जीवन और मृत्यु से जुड़े कुछ प्रश्न

August 1986

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मनुष्य को मृत्यु का भय असाधारण रूप से सताता है। अपने किसी प्रियजन का विछोह होने पर छाती फटने लगती है और प्रतीत होता है कि वज्रपात जैसा कुछ हुआ। यह विछोह कैसे सहन हो सकेगा? किन्तु मनुष्य की मस्तिष्कीय संरचना ऐसी है जिसमें हर्ष शोक की हिलोरें सदा एक रस नहीं रहतीं। वे ज्वार भाटे की तरह आती तो हैं पर समयानुसार उनका समापन भी हो जाता है। जिन प्रियजनों की मृत्यु हो गई उनके बिना भी काम चलने लगता है।

दूसरों से भी अधिक बड़ा भय अपनी मौत का है। यों यह आशा भी बनी रहती है कि अपना मरण क्यों होगा? हमें तो अनन्त काल तक वैभव भोगना है। विलास ही में डूबे रहना है और कामनाओं की पूर्ति का सरंजाम सदा जुटाते और भोगते रहना है। किन्तु दूसरी ओर यह कल्पना भी विचलित करती रहती है कि एक दिन हमें भी मरना पड़ेगा। मरण के साथ ही अपने पराये हो जाते हैं। उनके साथ जुड़ा हुआ रिश्ता भी समाप्त हो जाता है। जिस सम्पदा को कितने परिश्रम और अनर्थ करते हुए कमाया था, उस पर से भी अधिकार उठ जायेगा। उसे दूसरे हथिया लेंगे और मनचाहा उपयोग करेंगे। न अपना परिवार रहेगा और न धन वैभव।

यहाँ तक कि जिस शरीर की चिन्ता, सज्जा, सुविधा, के लिए निरन्तर प्रयत्न किये गये; उसकी सम्पन्नता, सुन्दरता, बलिष्ठता पर इतना अभियान रहा, वह भी साथ छोड़ देगा। चिता में जलकर राख हो जायेगा और उसकी राख तक को किसी जलाशय में बहा दिया जायेगा ताकि नामो निशान कहीं कोई बाकी न रहे। क्या इसी दुर्गति के लिए शरीर को दुलराने के लिए अमूल्य जीवन काल बिताया गया था?

परिवार से संबंध टूटने, मित्र मण्डली के लिए अपरिचित हो जाने, धन वैभव छिन जाने, शरीर न रहने पर फिर अन्ततः हमें कहाँ रहना पड़ेगा। जिस भवन में जिस पलंग और बिस्तर पर नींद बिताई जाती थी, मरने के बाद उसके दर्शन तक न हो सकेंगे। उनके स्पर्श करने तक का अधिकार न रहेगा? जिन बेटे पोतों पर इतनी ममता थी कि उन्हें साथ लिये फिरने के बिना, खिलाने और हँसाने के बिना चैन न पड़ता था; अब उन्हें देख पाने, संपर्क साधने तक की गुंजाइश न रहेगी। प्राणवल्लभा पत्नी, जिसके लिए दो शरीर एक प्राण की मान्यता संजोये रखी गई, क्या वह मृत्यु के उपरान्त इतनी अपरिचित हो जायेगी कि उसके संबंध सपनों में भी न बुलाये जा सकें?

मृत्यु सचमुच बड़ी भयंकर है। इतनी भयंकर कि उसके उपरान्त कहाँ रहना, कहाँ बसना? कहाँ समय गुजारना इसका कुछ भी ठिकाना न हो। अन्धकार का भय सभी को लगता है। मरने के बाद सभी को जो कष्ट सहना पड़ता है, उससे भी अधिक व्यथा इस बात की होती है कि मरने के बाद क्या होगा? किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा? वहाँ कौन अपना होगा? किससे किसी सहायता की अपेक्षा की जा सकेगी?

