सज्जनता ही नहीं साहस भी!

March 1989

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सज्जन कष्ट भोगते हैं और दुष्ट-दुराचारी मौज मजा कराते हैं। ऐसे अवसरों पर लोग यह कहते देखे गये हैं कि भगवान के यहाँ न्याय नहीं हैं अथवा सज्जनता का जो महात्म्य बताया जाता है, वह सही नहीं है।

ऐसा कहने वाले सन्त सज्जन की परिभाषा सही रीति से कर नहीं पाते और अधूरी-अधूरी बात का वह प्रतिफल चाहते हैं जो पूरी का मिलना चाहिए। भोजन तैयार करने में मात्र आटा दाल का पास में होना ही पर्याप्त नहीं, उसके लिए आग पानी और पकाने का बर्तन भी चाहिए अन्यथा दाल होने मात्र से किसी का पेट भरेगा।

सज्जनता की परिभाषा सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह मात्र नहीं है। यह भी सज्जनता के अंग हैं, किन्तु इतने मात्र से ही किसी को सत्पुरुष कहलाने का अधिकार नहीं मिल जाता।

पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस, उत्साह, लगन भी व्यक्तित्व विकास के आवश्यक अंग हैं, जिससे इन गुणों का अभाव होगा, वह उपार्जन न कर सकेगा, सफलता प्राप्त न कर सकेगा। चाहे वह सत्यवादी, ब्रह्मचर्य ही क्यों न हो। सद्गुणों में क्षमा, दया, दानशीलता आदि की गणना करना अच्छी बात है, पर इन्हें ही पूर्ण नहीं मान बैठना चाहिए अन्यथा जो लाभ अधूरी परिभाषा के अंतर्गत आते हैं वे मिल जायेंगे, किन्तु जिन्हें नहीं अपनाया गया है उनका प्रतिफल कैसे मिलेगा।

भौतिक सफलता के लिए मनुष्य को परिश्रमी और लगन शील होना चाहिए जो कार्य हाथ में ले उसे पूरा करके छोड़ने के लिए शारीरिक तत्परता और मानसिक तन्मयता की आवश्यकता है। शारीरिक श्रम और मानसिक लगन जिस कार्य में नियोजित होगी वह सफल होगा। उनके अभाव में आलसी प्रमादी को असफलता ही मिलेगी, भले ही वह सन्तोषी सदाचारी ही क्यों न हो?

इस संसार में दुष्ट दुराचारियों की कमी नहीं। वे सभी पर अपना हाथ साफ करते हैं। वे अपनी घात चलाने के लिए सबसे पहले उन्हें चुनते हैं, जिन्हें चौकन्ना रहने की और आत्मरक्षा की जागरूकता नहीं। वे समझते हैं कि वे स्वयं जैसे सत्यवादी हैं वैसा ही दूसरों को समझते होंगे और दुष्टता की चाल या घात को समझ नहीं रहे होंगे, इस लिए उन पर आक्रमण करने में सरलता रहेगी। वे चौकन्ने और हिम्मत वाले पर कुचक्र चलाते हुए डरते हैं और साथ ही प्रतिरोध का मजा चखाने की संभावना सोच कर अवसर देखकर ही हाथ डालते हैं। सज्जन को मूर्ख समझा जाता है और पग-पग पर उन्हें ठगा जाता है। हानि उठाने के उपरान्त वे कहते हैं कि भगवान के यहाँ न्याय नहीं। सज्जन को घाटा सहना पड़ा और दुर्जन ने लाभ उठाया यह कथन गलत है। कहना यह चाहिए कि सतर्कता और साहसिकता के अभाव में उन्हें घाटा पड़ा। यह गुण भी सज्जनता के अंतर्गत ही आते हैं कि दुरात्माओं की भरमार दुनियाँ में है, दन की घातें चलती रहती हैं। उन से चौकन्ना रहना चाहिए और प्रतिरोध के जिए साहस जुटाना चाहिए। इसके अभाव में भगवान से यह आशा करना कि वे हर किसी की चौकीदारी करते फिरेंगे गलत है।

ब्रह्मचर्य परीक्षा में फेल हो गये और अब्रह्मचारी पास। इससे ब्रह्मचारी होने न होने का कोई संज्ञा नहीं। कितनी लगन और परिश्रम के साथ पढ़ा गया यह प्रसंग महत्वपूर्ण है। जो काम हाथ में लिया जाय, उसे पूरे मन से किया जाय, यह भी आध्यात्मिकता है। आलसी, प्रमादी, आपने को संतोषी और भगवत् भक्त कहकर श्रम से बचना चाहे और भगवान को दोष दे, तो यह गलत है।

