व्यक्तित्व मात्र वंश-परम्परा से नहीं बनता

August 1986

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शरीर के बाहरी अवयव तो जाने पहचाने हैं। पर उनके भीतर छोटे-छोटे अरबों जीव कोशों की शृंखला विद्यमान है। ये सभी अपने-अपने निर्धारित कार्यों में लगे रहते हैं। सतत् मरते और जन्मते रहते हैं। इन कोशाओं के भीतर भी एक विशाल भण्डार विद्यमान है, जिनमें अनेक रसायनों के अतिरिक्त अति सूक्ष्म इकाइयाँ हैं ‘जीन्स’। इनके भीतर गुण सूत्रों के ऐसे घटक रहते हैं जो प्रजनन प्रक्रिया में काम आते हैं। नर-नारी दोनों में ही यह घटक रहते हैं। नारी डिम्ब और नर शुक्र के अन्तःकलेवर में इन्हीं की प्रधानता रहती है। निषेचन के समय दोनों पक्ष के गुण सूत्र आपस में गुँथ जाते हैं और एक नई सृष्टि का आरंभ करते हैं। भ्रूण की स्थापना इसी आधार पर होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार शिशुओं का जन्म और उनकी विशेषता इन्हीं छोटे-छोटे इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से देखे जाने वाले घटकों की विकसित प्रक्रिया पर निर्भर है।

इस प्राथमिक जानकारी का प्राप्त होना बाल बोध की तरह आवश्यक है पर आनुवाँशिकी का उतना महत्व नहीं है, जितना कि दिया जाता है। उनका प्रभाव आरंभिक भूमिका निर्वाह के काम तो आता है, पर शिशु में वही सब गुण धर्म हों, यह आवश्यक नहीं। माता और पिता के स्वास्थ्य और मन की थोड़ी छाप शिशु में भी पाई जाती है किन्तु यह सोचना गलत है कि नवजात बालक का समूचा व्यक्तित्व, इन डिम्ब और शुक्र कीटकों की ही समन्वित अनुकृति है।

बच्चे के साथ पूर्व जन्मों के संचित संस्कार भी रहते हैं। जिन लोगों के बीच में उसे जीवनयापन करना पड़ता है, उनके वातावरण की छाप भी उस पर रहती है। शिक्षा अपना प्रभाव छोड़ती है। इसके अतिरिक्त प्राणी का निज का रुझान, चिन्तन, दृष्टिकोण भी अपनी प्रतिक्रिया - सम्मिलित करता है। भौतिक क्षेत्र की इतनी विशेषताएँ मिलकर तब वह रसायन विनिर्मित होता है, जिससे व्यक्तित्व की समग्र रूप रेखा गढ़ी जाती है।

आनुवाँशिकी विज्ञान के मूर्धन्य “जीन्स” की संरचना पर इसलिए बहुत ध्यान दे रहे हैं कि उनकी भीतरी हलचलों और विधि व्यवस्थाओं की समुचित जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त इच्छित स्तर के बच्चे जन्माये और श्रेष्ठ कोटि के मनुष्य बनाये जा सकें। इस प्रयोजन के लिए वे प्रौढ़ परिपक्व नर-नारियों को ही प्रजनन क्षेत्र में प्रवेश करने की छूट देते हैं और कहते हैं कि जिन युग्मों में अभीष्ट परिपक्वता न हो, उन्हें गर्भ धारण करने कराने का दायित्व वहन नहीं करना चाहिए। साधारण मनोविनोद ही दाम्पत्य जीवन का आनन्द है। यह मान्यता रखते हुए मैत्री भर निबाहनी चाहिए। मानवी समाज संरचना के अंग बनने वाले ऐसे नागरिक उत्पन्न नहीं करना चाहिए जो अपने लिए तथा अन्यान्यों के लिए संकट उत्पन्न करें।

