आत्म विजेता ही विश्व विजेता

August 1986

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साधना का तात्पर्य है- आत्मानुशासन। अपने ऊपर विजय प्राप्त करने वाले को सबसे बढ़कर योद्धा माना गया है। दूसरों पर आक्रमण करना सरल है। बेखबर लोगों पर हमला करना तो और भी सरल है। इसलिये आक्रमणकारियों को योद्धा कहने का औचित्य कम ही है।

असली शत्रु हमारे कुसंस्कार हैं- जो पशु प्रवृत्तियों के रूप में अन्तरंग ही उत्कृष्टता को दबाये बैठे रहते हैं और उत्कृष्टता की दिशा में एक कदम बढ़ाने की तैयारी करते ही भारी अड़चन बनकर द्वार रोकते हैं। इनसे निपटना कम बहादुरी का काम नहीं है।

घुन लकड़ी को और विषाणु स्वास्थ्य को चौपट करते हैं। व्यसन और दुर्गुण ही मनुष्य को नीचे गिराते हैं और उसके अभ्युदय का कोई प्रयास सफल नहीं होने देते।

यदि हम अपने असली शत्रुओं को समझ पायें और उनकी जड़ों को उखाड़ पायें तो समझना चाहिए कि परम पुरुषार्थ कर गुजरने में सफलता पाई। आत्म विजेता को ही विश्व विजेता कहा है।


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