योगी अरविन्द का अतिमानस और धरती पर स्वर्ग

August 1986

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श्री अरविन्द के दर्शन की विशिष्टता यह है कि वे किसी अतिवादी मार्ग पर चलकर लक्ष्य तक पहुँचने को गलत मानते हैं और बुद्ध दर्शन पर ही विश्वास करते हैं, जिन्होंने हर क्षेत्र में मध्यम मार्ग को ही औचित्य पूर्ण बताया है, जैसा कि उनके दर्शन से स्पष्ट होता है। महर्षि अरविन्द योग एवं भोग दोनों की समन्वयात्मक मध्य स्थिति को ही सही मानते व अपनाने पर जोर देते हैं। इसी में पूर्वार्त्त और पाश्चात्य दोनों जगत का हित साधन है। उनके विचार में योग के लिए घर-संसार छोड़ना जरूरी नहीं है। वे दैनन्दिन कर्म को ही योग मानते हैं और गीता के “योग कर्मसु कौशलम्” सूत्र का समर्थन करते हैं। उसका मानना है कि योग साधना जिस तन्मयता से मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघरों में भिन्न रूपों में चलती है, उसी तत्परता व लगन से वह ऑफिस-कारखानों में, दैनिक दिनचर्या के साथ भी चलती रह सकती है। आवश्यकता है सिर्फ इसमें रस लेने की, अभिरुचि अन्तः से पैदा करने की।

अरविंद-दर्शन की सबसे बड़ी खासियत यही है कि उन्होंने अपनी कल्पना में आध्यात्मिक जीवन को पूरी मनुष्य जाति के लिए संभव बताया है और कहा है कि यह शक्ति हर व्यक्ति के अन्दर विद्यमान है और प्रयत्नपूर्वक उसे प्रकट किया जा सकता है। उनने अपने दर्शन में न सिर्फ इसी संभावना को अभिव्यक्त किया है, वरन् इससे भी आगे की बात कही है कि सम्पूर्ण पृथ्वी को अतिमानवी अतिमानस से अभिपूरित किया जा सकता है, सम्पूर्ण मानव जाति को अध्यात्मजीवी जाति के रूप में परिणत कर देव-स्तर तक पहुँचाया जा सकता है। फिर वह इसी मानव शरीर में, इसी लोक में उन समस्त सुखों व आनन्द को भोग सकेगा, जिसे अभी धरती पर अलभ्य स्वर्ग में उपलभ्य माना जाता है। इस तथ्य का उद्घाटन उन्होंने अपने महाकाव्य “सावित्री” में किया है। उसमें उनने दावा किया है कि यह रूपांतरण आयेगा और अवश्य आयेगा परन्तु यह कोई दैवी चमत्कार के रूप में घटित नहीं होगा। न ही आकस्मिक रूप में आयेगा वरन् इसकी प्रगति धीमे-धीमे होगी। वे कहते हैं कि “मनुष्य का रूपांतरण अवश्यंभावी है। वह होकर रहेगा और मनुष्य अध्यात्मजीवी अवश्य बनेगा। परम चेतना के भीतर जो अद्भुत शक्तियाँ छिपी हैं, उसका प्रकटीकरण मानव में होकर रहेगा।” महर्षि अरविंद ने इसी जीवन को दिव्य जीवन की संज्ञा दी है।

वस्तुतः यह कोरी कल्पना नहीं, अपितु एक ऐसा सर्वांगपूर्ण जीवन दर्शन है जो आत्मिकी के मूलभूत सूत्रों से जनसाधारण को परिचित कराता है। यह दर्शन यह सिखाता है कि अध्यात्म कायरों का नहीं, हिम्मत वालों, जीवट वालों के लिये है। अध्यात्म का अवलम्बन किसी को पराश्रित, निठल्ला नहीं बनाता बल्कि उसे नर मानव से देव मानव बनाता, ऊँचे सोपानों पर चढ़ाता है।

योगीराज अरविन्द का “अतिमानस” वस्तुतः भगवद् चेतना का ही पर्याय है जो कि कालक्रम में निकट भविष्य में प्रकट होने वाला है। यह विकास की अन्तिम स्थिति होगी। चरम विकास का अन्तिम सोपान। इससे पूर्व मन के चार निम्न सोपानों का योगीराज ने उल्लेख किया है- उच्चतर मन, प्रकाशित मन, संबुद्ध मन तथा ओवर माइण्ड। अतिमानस इन सभी से ऊपर की व अन्तिम स्थिति है।

अरविन्द कहते हैं कि आज जो गहन अन्धकार मानवी बुद्धि के सामने अज्ञान वंश छाया हुआ है उसे दूर कर पाना मानव के वश की बात नहीं। जब कभी यह धुँधलका छंटेगा तो वहाँ कोई चिन्तक अथवा विचारक नहीं होगा, होगा सिर्फ एक दुष्टा मानव-आत्म दृष्टा। फिर उसके लिए कुछ भी जानना समझना असंभव न होगा। योगीराज के अनुसार जान का अरुणोदय बुद्धि के अवसानान के बाद ही होता है। अगली दिनों यही क्रम चलेगा और इससे अति मानव की उत्पत्ति होगी।