जीवन भर के क्रिया-कलापों पर जब दृष्टि डाली जाती है, तब उसमें ऐसा कुछ दीख नहीं पड़ता जिसके आधार पर सद्गति की कोई व्यवस्था बनती हो? पेट और प्रजनन का ताना बाना बुनने में ही सारी आयुष्य चुक गई। फिर कुछ पुरुषार्थ किये भी तो वे मात्र अहंकार की पूर्ति के लिए। उनमें आतंक जमाने, छाप छोड़ने की ही लालसा सर्वोपरि रही। उसी के लिए चित्र-विचित्र विडंबनाएं और प्रवंचनाएं खड़ी की जाती रहीं, ऐसी दशा में मरणोत्तर, जीवन से सद्गति की आशा तो की ही कैसे जाय? यदि नरक के कोल्हू में पिसना पड़ा तो अकल्पनीय दुर्गति होगी जो कभी सोचा तक नहीं उससे पाला पड़ा तो वे व्यथा वेदनाएँ कैसे भुगती जा सकेंगी? यही है वह चिन्तन जो विचारशील मनुष्य को डराता और असमंजस में डालता है।

मूढ़मति अपेक्षाकृत नफे में रहते हैं, क्योंकि उनकी विचार शक्ति वर्तमान की ही परिधि में घूमती रहती है। ऐसे लोगों को न भूत पर पश्चाताप करने की आवश्यकता पड़ती है और न भविष्य के लिए कोई तैयारी करने की। ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है कि “सबते भले विमूढ़ जिन्हिं न व्यापै जगद्गती।” मूढ़मति लोग आगा पीछा नहीं सोचते। उन्हें जन्म की उपयोगिता और मरण की विभीषिका से भी कुछ वास्ता नहीं रहता। उद्भिज वर्षा के साथ जन्मते और शीत की लहर आते ही इंठकर ढेर हो जाते हैं। उनके लिए न जीवन, जीना है और न मरण मरना। इनकी परमहंसो या विचार शून्यों जैसी मनःस्थिति होती है।

मृत्यू एक समस्या है ऐसी समस्या, जिसका अन्त जिसका समाधान मरण ही है। वह एक-एक कदम अपनी ओर बढ़ती चली आती है और उसकी नियति यही है कि जिस पर हाथ डालती है, उसे उठा कर ही ले जाती है। उससे बचने या छिपने की भी तो कोई युक्ति नहीं है।

मरण का जितना चिन्तन अन्तिम दिनों किया जाता है उतना ही यदि समय रहते किया जा सके तो कितना अच्छा हो। यदि समय रहते चेता जा सके तो उसके लिए कुछ किया भी जा सकता है। मृत्यु को सुखद भी बनाया जा सकता है। उसकी शर्त यही है कि जीवनचर्या को ऐसे ढांचे में ढाला जाये जिसमें आत्मसन्तोष बना रहे। पवित्रता की जीवनचर्या साथ रहे। मनुष्य को उन्नत बनाने के लिए ऐसे सत्कर्म बनते रहें जिनकी परिणति सुखद भी हो और मंगलमय भी। मंगलमय इन अर्थों में जिनके पद चिन्हों पर चल कर लोग अपना भला कर सकें और वातावरण को वसन्त जैसा बना सकें। जिसके प्रवाह चलते सर्वत्र कोपलें उगने, फूल खिलने और कोयल कूकने का दृश्य दीख पड़े।

मृत्यु को भूल जाना अपने भविष्य को ही भूल जाना है। कल की चिन्ता सभी को करनी पड़ती है। किसान से लेकर व्यवसायी तक जब भविष्य निर्माण में ही लगे रहते हैं तो विचारशीलों के लिए भी यही उचित है कि वे जीवन के आरम्भ और अन्त के संबंध में सोचें।

मनुष्य जीवन का आरम्भ ईश्वर की उस अनुकम्पा के साथ होता है, जिसमें पूर्णता प्राप्त करने और लोक कल्याण में निरत रहकर पुण्य परमार्थ कमाने की निर्धारणा है। मृत्यु वह परीक्षा की बेला है जिसमें यह देखा जाता है कि उस उद्देश्य की पूर्ति किस प्रकार हुई, जिसके लिए यह बहुमूल्य धरोहर सौंपी गई थी।

मृत्यू को सुखद और मंगलमय बनाना और जीवन को सुनियोजित ढंग से जीना एक ही बात है।


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