चोर, उचक्के अपनी बुद्धिमानी, साहसिकता और सूझबूझ का लाभ उठाते हैं, यह सद्गुण है। भले ही वह चोर के पास क्यों न हो। साहसी और पराक्रमी विजयी होता है, भले ही वह दुष्ट- .... दूर ही क्यों न हो? दुरात्मा होने का दुर्गुण उसको निन्दनीय, अप्रामाणिक सिद्ध करेगा और दोष के बदले दूसरों का विश्वास खो देने से लेकर राज दण्ड मिलने तक की प्रताड़ना का भाजन बनावेगा, किन्तु साहस के बदले सफलता भी उपलब्ध करा देगा।

भूल यहाँ होती है जब लोग दया, क्षमा, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि को ही आध्यात्मिक गुण मानकर उतने भर से सफलताओं की आशा करते हैं उन्हें समझना चाहिए कि भला आदमी होने से आत्म संतोष और लोक सम्मान जैसी उपलब्धियाँ मिल सकती हैं, पर सांसारिक सफलता के लिए जिन लौकिक गुणों की आवश्यकता है, उनकी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। भगवद् भक्त होने के लिए माला जपना और सत्य बोलना ही पर्याप्त नहीं, साथ में हनुमान, अंगद, भीम, अर्जुन जैसा पुरुषार्थ भी होना चाहिए अन्यथा दुष्ट-दुरात्माओं के साथ प्रतिस्पर्धा बन सकेगी।

सद्गुणों की परिभाषा में दान, दया को ही सम्मिलित करें और पराक्रम, पुरुषार्थ को उस में से हटा दे तो बात सर्वथा अधूरी रहेगी। अधूरी बात का अधूरे काम-अधूरे व्रत का प्रतिफल भी अधूरा ही होना चाहिए। पूरी बात तब बनती है जब सद्गुणों की सज्जनता की परिभाषा में दया, धर्म के साथ-साथ प्रतिरोध और पराक्रम को भी सम्मिलित किया जाय।

कोई समय था जब सज्जनों का बाहुल्य था। उनके बीच सद्गुणों का शालीनता का परिचय देना ही उचित था। जिन दिनों भौतिक उन्नति की आवश्यकता नहीं थी उन दिनों पीपल के फलों से गुजारा करने वाले पिप्पलाद और खेत में गिरे हुए दाने बीनकर पेट भर लेने वाले कणाद भी शान्ति पूर्वक गुजारा कर लेते थे। सुविस्तृत जंगलों में एक दो गाय पालना कुछ भी कठिन नहीं था जंगलों में चर करके पेट भर लेती थी और पालने वालों को दूध मुफ्त में मिल जाता था, पर आज तो पूरे परिवार के लिए इस महँगाई के जमाने में पूरा शारीरिक और मानसिक श्रम करने से ही गुजारा चलता है। अब धनी, परोपकारी, राजा श्रीमन्त भी नहीं रहे। इसलिए सन्त सज्जनों को भी रोटी कमाने के लिए कठोर शारीरिक और मानसिक श्रम की आवश्यकता पड़ती है। अब आलस्य और प्रमाद अपनाने वालों के लिए यह आशा करना व्यर्थ है कि भगवान सब का पेट भर देते हैं।

दुष्ट-दुरात्माओं से भगवान ने भक्तजनों की रक्षा तो की थी, पर वह हो सका तभी, जब सुग्रीव की सेना उनकी सहायता के लिए जुट गई और पाण्डव परिवार ने संघर्ष को सच्ची भगवद् भक्ति समझा। आज भौतिक स्थिरता और प्रगति के लिए लौकिक जीवन में सफलता प्रदान करने वाले गुणों से तो दूर रहा जाय और यह आशा की जाय कि भगवान अभीष्ट सफलताएँ भी प्रदान करेंगे और सताने वालों को स्वयं सुदर्शन चक्र चला कर मार, पीट कर भगा देंगे, तो वह आशा, दुराशा मात्र है।

सन्त सज्जनों को संयमी, सदाचारी भी होना चाहिए और पुरुषार्थी पराक्रमी भी। इन सब विशेषताओं को अर्जित करने पर ही यह आशा करनी चाहिए कि भगवान हमारी सहायता करेंगे। यह समय द्रौपदी और गज की तरह अनायास ही प्रचुर सहायता प्राप्त करने जैसा नहीं है।


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