तपस्या से देवाराधना एवं सिद्धियाँ भागते रहने का क्रम देव-असुरों से लेकर सामान्य मनुष्यों तक अनवरत चलता आया है। सुपात्रों को उनकी अंतः करण की पवित्रता, धारण करने की सामर्थ्य के अनुसार भगवत् सत्ता वरदान देती आयी हैं। यह क्रम भी अनुशासित विधि व्यवस्था के क्रिया-कलापों का ही एक अंग है-पूर्णतः सुनियोजित एवं कर्मफल व्यवस्था पर आधारित। अनुदान फलित भी तभी होते हैं जब साधक सभी अनिवार्य शर्तों को पूरा करता हो।
एक तपस्वी सिद्धपुरुष थे। उनने ब्रह्मा की आराधना की। कड़ी तपस्या से उनने प्रजापति -देवाधिपति को प्रसन्न कर लिया। वर माँगने और देने का प्रसंग आया तो सिद्ध ने अनुरोध किया कि भगवान्! मुझे आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। मात्र प्रातःकाल मुझे नित्य ध्यान के समय निमिष मात्र को दर्शन दे जाया करें। साथ ही जब कभी संकटकाल में, विपत्ति के समय में आपका स्मरण करूं तो भी सहायता करने के लिए पधार आया करे। ब्रह्मदेव ने शर्त स्वीकार करली एवं वे प्रतिदिन प्रातःकाल सिद्ध के पास दर्शन देने के लिए आने लगे। सिद्ध कृतार्थ हो गया।
एक दिन एक असाधारण घटना घटी। उनका दुष्टों से तो कभी पाला नहीं पड़ा था अतः शरीर बलवाला क्षेत्र उनका कमजोर था। एक दुष्ट चोर संत की झोपड़ी में घुस आया। उनकी झोपड़ी का सारा सामान बटोर कर जाने लगा। साथ ही उन्हें बुरी-बुरी गालियाँ सुनाने और गन्दे आक्षेप लगाने लगा। सामान तो ऋषि के पास था ही क्या? दुःख उसके जाने का नहीं था। बुरी-बुरी गालियाँ -आक्षेप सुनने पर क्रमशः वे धीरज खो बैठे। नशे में उन्मत्त वह व्यक्ति उनके समझाने पर सुनता तो क्या, गुत्थम गुत्था और हो गया। शरीर से बलवान दुष्ट, दुर्बल काया वाले संत पर हावी हो गया। इस द्वंद्व युद्ध में दुष्ट पलड़ा भारी रहा, संत की जमकर पिटाई हुई। दुःखी मन से सिद्ध ने अपने देवता ब्रह्मदेव का आह्वान किया, गुहार की, सहायता के लिए पुकारा। बड़ी देर प्रतीक्षा में बीत गए कोई मदद को न आया। सिद्ध पुरुष को बड़ा धक्का लगा। एक तो पिटाई से शरीर का अंग-अंग पीड़ा दे रहा था। मन और भी दुखी था। वे मन ही मन देवता को वचन भंग का दोष देकर कटु शब्द कहने लगे। आवेश में व्यक्ति को ध्यान भी तो नहीं रहता कि वह क्या कह रहा है? वे बड़बड़ाते रहे-व्यर्थ है ऐसी तपस्या व वरदान, जिसमें मौका पड़ने पर तो देवता दर्शन न दें, सहायता न करें। दिन भर इसी प्रकार आकुल-व्याकुल बने रहे। दूसरे दिन नित्यक्रमानुसार ब्रह्मदेव सिद्ध पुरुष को दर्शन देने आए। उनके आने की देर भर थी कि साधक ने लाँछनों की झड़ी लगादी। वचनभंग करने, वरदान के व्यर्थ होने व आपत्ति के समय सहायता न करने का दोष दिया।
शान्तिपूर्वक सारी बातें सुनते हुए प्रजापति ब्रह्मा बोले कि -”मैं दिव्य दृष्टि से बस कुछ देख रहा था। बहुत देर तक असमंजस रहा कि आप दोनों में कौन दुष्ट है? व कौन भक्त? क्रोध में दोनों ही आपे से बाहर हो रहे थे। सूझ नहीं पड़ा रहा था कि किसे बचाया जाय, किस पर प्रहार किया जाय? आवेशग्रस्त स्थिति में दोनों को देखते हुए मैंने न आने का निर्णय लिया। गलत प्रहार से बचाव करना भी तो अनुचित होता?
शान्तिपूर्वक सारी बातें सुनते हुए प्रजापति ब्रह्मा बोले कि -”मैं दिव्य दृष्टि से बस कुछ देख रहा था। बहुत देर तक असमंजस रहा कि आप दोनों में कौन दुष्ट है? व कौन भक्त? क्रोध में दोनों ही आपे से बाहर हो रहे थे। सूझ नहीं पड़ा रहा था कि किसे बचाया जाय, किस पर प्रहार किया जाय? आवेशग्रस्त स्थिति में दोनों को देखते हुए मैंने न आने का निर्णय लिया। गलत प्रहार से बचाव करना भी तो अनुचित होता?