अग्निहोत्र : एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया, अग्निहोत्र : कुछ जानने योग्य तथ्य

August 1986

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अग्निहोत्र न केवल भारतीय संस्कृति का मान्य धर्म कृत्य है, वरन् उसके पीछे अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का भी समावेश है। इस आधार पर वह जहाँ आत्मोत्कर्ष का प्रयोजन पूरा करता है, वहाँ उसकी भौतिकी प्रतिक्रिया शारीरिक और मानसिक प्रयोजनों की भी पूर्ति करती है। खोया स्वास्थ्य वापस लौटता है। जीवनी शक्ति का चुकता भंडार फिर से भरता है। रोग, कीटाणुओं, विषाणुओं का आक्रमण घटता और निरस्त होता है।

अग्निहोत्र दिव्य औषधियों को वायुभूत बना देते की प्रक्रिया है। उसमें गुणकारक वनस्पतियों के अतिरिक्त समिधा रूप में प्रयुक्त सम्मिश्रण अपनी औषधीय विशेषता के कारण संयुक्त ऊर्जा पैदा करता है, जिसमें दोनों के पृथक-पृथक गुणों का समावेश तो होता ही है, साथ ही मिश्रण से उत्पन्न ऊर्जा और भी अधिक बलवती होती है। गंधक और पोटाश के अलग-अलग रहने पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं होती, किन्तु यदि उन दोनों को पीसकर संयुक्त किया जाय तो भड़कने वाली बारूद बन जाती है। गंधक और पारे को मिलाकर पीसने से कजली बन जाती है। ऐसा ही रासायनिक हेर-फेर समिधाओं और हवन के सम्मिश्रण से होता है। उसके गुण और प्रतिफल ऐसे सामने आते हैं जैसे न समिधाओं में थे और न शाकल्य में। पीला और नीला रंग मिला देने हरा रंग बन जाता है। यों हरे रंग का अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी है, पर नीले पीले का सामंजस्य उस तथ्य की पृथक से भी पूर्ति कर देता है।

यज्ञाग्नि प्रज्वलित करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि समिधायें सूखी प्रज्ज्वलनशील हों। कृमि-कीटकों का उसमें समावेश न हो। बहुत दिनों की रखी हुई पुरानी सामग्री या समिधायें सड़ने-घुनने लगती हैं, तब अग्नि प्रज्ज्वलन में उनका भी समावेश हो जाता है। ऐसी दशा में यज्ञ हिंसामय हो जाता है और उसके वास्तविक गुण चले जाते हैं।

यज्ञ के लिए औषधियों का चयन उनकी प्राणावस्था में किया जाना चाहिए। इसके लिए शास्त्रकारों ने उल्लेख किया है कि किस नक्षत्र में कौन औषधि परिपक्व स्थिति में रसवती होती है। उस अवधि से पूर्व या पश्चात् उसकी स्थिति ऐसी नहीं रहती कि यज्ञ में जो गुण बताये गए हैं, उन्हें सही रूप में प्रदर्शित कर सके। प्रौढ़ होने से पूर्व वनस्पतियों की संज्ञा अबोध अविकसित जैसी मानी गई है। उसमें वे गुण पकने नहीं पाते, जिनका कि लाभ मिलना चाहिए। यही बात उनकी जराजीर्ण स्थिति में भी होती है। जब बीज आ जाते हैं, तो वनस्पति का गुण बीजों में खिंच जाता है और डंठल निःसत्व हो जाते हैं। यह बात अन्न-फसल में भी है। जब उनकी बालें या भुट्टे कट जाते हैं, तो चारा सूख भी जाता है और गुण हीन भी हो जाता है। ठीक यही बात वनस्पतियों के सम्बंध में भी है। वे मध्यकाल में ही उपयुक्त रहती हैं। उनका यौवन काल ही ग्राह्य माना गया है। यज्ञ उसी के उपयोग से सार्थक होता है।

