान्य मनुष्य की त्वचा का भार लगभग 6 पौण्ड होता है जिसे यदि फैलाया जा सके तो वह 250 वर्गफुट की जगह घेरेगी। इसकी सबसे पतली परत पलकों पर होती है जबकि सर्वाधिक मोटाई वाली परत पैर के तलवों एवं ऐड़ी पर चढ़ी होती है। इसमें जगह-जगह पर अगणित बारीक छिद्र पाये जाते हैं जिन से पसीने का निष्कासन होता रहता है। त्वचा के प्रतिवर्ग सेंटीवर्ग क्षेत्र में प्रायः 15 सिवैसियस ग्लैण्डस, 100 स्वेद ग्रंथियां, 10 रोमकूप, चार मीटर तंत्रिकाएँ और अनेक सैकड़ों अंतिम छोर, तथा एक मीटर रक्तवाही नलिकाएं विद्यमान रहती है। मनुष्य शरीर के दो वर्ग मीटर बाह्य सतह पर 20 लाख स्वेद ग्रंथियाँ पाई जाती है जिनमें से प्रत्येक से सवा मीटर लम्बी नलिकाएँ निकल कर त्वचा की गहरी परत-डमिर्स में धँसी होती है। यदि इन छोटी-छोटी नलिकाओं को सूत्रबद्ध किया जा सके तो इनकी कुल लम्बाई 1 किलोमीटर तक मापी जा सकती है। इन्हीं के द्वारा रक्त के दूषित अंशों, जल, लवण का अवशोषण एवं शरीर के बाहर निष्कासन होता रहता है। दिन-रात के 24 घंटे में औसतन 500 ग्राम से 600 ग्राम तक पसीना निकलता हैं। गरमी पड़ने या अधिक परिश्रम करने पर इसकी मात्रा बढ़ जाती है। गरमी के दिनों में फुटबाल खेल रहे एक खिलाड़ी के शरीर से कुल 6 किलो तक पानी चौबीस घण्टों में नन्हें छिद्रों से निकल कर बाह्य वातावरण में मिल जाता है। सर्दियों में शरीर को गरम रखने की दृष्टि से स्वेद ग्रंथियाँ सिकुड़ जाती है जिससे अंदर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती और इस तरह से त्वचीय संरचना शरीर को वातानुकूलित बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
त्वचा के छिद्र केवल पसीना ही निकालते हों ऐसी बात नहीं। वे साँस लेने की फुफ्फुसीय क्रिया की भी पूर्ति करते हैं साथ ही नासिका के काम में भी सहयोग करते रहते हैं। यदि इन रोमकूपों को सर्वथा बन्द कर दिया जाय तो आदमी घुट कर ही मर जाय। पुराने जमाने में अपराधियों को मृत्यु दण्ड देने का एक यह भी अनोखा तरीका था कि उसके समूचे शरीर पर मोम पोत दिया जाता था और उसके हाथ पैर बाँध दिये जाते थे जिससे वह मोम हटा न सके। त्वचा के समस्त छिद्र बन्द होने से वह घुट घुट कर मर जाता था। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक विवरण समाचार पत्रों में छपा था जिसमें एक लड़के ने लंगूर का स्वाँग बनाने के लिए शरीर पर शीरा पोत कर रुई चिपकाली थोड़ी ही देर में वह ब.... गया यदि रुई को जल्दी न निकाला गया होता तो उसकी मृत्यु सुनिश्चित थी। स्नान का महत्व भी इसी लिए बताया गया है कि चमड़ी पर मैल की पर्तें न जमा हो अन्यथा स्वास्थ्य के लिए अहित कर है।