बुद्धि के धरातल से ऊपर उठने के बाद मनुष्य में तीन प्रकार के रूपांतरण का उल्लेख श्री अरविन्द ने अपने दर्शन में किया है- चैत्तिक, आध्यात्मिक और अतिमानसिक। अहं के विसर्जन को उनने चैत्तिक अथवा “साइकिक” रूपांतरण कहा है। ज्ञान के अवतरण को आध्यात्मिक परिवर्तन के अंतर्गत रखा, जबकि आरोह-अवरोह के अवलम्बन द्वारा अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति, को उनने अतिमानसिक उत्थान बताया है। संभवतः यही धरातल तैतिरीयोपनिषद् का विज्ञानमय कोश है।

यद्यपि श्री अरविन्द ने इस रूपांतरण-प्रक्रिया की पूर्णता की कोई निश्चित अवधि नहीं बतायी है, किन्तु यह उनने स्पष्ट रूप से कहा है कि आरंभ में यह रूपांतरण स्वल्प लोगों को प्राप्त होगा। बाद में यही लोग समाज की धुरी साबित होंगे, जिसके गिर्द सारा समाज, सारा विश्व परिभ्रमण करेगा और अन्ततः उसका भी रूपांतरण हो जायेगा।

यह तो उनने भविष्य-दर्शन के आधार पर कहा है; पर वस्तुतः श्री अरविन्द के योग का मूल उद्देश्य क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने एक बार कहा था- “पूर्ण योग उस शक्ति को, उस प्रकाश को, उस चेतना को, उस वास्तविकता को पृथ्वी पर अवतरित करता है, जो पार्थिव चेतना को ऊपर उठा सके, उसे सामान्य से असामान्य बना सके और जो कुछ भी इस धरित्री पर है, उसे पूर्ण रूप से परिवर्तित कर सके। एक ऐसा देवोपम वातावरण बनाने में समर्थ हो, जो धरती पर ही स्वर्ग की अनुभूति करा सके।”

वे कहते हैं कि “किसी अन्य लोक की झलकी प्राप्त करना, ज्योति दर्शन होना, कोई आध्यात्मिक अनुभूति होना, ‘स्व’ की स्थिति से ऊपर उठ जाना, सार्वभौम आत्मा का अनुभव होना, यह तो हमारी आत्मिक प्रगति के आरंभिक सोपान भर है। प्राचीन योगी इसी को इति श्री मानकर स्वर्ग-मुक्ति की कल्पना करते थे, यही उनका परम लक्ष्य होता था”।

“पर हमारा उद्देश्य तो इससे बहुत ऊँचा है। हम चाहते हैं कि महत् चेतना, ब्राह्मी चेतना को उतार कर शरीर स्तर तक लाया जाय, जिससे हममें सार्वभौमिकता पूर्ण रूप से संव्याप्त हो सके। यदि यह प्रथम शर्त ही पूरी न हो सकी, तो रूपांतरण का पहला ही अनुबन्ध अधूरा रह जायेगा।”

रूपांतरण की इस प्रक्रिया में प्रकृति मानव से महामानव, नर से नारायण क्षुद्र से महान बनाने के लिए अपने ताने-बाने बुनने लगी है, मगर श्री अरविन्द का विचार है कि चूँकि मनुष्य इस सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ प्राणी है, उसमें सोचने-समझने की क्षमता है, अस्तु अगले विकास-क्रम में उसे प्रकृति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ेगा तभी ऐसा संभव हो सकेगा। उनका कहना है कि अब तक की विकास-प्रक्रिया में पदार्थ से जीवन एवं जीवन से मन प्रादुर्भूत ही चुके हैं। अब अतिमन की बारी है, जो मन के भीतर अन्तर्निहित है। विकास के अगले क्रम में मनुष्य को इसी सोपान पर पहुँचना है।

वे आगे कहते हैं कि बुद्धि की क्रिया-प्रतिक्रिया मनुष्य बहुत देख चुका। अब उसे ऊँचा उठाने में बुद्धि असमर्थ है; किन्तु फिर भी यदि मनुष्य उसी पर निर्भर रहा, तो फिर संभव है कि आगे उसका अस्तित्व ही न बच पाये। उनका विश्वास है कि प्रकृति की आरे से बुद्धि मानव को सहायक के रूप में प्रदान की गयी थी, परन्तु यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह बुद्धि को ही अपना सर्वस्व मान बैठा और आज वही बुद्धि उसे पतन-पराभव के गर्त में धकेल रही है। वे कहते हैं कि यदि मनुष्य को अपना अस्तित्व बचाना है तो उसे अतिमन, अतिमानस को अपने अन्तःकरण में उतारना ही पड़ेगा। यही उसका दैवी अनुग्रह का अगला पड़ाव है और संकेत भी। बुद्धि का आश्रय छोड़कर प्रज्ञा में प्रवेश करना ही अब मनुष्य के लिये अभीष्ट है एवं यह उसे करना ही पड़ेगा।

