जीवन में उतारने का प्रयास (Kahani)

March 1989

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रावण सीता को हरण करके लिये जा रहा था। रोकने बचाने वाला वहाँ कोई था नहीं। जो थे वे अपनी जान बचाने के लिए छिपकर बैठ गये थे।

पेड़ पर एक गिद्ध बैठा था जटायु। आयु की दृष्टि से वह वृद्ध हो चुका था। ....कम भी थक गया था। रावण को पराजित कर सपना उसके पते की बात नहीं थी। फिर भी उसने सोचा अनीति को चुप रहकर देखते रहने की अपेक्षा तो यह अच्छा है कि विरोध और संघर्ष करते हुए जान गँवा दी जाए। सफलता भले ही ना मिले पर आदर्श अपनाने का उदाहरण तो बना रहेगा। वह लड़ने के लिए तैयार हो गया रावण पर टूट पड़ा युद्ध में जीतना तो कठिन था, वह घायल होकर जमीन पर गिर पड़ा

राम जब सीता को तलाश करते हुए उधर से निकले। घायल जटायु सारा वृतान्त सुना तो वह भाव विभोर हो गए। छाती से लगाया और नयन जलों से उसके घाव धोये।

दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान ने स्वयंवर में संयोगिता को पाया। वह असाधारण सुन्दरी थी। पृथ्वीराज उनके आने पर अतिशय आसक्त रहने लगे और अधिकाँश समय राजमहल में ही बिताने लगे। राजकाज चलाना मंत्रियों के जिम्मे चला गया।

इस समाचार ने शत्रुओं की हिम्मत बढ़ाई और वे आक्रमण करके दिल्ली लूटने की तैयारी करने लगे। देश और विदेश के शत्रुओं का गठबंधन हो गया। भीतर से विद्रोह और बाहर से आक्रमण का दुहरा सिलसिला चल पड़ा। राज काज चलाने के साथ-साथ शत्रुओं से निपटना भी मंत्रियों के हाथ चला गया वे इस दुहरी आपत्ति को संभालने में सफल न हो सके।

पृथ्वीराज की विलासिता की सर्वत्र निंदा होने लगीं। साथ ही संयोगिता की नादानी पर भी उँगली उठने लगी। क्षति को न देखकर जिन्हें निजी विलास सुहाये उनकी भर्त्सना स्वाभाविक भी थी।

पृथ्वीराज स्वयं न समझ पाये तो संयोगिता को आगे आना पड़ा। राजा का विरोध करके उन्हें शासन संभालने के लिए प्रेरित करना पड़ा। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। प्रमाद ने पृथ्वीराज का विलास वैभव और यश सभी छीन लिया और उन्हें राज ही नहीं प्राण भी त्यागने पड़े।

मरघट में निवास जीवन के साथ मृत्यु को भी स्मरण रखने का तथा निर्भयता का प्रतीक है। निर्जीवता आये नहीं तथा मृत्यु का स्मरण रखकर संतुलन बना रहे, यह आवश्यक हैं।

शिव के कमर में व्याघ्र चर्म दुष्टात्माओं की चमड़ी उधेड़ने का तथा हाथ में त्रिशूल-अज्ञान, अभाव और आसक्तियों के संहार के लिए एवं दुर्विचारों,दुर्भावनाओं के पीछे उनका त्रिशूल अपने आप भागता है। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है। वह पुकार-पुकार कर कहता है कि शिव कल्याण के देवता है। उनके विचारों रूपी खेत में कल्याणकारी योजनाओं के अतिरिक्त और किसी वस्तु की उपज नहीं होती। विचारों में कल्याण की समुद्री लहरें हिलोरे लेती हैं। उनके हर शब्द में सत्यम् शिवम् की ही ध्वनि निकलती है। डमरू से निकलने वाली सात्विकता की ध्वनि सभी को मंत्र मुग्ध-सा कर देती है और जो भी उनके समीप आता है, अपना सा बना लेती है।

भगवान का वाहन वृषभ है वह सज्जनता, सौम्यता और कर्मठता श्रमशीलता का प्रतीक है। तात्पर्य यह कि शिव का साहचर्य उन्हें मिलता है जो स्वभाव से सरल और सौम्य होते है, जिनमें छल छद्म आदि विकार नहीं होते। साथ ही जिनमें आलस्य न होकर निरन्तर काम करने की दृढ़ता होती है। वस्तुतः यही वह जीवन-व्यवस्था है जो व्यक्ति को असाधारण बनाती है। जो शक्ति शिव में पाई जाती है, उसी शिव उपासकों में भी वह वृत्तियां घुली हुई होनी चाहिए।

गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिव जी के जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। सांसारिक व्यवस्था को चलाते हुए भी वे योगी रहते है, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते है। वे अपनी धर्म पत्नी को भी मातृ शक्ति के रूप में देखते हैं। यह उनकी महानता का दूसरा आदर्श है। ऋद्धि सिद्धियां उनके पास रहने में गर्व अनुभव करती है। यहाँ उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्म-कल्याण की साधना असंभव नहीं। जीवन में पवित्रता रख कर उसे हँसते खेलते पूरा किया जा सकता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिव मानव जीवन की उन सभी आध्यात्मिक विशेषताओं के प्रतीक हैं जिनके बिना मनुष्य जीवन पाने का अर्थ हल नहीं होता। मनुष्य का धर्म उसकी विवेक वृद्धि है। जिसके सहारे वह ज्ञान-विज्ञान की ओर अग्रसर होता है और मनुष्य से देव-नर से नारायण बनने में समर्थ होता है। इसकी सामर्थ्य प्राप्त करके ही आत्म कल्याण और लोकहित की परम्परा जीवित रखी जा सकती है। यह सन्देश हमें आदि काल से भगवान शिव देते चले आ रहे है। इन आध्यात्मिक रहस्यों को हृदयंगम करना और तद् अनुरूप जीवन की रीति नीति बनाना सच्चे शिव भक्त का परत लक्ष्य है। अच्छा हो शिवरात्रि के दिन हम मात्र पूजा कर्मकाण्ड तक सीमित न रहे देवाधिदेव महादेव से जुड़ी दिव्य विभूतियों का चिन्तन करें, उन गुणों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें।


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