एक व्यक्ति नितान्त निर्धन था। अनुशासित भी। वह कोई बड़ा पुण्य परमार्थ करने की भावना से आकुल था। समाधान के लिए किन्हीं तत्वज्ञान के पास पहुँचा।
पूरी बात समझ कर उनने परामर्श दिया कि जो तालाब उथले हो गये है उन्हें खोदते रहने की तप साधना में लगा। इससे पशुओं को, धोबियों को, गहरे कुओं को, पक्षियों को, मनुष्यों को, नित्य प्रति लाभ मिलेगा। यह पुण्य तुम्हारी स्थिति में बिल्कुल उपयुक्त और महत्वपूर्ण फलदायक सिद्ध होगा। उसने वही किया।
राजा और मंत्री में विवाद चल रहा था। राजा कहता था कि मनुष्यों में अधिकाँश सच्चे होते है। मंत्री कह रहा था कि यदि समुचित निगरानी रखी जाय तभी लोग सच्चे रह सकते है। निगरानी के अभाव में सभी अवसर का लाभ उठाते है और बेईमान बन जाते है।
विवाद का अन्त न होते देखकर मंत्री ने अपनी बात प्रमाणित करने का दावा किया। राजा ने बात मान ली। एक पक्का तालाब बनवाया गया। जब वह पूरी तरह तैयार हो गया तो नगर में मुनादी कराई गई कि इस तालाब में हर घर से एक लोटा दूध डाला जाय। रात के समय डालना होगा। तालाब पर कोई चौकीदारी न रहेगी।
रात में लोग आये। सभी ने सोचा जब सभी दूध डालेंगे तो मेरे एक लोटे में यदि पानी रहे तो किसी को पता भी न चलेगा। यही विचार सभी के मन में अनायास ही घूम गया। सभी ने पानी के लोटे डाले।
दूसरे दिन राजा और मंत्री दोनों तालाब को देखने आय। देखा तो पूरा तालाब पानी से भरा था। उसमें एक लोटा भी दूध का न था।