दूरदर्शी चिकित्सक अपने जड़ी-बूटी उद्यान स्वयं लगाते हैं, ताकि उचित समय पर उनका संग्रह किया जा सके। साथ ही यह भी पता चल सके कि एक के बदले दूसरी तो पल्ले नहीं बँध गई। कितनी ही औषधियाँ ऐसी होती हैं, जिनका बाह्य कलेवर आपस में मिलता-जुलता है। स्वाद और गंध में भी एकता होती है, पर रासायनिक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि उनके रासायनिक स्वरूप में भारी अन्तर है। एक में एक प्रकार का गुण है तो दूसरी में दूसरी का। यह अन्तर तभी समझा जा सकता है जब अपना निज का औषधि उद्यान हो। उसकी परखी हुई औषधियां ही लगाई जायें, नियत समय पर तोड़ी जायँ। इसके उपरान्त उसे शुद्ध जल से भली प्रकार धो लिया जाय। अन्यथा पत्तों पर जमते रहने वाले धूलिकण ऐसे हो सकते हैं, जो औषधि का गुणवत्ता में व्यतिरेक उत्पन्न करें और वह व्यतिरेक लाभ के स्थान पर हानि उत्पन्न करने लगे।

यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली औषधियों को छाया में रखा जाय। कड़ी धूप में सुखाने से उनका रस और तैलीय अंश भी वाष्प बनकर उड़ जाता है। इसलिए सतर्कता यह भी रखनी चाहिए कि औषधि हवा में सूखे, मध्याह्न तीव्र धूप से उसका पाला न पड़े। इसे इस प्रकार कूट लेना चाहिए, जिसे जौ कुट कहा जा सके। बिल्कुल मैदा जैसी पीस लेने पर फिर वह औषधि स्तर की बन जाती है। उसे सुरक्षित शीशियों में बन्द रखना पड़ता है, अन्यथा गंध बन कर भी उसका क्षमता हवा में उड़ सकती है और अपेक्षाकृत जल्दी गुणहीन हो सकती है।

शाकल्य में अन्नों का उपयोग करना उपयुक्त नहीं। नवान्न यज्ञ अलग होते हैं। नई फसल आने पर उसके अधपके बीज “होला” कहलाते हैं और उनका होली के अवसर पर होलिका यज्ञ के रूप में प्रयोग होता है। यह एक प्रकार से परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है, जिसके अनुग्रह से हमें यह जीवन सम्पदा प्राप्त हुई। ऐसा यज्ञ दिवाली पर भी हो सकता है। बरसाती-कार्तिकी फसल में भी कई प्रकार के अन्न पकते हैं। ज्वार, बाजरा, मक्का आदि उन्हीं दिनों उपजते हैं। इसलिए वे अपने उपयुक्त अवसर दिवाली पर काम आ सकते हैं।

यज्ञों के लिए आदर्श उपयुक्त समय अमावस्या पूर्णिमा बताया गया है। अमावस्या को “दर्श” कहते हैं, पूर्णिमा तो प्रख्यात है। यज्ञ यों कभी भी किया जा सकता है, पर अमावस्या, पूर्णिमा उसके विशेष प्रयोजनों में काम आते हैं।

अग्नि प्रज्ज्वलन में समिधाओं को इस प्रकार रखा जाना चाहिए कि वेदी या कुण्ड की परिधि में ही वह रहे। अधिक छोटी बड़ी न हो। उनको इस प्रकार चुना जाय कि बीच-बीच में जम जाने की गुंजाइश बनी रहे। यह झरोखेदार चुनाई होती है। इसमें समिधाएं एक दूसरे से अग्नि पकड़ती हैं और ऑक्सीजन सब ओर से मिलती रहने के कारण वे बुझने नहीं पातीं। लौ नीचे से भले ही चौड़ी हो, पर ऊपर जाकर उसकी स्थिति शंकु जैसी हो जानी चाहिए। समिधाएं गीली न हों। अनगढ़पन से चिनने पर तो ऐसा हो जाता है कि वे धुंआ देने लगती हैं। धुएँ में लकड़ी के गीलेपन की भाप और उसके अनुपयुक्त भाग का कार्बन होता है। यह यदि यज्ञ धूम्र में मिला जाय तो फिर अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। अनुपयुक्त तत्व मिल जाने से वह उपयोगी प्रक्रिया निरुपयोगी बन जाती है। इसलिए यज्ञ कार्य में एक कुशल व्यक्ति की जिम्मेदारी इसलिए रहती है कि कोयला बाहर न गिरने दें। लकड़ियों को छितराने न दें। धुएँ की स्थिति बनती हो तो पंखा झलकर उसे ठीक करें। हर हालत में धुंआ रोका जाना चाहिए। जब तक वह रुके न तब तक यजन कृत्य बंद रखना चाहिए। निर्धूम्र अग्नि में ही अग्नि होत्र करने का विधान है।