इस संदर्भ में अरविन्द-दर्शन की सबसे अधिक समानता पियरे टेलहार्ड द चार्डिन के चिन्तन के रूप में देखी जाती है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “दि फिनोमिना ऑफ मेन” में अनेक संभाव्यताओं के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानवी विकास की अगली पद-यात्रा चेतना की ओर होगी और समाज अध्यात्मजीवी बनेगा। जिसमें न तो पारस्परिक विद्वेष होगा, न आपसी वैमनस्य। वह अपनी समस्त विपत्तियों, समस्त समस्याओं-संघर्षों से मुक्त होकर रहेगा। किन्तु टेलहार्ड का विश्वास है कि यह सब कुछ विज्ञान ही सम्पन्न करेगा, जबकि श्री अरविन्द इसका प्रतिवाद करते हैं। उनके विचार में विज्ञान में वह सामर्थ्य नहीं कि वह समाज को बदल सके। रूपांतरण अध्यात्म ही कर सकने में समर्थ है, ऐसा वे मानते हैं।

“मैन दि अननोन” एवं “रिफ्लेक्शन्स ऑन लाइफ” के बहुचर्चित लेखक अलेक्सिस कैरेल की मूर्धन्य वैज्ञानिकों में गणना है। अनेकानेक तथ्यों-आँकड़ों के आधार पर वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि मानवी सभ्यता बड़ी तेजी से विनाश की ओर अग्रसर हो रही है और यह सर्वनाश अब सिर्फ बुद्धि पर निर्भर रहकर नहीं टाला जा सकता। यहाँ पर वे भी योगी अरविन्द के स्वर-में-स्वर मिलाकर बोलते हैं कि यदि आगे विनाश को रोकना है, तो मनुष्य को बुद्धि से आगे का विकास करना पड़ेगा, उसे आत्मा और चेतना की ओर लौटना पड़ेगा और उन देवोपम गुणों को फिर से अपने अन्दर प्रतिष्ठापित करना होगा, जो कभी धर्म और अध्यात्म के साथ पुष्पित पल्लवित हुए थे।

कुछ बिन्दुओं पर नीत्से की भी श्री अरविन्द के साथ समानता देखी जा सकती है। कहा जाता है कि महर्षि से पूर्व सुपर मैन की कल्पना नीत्से ने ही की थी। किन्तु दोनों की इस संबंध में अवधारण में जमीन-आसमान का अन्तर है। किन्तु एक अन्य स्थान पर दोनों का मतैक्य स्पष्ट झलकता है। योगिराज ने अब तक की विकास-यात्रा को अतिमानस के अवतरण की तैयारी मात्र कहा है; जबकि नीत्से का कथन भी इसी से मिलता-जुलता है। उसने स्वीकारा है कि अब तक का सम्पूर्ण मानवी इतिहास सुपरमैन के पदार्पण की पूर्व तैयारी भर है। नीत्से ने इस बात को बार-बार दोहराया है कि मनुष्य का विकास अधूरा है और उसका अतिक्रमण होना ही है।

हेनरी बर्सों और मार्टिन हेडेगर की तरह प्रसिद्ध उर्दू शायर मुहम्मद इकबाल ने भी मानवी बुद्धि को विकास का रोड़ा कहा है और सम्पूर्ण मनुष्य जाति को उससे आगे बढ़ने का संदेश दिया है। उनकी निम्न पंक्तियों से स्पष्ट है- “गुजर जा अक्ल से आगे कि यह चिरागे-राह है, मंजिल नहीं है।” और कहना न होगा कि अरविन्द के भी लगभग यही शब्द हैं।

एक पूर्ण मनुष्य की कल्पना करते हुए कबीर कहते थे- “पाछे पाछे हरि फिरै कहत कबीर कबीर”। यह उक्ति पूर्णतः परिपूर्ण रूप से विकसित मानव पर चरितार्थ होती है। इकबाल ने अध्यात्मवादी विकास की परिकल्पना कर मुहम्मद साहब के “तखल्लकुबी अखलाक अल्लाह” अर्थात् “देवत्व को धारण करो” का पुरजोर समर्थन किया है। स्वयं वे कहते हैं- “खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तदबीर के पहले खुदा बन्दे से खुद पूछे, बता! तेरी रजा क्या है।” यही वह पूर्ण मनुष्य है जिसे अरविन्द ने अध्यात्म जीवी महामानव कहा है और मार्टिन हेडेगर ने “आथेंटिक बिइंग” इकबाल ने इसी को “नायबे इलाही” की संज्ञा दी है।

वस्तुतः आने वाला समय मनुष्य के चरम विकास, परिस्थितियों के आमूलचूल परिवर्तन का युग है। दार्शनिक, दूरदृष्टा मनीषी यह कहते ही आ रहे हैं, हमें अपनी भूमिका पहचाननी व निभानी भर है।


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