मरकर भी जीवित बने रहने की विद्या(kahani)

August 1986

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मात्र कुढ़ते रहने से, चिन्ता की चादर ओढ़कर निष्क्रिय हो जाने से और मन ही मन कुड़ बुड़ाते रहने से किसी को रत्ती भर लाभ न तो कभी हुआ है न कभी आगे होने वाला है।

इसलिए ऐ परमेश्वर के प्यारे पुत्रों! जिन्दा ही मर जाने की बजाय तुम मरकर भी जीवित बने रहने की विद्या का अभ्यास करो। निष्क्रियता की घुटन का घेरा तोड़कर उत्फुल्ल क्रियाशीलता की खुली हवा में साँस लेना सीखो।

रेशम का कीड़ा अपना कोया खुद बुनता है और फिर उसी में घुटकर मर जाता है। घुटन की छटपटाहट से उबरने के लिए वह भी शायद हमारी ही तरह कभी विधाता, कभी व्यवस्था और कभी पड़ौसी को कोसता होगा। हमारे मन रूपी कीड़े को भी अपने ही बनाये कोयों की कैद में बंधना-घुटन पड़ता है।

‘कोयाबन्दी’ की निष्क्रियता के अँधेरे बंद तहखानों से निकलकर ऊपर आओ, ‘मानसिक कालकोठरी’ के वातायनों को सूर्य की ऊष्मा और स्वच्छ सुरभित पवन का स्वागत करने दो। तुम्हारे कुस्वास्थ्य का यही एक मात्र निदान है।

जाओ और यही संदेश अपने संपर्क में आने वाले जन-जन तक पहुंचाओ ताकि जहाँ-जहाँ भी किसी प्रकार की बुराई हो उसे दूर करने में अपनी-अपनी सीमा और शक्ति भर वे सक्रिय सहयोग दे सकें। उनकी समस्त सामर्थ्य केवल हवा के साथ लड़ने में ही व्यर्थ न चली जाये। —सेन्ट पाल

योग विद्या बनाम बाजीगरी

अब की भाँति पुरातन काल में भी बाजीगरों, जादूगरों की एक बिरादरी थी, जो लोगों को भ्रम में डालकर जहाँ उनकी विलक्षणता का भान कराती थी, वहाँ यह भी करती थी कि अपने सिद्ध पुरुष, ताँत्रिक योगी प्रसिद्ध करें भावुकजनों की श्रद्धा का दोहन करें और उन्हें अपनी जादू की क्षमता से भयभीत करके आतंकित भी करें। यह आकर्षण और आतंक उनके लिए गहरी कमाई का आधार बनता था। इतना ही नहीं इस प्रपंच को देखकर लोग उनसे कुछ पाने के लोभ से, सताये जाने के भय से चापलूसी भी करते थे। उनके साथ उलझने में डरते थे और कुछ ले देकर अपने संबंध बिगड़ने देने जैसी स्थिति नहीं आने देते थे।

ख्याति इन जादूगरों की ही सच्चे योगियों की तुलना में कहीं अधिक होती है। खाँचा तब और भी अधिक फिट बैठ जाता था जब वे अपने को योगी ताँत्रिक बताकर देवताओं और दैत्यों का प्रतिनिधि घोषित बताकर करते थे। अपनी कठिनाइयों के समाधान में उनके द्वारा समाधान किये जाने की आशा से भी लोग उनके पास पहुँचते थे और गृह शान्ति, पिशाच, निवृत्ति के लिए किये जाने वाले क्रिया कृत्यों से भारी रकमें ऐंठते थे।

अध्यात्म वेत्ताओं, तत्वज्ञानियों तथा योगी तपस्वियों की इस देश में कमी नहीं रही। उनने उसे एक आदर्श के लिए अपनाया। सद्ज्ञान वृद्धि के लिए प्रयुक्त किया और संसार में नीतिमत्ता आदर्शवादिता विकसित करने के लिए अपनी शक्ति लगाई। स्वयं अनुकरणीय मार्ग अपनाया और सन्मार्ग पर चलने की सर्व साधारण को प्रेरणा दी।

आत्म विधा में प्रपंच प्रदर्शन का निषेध है, क्योंकि उसका मूल आधार छल और भ्रम होता है। प्रकृति के हर कार्य अपने नियत नियमों के अनुसार चलते हैं। उनमें व्यतिरेक उत्पन्न हो जाये तो सर्वत्र अन्धेरगर्दी का ही साम्राज्य फैले और विश्वव्यापी सुव्यवस्था की शृंखला टूट-फूट कर बिखर जाय। कौतूहलों का प्रदर्शन अकारण नहीं होता। उसके प्रदर्शनकर्त्ता लोभ, लालच, अहमन्यता से लोगों को किसी प्रकार चंगुल में फँसाने की फिकर में रहते हैं। अपना व्यक्तिगत लाभ साधने के लिए संपर्क में आने वालों पर भी यही प्रभाव छोड़ते हैं कि वे दैवी शक्तियों के ऐजेन्ट होने के नाते दूसरों को लाभ पहुँचा सकते हैं या हानि करते हैं। भय और प्रलोभन ही उनके द्वारा अस्त्र रूप में प्रयोग किये जाते हैं, जिसके जाल जंजाल में फँसे हुए कितने ही अविचारी उनके पीछे सस्ते लाभ के निमित्त लग लेते हैं और अन्त में प्रवंचना, विडम्बना, निराशा एवं पश्चाताप का असमंजस सहते हुए सिर धुनकर अपने घर बैठते हैं, क्योंकि जो आशा दिलाई गई थी, जो कौतुक लीला दिखाई गई थी, वह समयानुसार मिथ्या सिद्ध होती है। तब दो ही रास्ते शेष रह जाते हैं कि ढोल की पोल को निकालें अथवा वैसी ही धूर्त्तता अपनाकर दूसरों का शोषण करें।