यज्ञ में यदि कई व्यक्ति सम्मिलित हैं तो उनके द्वारा कुण्ड या वेदी पर अग्नि में डाली हुई सामग्री इतनी होनी चाहिए, जिसे प्रज्वलित अग्नि साथ-ही-साथ आत्मसात करती चले। अधिक मात्रा में डाल देने पर वह इकट्ठी हो जाने पर पिण्ड जैसा बन जाती है और फिर प्रज्ज्वलन में कठिनाई उत्पन्न करती है।

सामान्य अग्निहोत्र सुगंधित गुणकारी वनौषधियों का ही होता है फसल पर नवान्न की आहुति देने के लिए ही विशेष होलिका यज्ञ होते हैं। उनके पीछे ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का और जन साधारण के प्रति मिलजुल कर बाँट कर खाने का संकल्प रहता है। इसलिए होली, दिवाली के यज्ञों को विशेष मान कर उनमें अन्न की आहुतियाँ दी जाती हैं, पर यह अन्न सभी यज्ञों के लिए उपयुक्त नहीं।

प्रचलन कुछ ऐसा चल पड़ा है कि शाकल्य में तिल, जौ, चावल मिलाये जाने लगे हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि मात्र इन धान्यों से ही समूचा हवन कर लिया जाता है। इस प्रचलन के पीछे यज्ञ के साथ जुड़ी वैज्ञानिकता का समावेश नहीं है।

देवी-देवताओं की पूजा-अर्चा में पकवान, मिष्ठान आदि अर्पित करने की परम्परा है। कहीं-कहीं लड्डू, खीर आदि भी यजन किये जाते हैं, घी होमा जाता है और मेवा, फल आदि चढ़ाये जाते हैं। यह देव पूजन हुआ। हो सकता है कि किसी की समझ में यह आया हो कि देवताओं को चढ़ाया गया भोग उन तक नहीं पहुंचता। पुजारी लोग बीच में ही उस पर अपना कब्जा जमा लेते हैं। ऐसी दशा में यह अधिक बुद्धि संगत है कि उनका हवन करके देवताओं को सुगंध लाभ लेने दिया जाय और पुजारियों को कमीशन में हाथ साफ कर लेने से रोक दिया जाय।

जो हो, अग्निहोत्र की शास्त्रीय विधा में वनौषधियों का ही विधान है, उनके साथ शर्करा और घृत के समावेश की ही छूट है। शर्करा में सबसे सुलभ गुड़ है। उससे आगे फलों की शर्करा खजूर, छुहारा, दाख, किसमिस आदि के रूप में हो सकती है। तेल अंश की पूर्ति नारियल, बादाम, अख़रोट आदि से हो जाता है। सामग्री में उन्हें मिलाया जा सकता है या पूर्णाहुति के समय पर उन्हें अन्त में होमा जा सकता है, ताकि सामग्री का जो अंश कच्चा रह गया हो, तो उस चिकनाई के कारण भली प्रकार जल जाय।

