जैव चुम्बकत्व में निहित शेक्त सम्वर्धक सामर्थ्य

March 1989

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अन्यान्य शक्तियों की तरह मानवी चेतना की प्रगति में जैव चुम्बकत्व की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। यह शक्ति समस्त संसार में वायु एवं आकाश तत्व, क्वान्टा तरंगों, सूक्ष्म बिखरे प्रकाश किरणों के रूप में समाई हुई है। मानवी काया ही नहीं वरन् जीव-जन्तुओं में यही जैसे चुम्बकत्व कभी प्रत्यक्ष चुम्बक के रूप में एवं कभी प्रकाश किरणों के रूप में परिचय देता है, किन्तु जीवितों में यह जैव चुम्बक जो प्रमुख कार्य करता है, वह है इसकी उपस्थिति से शरीर की टूट फूट का अपनी पूर्व की स्थिति को प्राप्त कर लेना।

“द रुट्स आफ काशीयसनेस” नामक पुस्तक में प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जेफरे मिशलोव ने लिखा है कि पाश्चात्य देशों में इस जैव चुम्बकीय शक्ति का पता लगाने हेतु अनेक प्रयोग सम्पन्न हुए है। सुप्रसिद्ध रूसी मनोवैज्ञानिक अलेक्जेन्डर गोवौच ने अपनी शोध के दौरान पाया है कि प्रत्येक जीवित पदार्थों के जीव कोशों से अदृश्य विकिरण निःसृत होता है। इसे उन्होंने जैविक विकिरण नाम दिया। ठीक ऐसी ही जानकारी मास्को विश्वविद्यालय में वायोफिजिक्स के चेयरमैन डा बोरिस ने भी दी है। डी बोरिस के अनुसार जीव-जन्तुओं के जीव कोशों से निकलने वाला चुम्बकीय प्रकाश ठीक वैसा ही है जैसे इन्फ्रारेड किरणों क्षरा प्रकाश निस्सृत होता है। अंधेरे में भी इससे गुप्तचरी की जा सकती है। उन्होंने देखा कि पौधों के प्रत्येक स्वतंत्र जैव कोशों से हल्का चमकीला दृश्य प्रकाश निकलता है जो पत्तों में परिलक्षित होता है इन प्रकाश किरणों में चुम्बकीय शक्ति विद्यमान रहती है। यह प्रकाश निरुद्देश्य अथवा अस्त व्यस्त नहीं निकलते वरन् पौधों के चयापचय एवं प्रकृति के अनुरूप निकलते है। इन किरणों का सम्बन्ध रोगों से भी है, जिनके बारे में अब पूर्व ही पता लगाया जा सकता है। पौधों में यह प्रकाश जड़ में निहित नमक, लवण, खाद की अधिकता अथवा न्यूनता एवं बैक्टीरिया, फन्गस के हमलों पर निर्भर करता है। इससे स्वस्थ एवं रोगी पौधों में भिन्नता का परिचय मिलता है। ठीक ऐसी ही चुम्बकीय प्रभा मनुष्य के शरीर से भी निःसृत होती है, जो तेजोवलय से भिन्न दिखाई पड़ती है। जिसमें रोग के आगमन की पूर्व चेतावनी का संकेत रहता है। अमेरिका के वैज्ञानिक विलियम जोइन्ल ने इस सम्बन्ध में गहन अध्ययन के उपरान्त विशेष तथ्यों को उजागर किया है। पाश्चात्य जगत में इस आधार पर रोगी बनने से पूर्व ही सुरक्षा के उपाय किये जाने एवं रोग मुक्त रहने के विभिन्न प्रयोग चल रहे है। यह चुम्बकीय शक्ति वास्तव में प्राण ऊर्जा का ही एक रूपांतरित स्वरूप है। यह प्राण जिस प्राणी में जिस अनुपात में होता है, वह व्यक्ति उतना ही स्फूर्तिवान, तेजस्वी एवं साहस का धनी होता है जबकि इसका अभाव मनुष्य को निस्तेज, उदास मुरझाये फूल सा लुंज पुंज एवं वीर्यहीन बना देता है।

यह चुम्बकीय शक्ति मात्र रोगों के बारे में ही जानकारी नहीं देती है वरन् हड्डियों की टूट फूट को ठीक करने, एवं अस्त व्यस्त ऊतकों को व्यवस्थित करने में इसकी अहम् भूमिका होती है। इस सम्बन्ध में अमेरिका के मूर्धन्य शरीर शास्त्री डा हेराटड एम्बर ने वरिष्ठ मनोविशेषज्ञ लेबनार्ड जे राबिट्ज के साथ “जीवन विकास के विद्युत चक्रीय सिद्धान्त” पर गहन अनुसंधान किया है। सूक्ष्मग्राही यंत्र-उपकरणों के माध्यम से संवेदनाओं की शरीर पर प्रतिक्रिया का अध्ययन करने पर उन्होंने पाया है कि जीवित प्रोटोप्लाज्म के विकास के लिए एवं टूट फूट की मरम्मत हेतु यह जैव विद्युत चुम्बकीय शक्ति महती भूमिका निभाती है। इसे उन्होंने “लाइफ-फील्ड” नाम से सम्बोधित किया है। उनके अनुसार लाइफ फील्ड का मानवी गुण कर्म-स्वभाव से सीधा सम्बन्ध है। व्यक्ति के चिन्तन, चरित्र, दृष्टिकोण एवं व्यवहार के अनुसार इसमें घट बढ़ होती रहती है मनुष्य की प्राणशक्ति यही है जो शरीर के अंग-अवयवों, कोशिकाओं की विकृतियों को दूर करती और टूटी हड्डियों को शीघ्र जुड़ने में सहायक होती है। भावनात्मक स्तर में उत्कृष्टता की अभिवृद्धि के साथ जीवन क्षेत्र अधिकाधिक सघन होता चला जाता है, फलतः व्यक्ति पूर्णतः स्वस्थ सन्तुलित एवं सुखी समुन्नत बनता चला जाता है। इसकी विरलता व्यक्ति की आन्तरिक कमी को दर्शाती है। यह मस्तिष्क के आसपास विशेष रूप से दृष्टिगोचर होती है जिसका चित्रांकन करना अभी सम्भव नहीं है अब इसमें आने वाला उतार चढ़ाव व्यक्ति की बाह्य बनावट से सम्बन्धित नहीं है। वरन् आन्तरिक बनावट एवं पर्यावरण के विद्युतीय दबाव से सम्बन्धित है। वातावरण के आयन मण्डल में जब कोई गम्भीर उथल पुथल होती है, उसका प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे शरीर की सामान्य जैव विद्युत चुम्बकीय शक्ति पर पड़ता है। उससे सामान्य क्रियाशीलता गड़बड़ा जाती है। उस उथल पुथल व असंतुलन से ही शरीर में कई तरह की मानसिक व शारीरिक व्याधियां उठती दिखाई देती है। किन्तु वातावरण के आयनों का प्रभाव कमजोर अंतःकरण एवं हीन वृत्तियों वाले मनुष्यों पर अधिक पड़ता देखा गया है, जबकि सबल शक्ति वाले इसे यो ही झेले लेते है। यही जीवनी शक्ति या जैव चुम्बकीय शक्ति का चमत्कार है।