मध्यकाल में वाममार्ग का अत्यधिक प्रचलन रहा है योगियों का स्थान ताँत्रिकों ने ले लिया था। दैत्यों और दानवों के मायाचार पूर्व काल में भी प्रसिद्ध थे। वे देवताओं से इन प्रपंची कुचक्रों के आधार पर ही भारी पड़ते और जीतते थे। इससे घटिया वह प्रक्रिया है जिसके बलबूते सामान्य मानव स्तर की प्रतिभा रहते हुए छल कपट के आधार पर दृष्टि बंध जैसे उपचार किये और चमत्कार दिखाये जाते थे। इसके लिए न योग स्तर की दैवी साधना करनी पड़ती थी और न दैत्य दानवों वाली कठोर अघोरी तंत्र साधना। इसका ढाँचा प्रपंचों, अफवाहों किम्वदंतियों तथा षडयंत्र के रूप में बनाकर अघटित को घटित दिखाने का उपक्रम किया जाता था। कोई विशेष अनुभूति न होने पर भी किसी को षडयंत्र में सम्मिलित करके उसके मुख से अद्भुत घटित होने का बयान करवाना, अन्यों का उस पर विश्वास होना यह अपने ढंग का प्रपंच है।

आधुनिक मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म प्रणाली को दृष्टिबंध भी कहते हैं। उनमें प्रयोक्ता की प्रबल इच्छा शक्ति किसी अधिकृत व्यक्ति पर आच्छादित हो जाती है और फिर वह अपने मनोबल को दूसरे के मनोबल में इस प्रकार ठूँस देता है कि वह प्रयोक्ता के इशारे पर ही नाचता है। वह जैसा रहता है वैसा ही सोचता, करता, देखता या अनुभव करता है। इन दिनों इस उपचार का रहस्य पुस्तकों में आने लगा है और बताया जाने लगा है कि यह योगाभ्यास नहीं है वरन् मनोबल के आधार पर उत्पन्न किया गया चित्त विभ्रम है। इस स्थिति में फँसा हुआ व्यक्ति दिवास्वप्न देखता है और जिसका अस्तित्व नहीं है उसका भी अनुभव करता है।

इस स्तर के प्रयोक्ता मध्यकाल में यज्ञ (मख) करवाते थे। वे योगियों की तरह सम्मानित नहीं होते थे और न दैत्यों जैसा उनका आतंक होता था। फिर भी किन्हीं उपकरणों रसायनों के आधार पर वे ऐसे कृत्य करते थे जिन्हें देखकर दर्शक आश्चर्यचकित रह जाते थे और हतप्रभ होकर उन्हें सिद्ध पुरुष मानने लगते थे। इससे भी छोटी एक और श्रेणी थी जिसे विद्याधर कहते हैं। बाजीगर, जादूगर, कीमियागर उसी से मिलता जुलता शब्द है। आज के बाजीगर तो अपनी-अपनी कला प्रदर्शन के साथ-साथ इस तथ्य को प्रकट भी कर देते हैं कि उनका करतब हाथ की सफाई चालाकी मात्र है। इसमें योग सिद्धि जैसी कोई बात नहीं है। पर मध्यकाल में इस हथफेरी के अभ्यासी अपने को विद्याधर घोषित करने लगे थे और गाँव गोठ के ओझा सयाने दिवाने स्तर के भूत, जिन्न, डाकिनी, शाकिनी आदि सिद्ध होने का दावा करते थे। इस छद्म के सहारे उन्हें अपनी अलौकिकता सिद्ध करने का अवसर मिलता था। योगी तपस्वियों की श्रेणी में तो वे सम्मिलित नहीं हो पाते थे पर जन साधारण को मूर्ख बनाने और लूटने में उन्हें बढ़ चढ़कर सफलता मिल जाती थी।

हिंदू इतिहास पुराणों में तो दानवी मायाचार का ही वर्णन है। पर जैन बौद्ध कथानकों में विद्याधरों के कुकृत्यों का मनोरंजक वर्णन है। इस वर्ग के लिए अपने कुचक्रों का प्रत्यजन्य सिद्ध करने के लिए और उन्हें अपनी इच्छित मनौती पूर्ण कराने के लिए सहमत करने हेतु पशु बलि या न बलि देने का भी आडम्बर खड़ा करते थे। वे स्वयं ऐसा अनाचार करते या लोलुपों को सब्जबाग दिखाकर उनसे कुकृत्य कराते थे।

