ऋषि ऋण - विद्याऋण भी चुकायें

August 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारतीय धर्म के अनुसार मनुष्य के कंधे पर तीन ऋण लदे होते हैं और उन्हें जीवन अवधि में ही चुकाने का प्रयत्न करना चाहिए। जीवन अवधि लम्बी भी हो सकती है और कम भी। बचपन में तो व्यक्ति की समझ और क्षमता अविकसित होती है इसलिए उन दिनों तो तत्व ज्ञान समझने और धर्म धारणा से संबंधित काम करने का अवसर नहीं होता, पर किशोरावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक की अवधि ऐसी होती है जिसमें जीवन चर्या से संबंधित अन्य कामों की तरह इन धर्म ऋणों को चुकाते रहने का हर कोई कुछ न कुछ न कुछ प्रयत्न करता रह सकता है।

पितृ ऋण, विद्या ऋण और देव ऋण यह तीन धार्मिक ऋण अनायास ही हर किसी मनुष्य शरीरधारी पर लदते हैं। जिस प्रकार किसी से पैसा उधार लेने पर उसे चुकाने की भी जिम्मेदारी होती है। वही इन तीन धर्म ऋणों के संबंध में भी है। पैसे का ऋण लेकर कोई उसे चुकाये नहीं। वापस करने से इनकार करे तो उसमें उसकी बदनामी होती है और बेईमानी गिनी जाती है। धर्म ऋणों के संबंध में परोक्ष होने के कारण उतना ध्यान नहीं दिया जाता पर कर्त्तव्य की माँग यही है कि संसार से विदा होने के पूर्व अपनी ऋण मुक्ति की जिम्मेदारी को पूरा कर लेना चाहिए। जब से मनुष्य होश संभालने और कुछ पुरुषार्थ करने की स्थिति में हो उसी समय से इस संबंध में विचार और प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए।

पितृ ऋण यह है कि माता पिता और परिजन जीवन रक्षा और विकास में कई प्रकार के योगदान देते हैं। उसका बदला उन्हें मिलना चाहिए। कृतघ्नता को सबसे बड़ा पाप माना गया है। जिनसे अपने को मनुष्य जन्म मिला और विकसित करने का अवसर मिला है उनके प्रति कृतज्ञता का भाव सदा रखना चाहिए।

बड़ों को नित्य अभिवादन, स्वर्गीयों को जल तर्पण तो बिना किसी अतिरिक्त भार को उठाये सहज ही हो सकते हैं। सूर्य की अर्घ्यदान या तुलसी के पौधे में जल डालना भी तर्पण का ही छोटा रूप है। इस अभिसिंचन की श्रद्धाँजलि से हमारा कृतज्ञता भावना जीवित रहती है।

तर्पण के साथ श्राद्ध का भी विधान है। श्रद्धा के अभिवर्धन का प्रतीक स्वरूप श्राद्ध कहलाता है। पूर्वजों के नाम पर वृक्षारोपण करने की विधा सरल भी है और उपयोगी भी। जिनके पास अपनी निजी जमीन न हो वे दूसरों की या सरकारी जमीन में उपयोगी वृक्ष लगाने तथा उन्हें पाल पोस कर बड़ा करने का दायित्व अपने कंधों पर ले सकता है। जलाशयों को गहरा और साफ रखना, कच्चे रास्तों का श्रमदान से सुधार भी श्राद्ध वर्ग के लोकोपयोगी कार्यों में सम्मिलित हो सकता है। इन दिनों प्रीतिभोजों, कर्मकाण्डी या निठल्लों को भोजन करा देने के रूप में चिन्ह पूजा होती है। उसके पीछे सार्थकता का कोई समावेश प्रतीत नहीं होता।

दूसरा ऋण गुरु ऋण है जिसे इन दिनों विद्या ऋण कहना उपयुक्त होगा, क्योंकि देश में 70 प्रतिशत अशिक्षित हैं। उनका विद्या तो दूर शिक्षा तक से संबंध नहीं बना ऐसी दशा में गुरु शब्द का उपयोग व्यर्थ है। जो शिक्षित नहीं हो सका, जिसकी विवेकशीलता नहीं जगी उसे तो बिना गुरु का निगुरु ही रहना चाहिए। फिर भी जो ज्ञान किन्हीं विज्ञजनों के कथन परामर्श से मिला है, उसे विद्या ऋण कहा जा सकता है।

