वैयाकरणी कैयट (kahani)

August 1986

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वैयाकरणी कैयट का स्वास्थ्य दिन-दिन खराब होता जा रहा था। उसका कारण था, दिन को तो वह आजीविका के लिए परिश्रम किया करते थे और रात में जाग-जाग कर महाभाष्य पर टीका लिखा करते थे। उनकी पत्नी उनके स्वास्थ्य के विषय में बहुत चिन्तित रहा करती थी। वे जब-तब पति से इतना परिश्रम न करने की प्रार्थना किया करती थीं। एक बार पत्नी ने जब बहुत कहा तो उन्होंने जवाब दिया- ‘देवि! इतना परिश्रम मेरे लिए अनिवार्य है, इसके बिना मेरा जीवन शून्य हो जायेगा। तुम्हारे पोषण के लिए पति होने के नाते मुझे धनोपार्जन के लिए परिश्रम करना ही है और ब्राह्मण होने के नाते समाज के लिए ज्ञान का दान करना ही है। मैं अपन इन दोनों अनिवार्य कर्तव्यों में से किसी से- एक से भी विरत नहीं हो सकता।’ पत्नी ने उत्तर दिया- “स्वामी समाज का महत्व मुझ से अधिक है और उसके लिए ज्ञान वृद्धि का जो महान कार्य आप कर रहे हैं उससे मुक्त हो जाइये।”

कैयट पत्नी की बात सुनकर बोले- “तो फिर यह घर किस प्रकार चलेगा?” “यह उत्तरदायित्व आप मुझ पर छोड़ दीजिये” पत्नी ने कहा। “इसके लिए मेरे पास एक योजना है।”

पत्नी ने बतलाया कि आज से मैं अपने कुटीर के चारों ओर उगी हुई कुशा की रस्सियां बनाकर बेचा करूंगी और आप सर्वथा निश्चिन्त होकर सम्पूर्ण एकाग्रता से ज्ञान साधना में लग जाइये।

कैयट की आंखों में हर्षपूर्ण कृतज्ञता के आंसू आ गये और वे बोले जिसकी जीवन संगिनी ज्ञान का महत्व समझकर इतना सहयोग करने को तत्पर हो उसकी साधना भला क्यों न पूरी होगी?


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