साँप के केंचुली की तरह मनुष्य की त्वचा भी प्रति 26 दिन बाद बदलती रहती हैं किन्तु उसके बदलने का क्रम बहुत हल्का एवं धीमा होता है। जो दिखाई नहीं पड़ता। किसी रोगी के बहुत दिन तक चारपाई पर पड़े रहने के बाद उसकी चमड़ी पर से भूसी उतरती देखी जा सकती हैं। सिर में भी अक्सर भूसी जमी रहती है। शरीर के रगड़ने पर मैल की तरह मृत त्वचा के अंश अथवा सिर में जमी भूसी उतरती है। हमें दिखाई भले ही न दे पर चमड़ी की कोशाएं मरती रहती है और उनका स्थान नई कोशाएं ग्रहण करती रहती है। इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम अनवरत चलता रहता है। साँप की केंचुली एक साथ उतरने का कारण सीधा है कि उसे रगड़ने स्नान करने की सुविधा अक्सर प्राप्त नहीं है। उसके हाथ एवं पैर भी नहीं होते। स्वेद कणों की परत शरीर पर मैल के रूप में जमती है तथा त्वचा की मृत कोशाएं जमने से ही यह केंचुली बनती है।
मनुष्य की त्वचा केवल चादर की तरह ही नहीं है। वरन् इसमें ज्ञान तन्तुओं का जाल भी बिछा हुआ है। जो इतना संवेदनशील होता है कि हल्का हवा का झोंका अथवा मच्छर भी शरीर पर बैठता है तो उसकी सूचना त्वचा के ज्ञान तन्तु मस्तिष्क के बड़ी फुर्ती के साथ भेज देते है, जहाँ से प्रतिरोधी निर्देश मिलते है। इन ज्ञान तन्तुओं की लम्बाई लगभग 45 मील आँकी गई है। इन तन्तुओं के अतिरिक्त अन्य प्रकार के तन्तु भी है जो दृश्य, गंध, ध्वनि, दबाव, शीत, ताप जैसी विविध अनुभूतियाँ नाक कान, आँख, जीभ आदि ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से कराने में योगदान करते है। ज्ञान तन्तुओं के अतिरिक्त त्वचा में एक विशेष प्रकार की चिकनाई भरी पर्त पाई जाती है जिसे “कोरियम” के नाम से जाना जाता है। इसी से सौंदर्य झलकता है। इसी में मेर्लोनन नामक रंग के कण होते हैं जो मनुष्य की त्वचा का काला, गोरा, गेहुआ, पीला रंग निर्धारित करते है।
त्वचा की पतों में केशग्रन्थि, स्वेदग्रन्थि, बाह्मत्वचा, तैल ग्रन्थि, अन्तः त्वचा, 77 स्नायु और मज्जा कोष, रक्त नलिकाएं आदि प्रमुख रूप से विद्यमान रहती है। इस स्थूल रचना एवं आवरण के अतिरिक्त एक सूक्ष्म चेतना और भी रहती है जिसकी जानकारी महत्व पूर्ण हैं। क्योंकि वह भी रूप, रस, गंध की तरह स्पर्श इन्द्रिय का कार्य सम्पन्न करती है। त्वचा में इतनी अद्भुत शक्तियाँ भरी पड़ी है यदि उन्हें विकसित कर लिया जाय तो अन्य समस्त ग्रंथियों का काम कर सकती है। लगता तो आश्चर्य है किन्तु यह सत्य है कि त्वचा देखने, सुनने, सूँघने, स्पर्श करने जैसी अन्य इन्द्रियों के कार्य सम्पादित कर सकने में समर्थ हैं। क्योंकि उस में हलचल मचाने वाली अन्तः चेतना समाई रहती है। काम में न आने के कारण वह प्रसुप्त पड़ी रहती हैं। योग साधनाओं द्वारा त्वचा की संवेदन शीलता को यदि जाग्रत किया जा सके तो आँख आदि की कमी पूरी की जा सकती है।