इस ऋण को चुकाने के लिए शिक्षितों का तो यह अनिवार्य कर्त्तव्य बनता है कि निरक्षरों को साक्षर बनावें अथवा उन्हें जीवनोपयोगी सद्ज्ञान को सत्संग के रूप में सुनाते रहें। विद्या ऋण को स्वाध्याय के रूप में भी आँशिक रूप से चुकाया जा सकता है क्योंकि जिन मनीषियों ने युग धर्म का प्रतिपादन किया है उसे यदि स्वाध्याय नहीं किया जायगा तो उनका श्रम एक प्रकार से निरर्थक चला जायगा। विद्या ऋण से उऋण होने में स्वाध्याय सत्संग की दैनिक आवश्यकता है। श्रेष्ठ विचारों की श्रवण व्यवस्था कोई भी शिक्षित कर सकता है इसलिए सत्संग कार्य हर शिक्षित सत्परामर्श देने वाले अभिलेखों को सुनते रह कर सत्संगी कहला सकता है।

इन दिनों शिक्षा संवर्धन की महती आवश्यकता है। गरीबी, बीमारी, बेकारी पिछड़ापन आदि अनेकों विपन्नतायें मनुष्य को इसलिए त्रास देती रहती हैं कि वह उस मार्ग से परिचित नहीं है कि पिछड़ेपन से पीछा छुड़ाने के लिए क्या करना चाहिए। किनने कहाँ क्या किया और दुर्गति से पीछा छुड़ाकर कैसे प्रगतिशील बने हैं, यह प्रयोजन शिक्षा के बिना किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। विद्यालय और पुस्तकालय दोनों मिलकर उस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं जिसमें अक्षर ज्ञान ही नहीं विचारशील बुद्धिमान बनने की भी आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है।

स्कूलों में 30 प्रतिशत छात्र पढ़ते हैं। 70 प्रतिशत प्रौढ़ों को अक्षर ज्ञान तक से परिचय नहीं है। वह स्थिति गरीबी से भी गई गुजरी है। इतने बड़े अभाव की पूर्ति की आशा मात्र सरकार से नहीं की जा सकती है। वह स्कूली बच्चों को उचित पढ़ाई पढ़ा ले तो भी ठीक है। अन्यथा प्रौढ़ निरक्षरों को वह पढ़ाने का प्रबंध कर सकेगी यह आशा नहीं की जा सकती। इस निमित्त प्रत्येक शिक्षित को यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि वह पाँच-पाँच निरक्षरों को साक्षर बनावेगा। जो साक्षर हैं उन्हें उस ज्ञान से परिचित करावेगा जो प्रगतिशील जीवन जीने के लिए आवश्यक है।

विद्यादान को सबसे बड़ा दान माना गया है क्योंकि उसके प्रतिफल रूप में अगले जन्म में निश्चित रूप से मनुष्य ही होना पड़ता है क्योंकि विद्या किसी और जन्म में नहीं मिल सकती। पुण्य पापों के फल तो अन्यान्यों में भी मिल सकते हैं पर विद्या का प्रतिफल प्राप्त करने के लिए तो मनुष्य बनना ही आवश्यक है। अन्य सम्पदाओं की तुलना भी विद्या धन के बराबर नहीं हो सकती।

इसलिए अपने देश की महती आवश्यकता को देखते हुए समय की माँग पूरी करने के लिए हर शिक्षित को चाहिए कि उन्हें पास पढ़ने वाले विद्यार्थियों को ही नहीं, जो शिक्षा का महत्व तक समझते नहीं उनके घरों पर जाकर भी पढ़ाने का प्रबन्ध करना चाहिए।

ढलती आयु में वानप्रस्थ ग्रहण करने की परम्परा है। वह पूरी तरह निभायें तो हर शिक्षित को आधी आयु बीत जाने के उपरान्त भोजन, भजन, स्नान की तरह ही विद्या दान का व्रत धारण करना चाहिए। पुरुषों को रात्रि का, महिलाओं को अपराह्न का और बच्चों को स्कूली समय से पहले या बाद का समय ऐसा बचता है जिसमें उन्हें घर बुलाकर या उनके घर जाकर पढ़ाया जा सकता है। इसे भी एक प्रकार का वानप्रस्थ धर्म का निर्वाह ही कहा जा सकता है।

अध्यापन एक श्रेष्ठ मनोरंजन भी है। इससे बढ़कर सम्मानास्पद कार्य दूसरा नहीं हो सकता। पढ़ने वाले ही नहीं उनके अभिभावक भी उपकार मानते हैं। अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने पर उन्हें पढ़ाने वाले सरकारी अध्यापकों को भी श्रेय मिलता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118