केवल अन्नों का हवन निषिद्ध है। उनमें खाद्य तत्व भर होते हैं। वे रसायन नहीं, जिनके कारण शरीरगत आरोग्य और मनोगत संतुलन को अक्षुण्ण रखने में सहायता मिले। अभाव की स्थिति होने पर उसके दूसरे विकल्प हो सकते हैं। मात्र समिधा प्रज्वलित करके छोटी समिधाओं को शाकल्य की तरह होमा जा सकता है। चन्दन, चूरा, अगर तगर जैसे काष्ठ भी इस प्रयोजन में काम आ सकते हैं। समिधाओं में हर काष्ठ प्रयुक्त नहीं होता। वट, पीपल, पलास, आम, छोंकर आदि ही उस प्रयोजन में काम आते हैं। नीम, बबूल आदि को प्रयुक्त नहीं किया जाता। गुड़ और घी मिलाकर उसकी गोलियां भी यजन कृत्य में काम आ सकती हैं। यह सस्ते उपचार हैं डडडडडडड साधारण को अभाव या आर्थिक कठिनाई के कारण डडडडडड न रोकना पड़े।

दैनिक पंच महायज्ञों में रसोई में बने पहले ग्रासों को चूल्हे के समीप ही हवन कर देने का सुगम प्रचलन था। पिछले दिनों भी प्रचलन रहा है। संभव है उसी अन्न यजन को अन्यत्र भी काम लेने के उद्देश्य से अन्न का यज्ञ करने की बात सोची गई हो। जो हो, इन दिनों जबकि खाद्य पदार्थों की सर्वत्र कमी है, हमें उस प्रचलन पर नये सिरे से विचार करना चाहिए और किसी यज्ञ में अन्न न जलाकर वनस्पतियों से ही वह प्रयोजन पूरा करना चाहिए।

जापान के गांधी कागाव ने कालेज की पढ़ाई समाप्त होते ही दीन दुखियों की सेवा के लिए अपना जीवन लगाने का निश्चय किया। वे दरिद्रों और दुर्व्यसनियों के मुहल्ले में झोंपड़ी डाल कर रहने लगे। गुजारे के लिए नगर में जाकर कुछ घंटे काम कर लेते थे। शेष सारे दिन उन पिछड़े लोगों की सेवा साधना में लगे रहते। उनकी महानता की चर्चा धीरे-धीरे दूर-दूर तक फैलने लगी।

एक सम्पन्न परिवार की सुशिक्षित लड़की को विवाह करना था वह विलास में नहीं सेवा साधना में निरत रहना चाहती थी साथी ऐसा मिले तो मिल जुलकर दूना काम बन पड़े। इस विचार से उसने खोज जारी रखी। चर्चा सुनकर कागाव के पास पहुँची। उनकी भावना, चरित्र, निष्ठा एवं सेवा साधना देखकर मंत्र मुग्ध रह गयी। लड़की ने विवाह प्रस्ताव किया तो उत्तर मिला कि वे गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ कैसे निभा पायेंगे। इसके लिए सेवा कार्य में कटौती करने का उनका तनिक भी मन नहीं था।

युवती ने वचन दिया कि वह उन पर भार न बनेगी। उन्हीं की तरह वह भी अपने लिए कुछ उपार्जन कर लिया करेगी। प्रजनन से दूर रहेगी मातृ सेवा के आनन्द में सहभागी बनने के लिए वह विवाह कर रही है। सहमति हो गई और दोनों उसी टूटे झोंपड़े में रह कर साथ-साथ सेवा साधना में निरत रहने लगे।

कागावा दम्पत्ति ने न केवल एक मुहल्ले को सुधारा वरन् उस समूचे देश से पतन, पिछड़ेपन और दुख दैन्य को मिटाने में जुट गये। उनका कार्य क्षेत्र विस्तृत होता चला गया। अनेकानेक साथी मिले, सम्पन्न ने साधन दिये अन्त में सरकार ने भी उन्हें यह विभाग सुपुर्द कर दिया। सरकारी तंत्र की सहायता से सुधार कार्य में आश्चर्यजनक प्रगति मिली। कागावा दम्पत्ति अब संसार में नहीं हैं पर समूचे जापान में उन्हें भारत के गाँधी की तरह मान दिया जाता है। उनके चित्र घर-घर में टंगे अभी भी देखे जा सकते हैं।


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