हमारे शरीर की त्वचा अत्यन्त संवेदनशील होती है। उससे एक्सरे मशीन की तरह काम भी लिया जा सकता है। यदि उस की संवेदनशीलता विकसित की जा सके तो एक्सरे के स्थान पर अपनी त्वचा के संस्पर्श से ही अज्ञात और अदृश्य का एक बड़ा भाग जानकारी में आ सकता हैं। बेल लिपि में जन्माँधो द्वारा पड़ा जाना स्पर्श इन्द्रिय का ही कमाल हैं। पोरुओं की त्वचा में विशेष चेतना विद्यमान रहती है, जो स्पर्श करते ही अभीष्ट वस्तु अथवा संकेतों को पकड़ती और मस्तिष्क केन्द्र तक पहुँचा देती है। सोवियत संघ में इस संदर्भ में अनुसंधान प्रयोग किये जा रहे है कि उंगलियों के पोरुओं के अतिरिक्त क्या यह क्षमता शरीर के दूसरे भागों में भी पाई जाती है। बांहें, कंधा पीठ की त्वचा पैर की उंगलियां आदि में भी संवेदनशीलता खोजने और उसे विकसित करने के प्रयास किये जा रहे है। यद्यपि हाथ की उंगलियों के पोरुओं में स्पर्श संवेदन सर्वाधिक पाई जाती है।
रूस के मनोविज्ञान शाखा के वरिष्ठ शोध कर्ता कोन्स्टाटिन प्लाटोनोव के अनुसार मानवी चेतना विद्युत रूप में हर जीव के रोम-रोम में व्याप्त हैं। कितने ही जीवधारियों की आंखें नहीं होती, कितनों के कान नहीं होते, फिर भी देखने सुनने का काम स्पर्श इन्द्रिय अर्थात् त्वचा कर संवेदन शक्ति के आधार पर चलाते है। इनके मस्तिष्क करे बाह्य खतरे की सूचना त्वचा के ज्ञान .... देते रहते हैं। अनाज में पाये जाने वाले घुन, चींटी, दीमक, केंचुआ आदि पर कितने ही प्रयोग किये गये हैं। देखा गया है कि व अपने शत्रु को अथवा अवरोध पाकर गन्तव्य मार्ग बदल लेते हैं। ऐसे ही विचार प्रो0 एलेक्जेण्डर स्मिनोंव के हैं। वे कहते हैं कि यह कोई अलौकिक बात नहीं वरन् सामान्य विज्ञान सम्मत सिद्धांतों का ही प्रतिपादन है। एक अंग की चेतना दूसरे अंग की चेतना दूसरे अंग में काम कर सकती है।
उन्होंने अनेक छात्राओं पर प्रयोग किये तो पाया कि दाहिने हाथ की उँगलियों के पोरुओं की त्वचा में अतीन्द्रिय क्षमता अधिक रहती है। आयु बढ़ने के साथ साथ इन ज्ञान तन्तुओं में कठोरता आ जाती है। जिसके कारण त्वचा में उतनी संवेदनशीलता नहीं रहती।
शास्त्रों में त्वचा को स्पर्शेन्द्रिय की संज्ञा दी गई है। अन्य इन्द्रियों की तरह यदि इसकी अन्तः चेतना को विकसित किया जा सके तो मनुष्य की शक्ति सामर्थ्य में वृद्धि सम्भव है। साधना विज्ञान में त्वचा साधना को स्पर्शास्पर्श कहते हैं त्वचा में अति संवेदनशील व्यापक और प्रभावोत्पादक क्षमता होती है। इसे दैनन्दिन जीवन में प्रयुक्त होते हुए उन व्यक्तियों में देखा जा सकता है जिनकी अन्य ज्ञानेन्द्रियाँ, तन्मात्रायें किसी कारण वश विकसित नहीं हो पातीं। मनुष्य को उपलब्ध एक सामर्थ्य का अभाव जब दूसरी इन्द्रियों में अति चेतना क्षमता को जन्म दे सकता है तो कोई कारण नहीं कि सामान्यस्तर का व्यक्ति अध्यात्म अनुशासनों को, योग पुरुषार्थ सम्पन्न करते हुए अपनी स्पर्शेन्द्रियों को अतीन्द्रिय स्तर तक विकसित न कर सके।