डा राबिट्ज ने पाँच सौ व्यक्तियों पर विलिय प्रयोग किये तथा पाया कि मनोरोगी की विभिन्न मनोदशाओं के अनुरूप इस जीवन क्षेत्र में परिवर्तन दिखाई देता है। यह मनोविकृति से विशेष सम्बन्धित है। हीन भावना एवं आत्मबल शक्ति रहित व्यक्तियों का यह क्षेत्र सीमित एवं घटते वाला होता है जिसमें तन्तुओं एवं शारीरिक गड़बड़ियों को ठीक करने की क्षमता कम होती है। फलस्वरूप शारीरिक रूप से स्वस्थ दिखाई पड़ने वाले व्यक्ति इसकी न्यूनता के कारण, थोड़े थोड़े संकट, कष्ट कठिनाइयों से डर कर आत्म-हत्या जैसे .... कृत्य करते देखे गये है एवं ऐसे व्यक्तियों की शारीरिक निवृत्ति लम्बे समय तक बनी रहती है। विशेष उपचार करने पर भी टूट फूट की भरपाई जल्दी नहीं हो पाती। जबकि इसकी अधिकता, अर्थात् निर्मल, आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति युद्ध के मैदान में घायल होने, अंग भंग होने की दशा में भी लड़ते रहते है। इससे इसकी महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।

इस सम्बन्ध में न्यूयार्क अस्पताल के डा0 राबर्ट ओवेकर ने उभयचर जीवों पर ऐसे कई प्रयोग किये जिससे जाना जा सके कि इन के पैरों की चोट कैसे ठीक हो जाती है, एवं हड्डियां टूटने पर जल्दी कैसे जुड़ जाती है। उन्होंने देखा कि चोट पहुँचे पैरों की हड्डियां वहाँ से तुरंत “करेन्ट आफ इन्जरी” (चोट लगने का सन्देश) प्रवाहित करती है, जो मस्तिष्क के पुनः उत्पादक तन्तुओं से जुड़ी होती है, वहाँ से तत्काल पुनः उत्पादक शक्ति आकर अपनी सक्रियता के द्वारा टूटे अंगों को ठीक कर देती है। बेकर ने आगे बताया है कि यही सिद्धान्त मनुष्य की टूटी हुई हड्डियों, अथवा तन्तुओं को छोड़ने में लागू होता है। यह विद्युत धारा प्रचण्ड रूप से संवेदना सम्पन्न, भावना एवं आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों में तत्काल उत्पन्न होती है और व्यक्ति को स्वस्थ बना देती है। जबकि संवेदना रहित व्यक्तियों में अधिक समय लगता है।

मनोविशेषज्ञ डा डी. एच विल्सन के मतानुसार इस चुम्बकीय क्षेत्र का विभिन्न तन्तुओं, रक्त दबाव, त्वचा की क्षतिरोधक क्षमता आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि शारीरिक बनावट में एकता है किन्तु मानसिक कमी अथवा मानसिक रूप से सबल होने पर इसका प्रभाव भिन्न देखा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक जीवन चर्या का सम्बन्ध स्वस्थ शरीर और सुसंस्कृत मन के निर्माण से है इसके विपरीत जीवन चर्या अपनाने पर तन्तुओं की टूट-फूट-मरम्मत करने वाली जीवनी शक्ति निरन्तर बढ़ती ही जाती है।

मानवी काया इच्छाओं, भावनाओं, विचारणाओं द्वारा संचालित है। जैव चुम्बकत्व की इसमें प्रधान भूमिका देखी जा सकती है। यदि चिन्तन का बिखरा हुआ प्रवाह ऊर्ध्वगामी है। तो चुम्बकीय धाराएँ शक्ति संवर्धन एवं मनोबल संकल्प बल में प्रचण्ड बुद्धि करती देखी जा सकती है। यही प्रवाह अधोगामी होने पर शक्ति का क्षरण करता व काय संतुलन को अस्त व्यस्त कर देता है। एकाग्रता व संयम द्वारा शक्ति का निग्रह व उसे ऊर्ध्वगामी बनाने में ही मनुष्य की समझदारी है।


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