किन्तु यह प्रतिपादन भी अधूरा, एकाँगी, ही है, नर-नारी के स्थूल घटक ही पूरी तरह शिशु के शरीर एवं स्वभाव का निर्माण नहीं करते। यदि ऐसा होता तो सुयोग्य संतानों का कार्य मात्र कुछ बलिष्ठ स्त्री पुरुषों के लिए रह जाता। समग्रता के लिए बलिष्ठता के साथ-साथ बुद्धि वैभव भी होना चाहिए। उनके गुण, कर्म स्वभाव भी उच्चस्तरीय होने चाहिए। जबकि ऐसा कभी सुनिश्चित नहीं होता। शरीर के रसायन काय कलेवर पर ही अपनी छाप छोड़ सकते हैं किन्तु उन गुणों को उत्तराधिकार में प्रदान नहीं कर सकते, जिनका उन्हें स्वयं अभ्यास नहीं। इस आधार पर तो यह मान्यता बनती है कि अशिक्षित जोड़े से उत्पन्न उनकी सन्तानें मूर्ख स्तर की बनी रहेंगी। न उनमें विद्या के प्रति रुचि होगी और न उनका मस्तिष्क बुद्धि की प्रखरता, शान दिखा सकने के योग्य बन सकेगा। इस प्रतिपादन के समर्थन में असंख्यों उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें अभिभावकों की तुलना में संतान में भिन्न प्रकार के गुण पाये गये। आवश्यक नहीं कि संगीतकार का बेटा संगीतकार ही हो। साहित्यकार का बेटा साहित्यकार ही हो। इसके अतिरिक्त सामान्य परिवारों में विशिष्ट योग्यताओं वाले वरिष्ठ व्यक्तियों को उत्पन्न ही कैसे किया जाय?, इसे प्रतिपादन के विपरीत अनेकानेक प्रमाण और उदाहरण विपुल संख्या में देखने को मिलते हैं।

अतएव नर-नारी की शारीरिक बलिष्ठता, सुन्दरता को महत्व देते हुए भी उनके समूचे व्यक्तित्व के परिष्कृत होने की आशा और संभावना इतने छोटे आधार में सीमित नहीं की जा सकती। यदि ऐसा कुछ है भी तो उसे उतने समय तक के लिये ही सीमित समझा जा सकता है, जब तक कि बालक पूर्णतया अभिभावकों पर ही निर्भर रहता है और उन्हीं द्वारा प्रदत्त मार्ग-दर्शन का अनुसरण करता है। पर यह स्थिति देर तक नहीं रहती। किशोर को जब स्कूल जाने में समाज संपर्क बनाने का अवसर मिलता है तो देखने सुनने को ऐसा बहुत कुछ मिलता है जो ज्ञान अनुभव अभिभावकों के पास नहीं था। ऐसी दशा में समाज सम्पर्क की प्रभाव क्षमता ही किशोरावस्था में अपनी विशेषताओं का अनुभव कराने लगती है। ऐसी स्थिति में आनुवाँशिकी को उतना महत्व नहीं दिया जाना चाहिए, जितना कि इन दिनों दिया जा रहा है।

मनुष्य न तो पशु है और न पेड़, जिसके बीजों की जाँच पड़ताल करके अच्छी नस्ल पैदा की जाय। कलमें पेड़ों में लगाई जा सकती हैं। ग्राफ्टिंग के प्रयोगों से नई-नई किस्म के खूबसूरत पौधे बनाने में मदद मिली है। क्रास ब्रीडिंग के प्रयोगों से पशु वर्ग पर भी अपवाद जितना ही प्रतिफल मिल सका है। गधे और घोड़ी के संयोग से खच्चर तो उत्पन्न हुए पर वे सभी रहे नपुँसक ही। उनमें अपना वंश चलाने की क्षमता नहीं पायी गयी। शरीरगत जीन शृंखला के आधार पर ही हम नई पीढ़ी का सृजन स्वरूप निर्धारित करेंगे तो वह मनोरथ पूरा न हो सकेगा जो मनुष्य की मौलिक विशिष्टताओं में सामान्य प्रयासों से कोई बड़ा प्रयोजन-परिवर्तन पूरा कर सके।

समर्थ भारी पीढ़ियों के निर्माण में अध्यात्म उपचारों का आश्रय लेना होगा और उस क्षेत्र में उच्चस्तरीय भाव चिन्तन का समावेश करना होगा। आदर्शों और सिद्धान्तों को यदि चेतना की गहरी परतों तक प्रविष्ट कराया जा सके तो उस भावनात्मक विशेषता का समावेश उनमें करके नई पीढ़ियों में अभीष्ट विशिष्टताएं पैदा की जा सकती हैं। प्राचीन काल के गुरुकुलों में महामानवों की ढलाई होती थी। वहाँ मात्र शिक्षा का ही प्रबन्ध न था वरन् उनके रहन-सहन, चिन्तन और संवेदना को ऐसे तत्वज्ञान में ढाला जाता था जिससे बालक वंशपरंपरा में चले आ रहे कुसंस्कारों का परिमार्जन कर सकें और गुरु-परम्परा की विशेषताओं को आत्मसात कर सकें। इस संदर्भ में अभिभावकों का उत्कृष्ट चिन्तन और उदाहरण जैसा आदर्श चरित्र भी एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।


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