अध्यात्मवेत्ताओं द्वारा ऐसे कौतूहल प्रदर्शन की निन्दा की गई है और उस अनाचार में संलग्न लोगों को अपने समुदाय में सम्मिलित न करने का प्रतिबन्ध रखा है। बुद्ध काल में एक नट साधु वेष बनाकर किसी राजा द्वारा ऊपर लटकाया हुआ स्वर्ण कमंडलु उतार लाया था। राजा प्रजा सभी को सभी को अपना शिष्य बना आया था। जब यह कमंडलु वाला प्रसंग बुद्ध तक पहुँचा तो उन्होंने उस पात्र को चूर्ण विचूर्ण बनाकर नदी में प्रवाहित करा दिया और इन प्रपंचों से सभी को सावधान कर दिया।

जैन साहित्य में इन उपचारों को कुहेट्ट विज्जा नाम से जादूगरी वर्ग में रखा है। कहीं-कहीं उसका नाम तालोह घटिनी विज्जा भी कहा गया। इनका स्वरूप है लोगों में कौतुक प्रदर्शन करना। साधारण जनों को आश्चर्यचकित कर देना। कैक्रिय विज्जा, जंद्याचरण विज्जा, नाम से भी इन मलिन विद्याओं के स्वरूपों का तिरस्कार पूर्ण वर्णन किया गया है।

जैन गाथाओं में अंजनचोर और रोहिणक तस्कर की शताधिक गाथाएँ पाई जाती हैं जिसमें वे दिन दहाड़े लोगों को भ्रम में डालते, श्रद्धा संजोते और उनके धन का अपहरण कर लेते थे। अनेकों को ठगने के बाद वे साधु वेशधारी राज पुरुषों द्वारा पकड़े गये और पकड़कर बंदी गृह में प्रताड़ित किए गये। जैन साहित्य में कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न को एक विद्याधर द्वारा फुसला कर अपहरण कर लिये जाने का प्रसंग है। आकाश में हाथ मारकर खाद्य वस्तुएँ उत्पन्न करना और इन्हें इच्छुकों को खिला देना हिप्नोटिज्म स्तर का प्रयोग है। कलाबाजी के सहारे या हाथ की सफाई से बालों में से रंगीन धूलि निकाली जा सकती है या किसी वस्तु में चतुरता पूर्वक इत्र लगाकर उसे सुगंधित होने का भ्रम कराया जा सकता है।

गाँव गोठ में फिरने वाले बाजीगर भी बालकों या बालबुद्धि वालों को भली प्रकार मंत्रमुग्ध कर लेते हैं। वे डिब्बे में आकाश से छीन-छीन कर रुपये या सिगरेटों का ढेर लगा देते हैं। हथेली पर सरसों जमा देते हैं। बड़े श्रेणी के जादूगर अधर में लटकते किसी का अंग भंग करके उसे जोड़ देने जैसे काम करते हैं। काँच ब्लेड या जहरीले साँप निगल जाते हैं। कई साँप पेट में उतार कर फिर उन्हें बाहर निकाल लेते हैं। उन बड़े तमाशों में भी वास्तविकता नहीं होती, मात्र ऐसा प्रपंच रचा जाता है जिसे सामान्य बुद्धि सहज विश्वास के कारण उसे घटित मान ले और जो चालाकी की गई है उसे पकड़ पहचान न सके।

इस प्रकार के करतबों को ऋद्धि सिद्धियाँ मानना भूल है। सिद्धियाँ प्रदर्शन के लिए नहीं होतीं। उनका विज्ञापन नहीं किया जाता। समाधि लगानी हो तो मोक्ष प्राप्ति के लिए उसे किसी एकान्त गुफा में लगाना चाहिये। चौराहे पर गड्ढा खोदकर उसमें काम चलाऊ साँस का प्रबन्ध रखना। पीछे उसके खुलने पर जय जयकार कराना भेंट पूजा में ढेरों रुपया एकत्रित कर लेना, नई जगह जाकर वही नया तमाशा फिर दुहराना, यह सब एक प्रकार का व्यवसाय है। इसमें योग की चरम स्थिति समाधि का उपहास होता है। समाधिस्थ व्यक्ति जीवन मुक्त स्तर के होते हैं। उन्हें प्रदर्शन करने, वाह-वाही लूटने, और पुजापा बटोरकर घर भरने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

सन्त पुरुषों और बाजीगरों का अन्तर स्पष्ट है। सन्त व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाने के लिए कषाय कल्मषों का हनन करने वाली आत्मशोधन साधना करते हैं। जीवन को सरलतम, अपरिग्रही, तपस्वी स्तर का बनाते हैं। वे लोकेषणा को आत्म मार्ग का सबसे बड़ा व्यवधान मानकर ऐसे प्रपंच नहीं रचते जिसमें उनकी जय-जयकार बुले। यह सब तो सेवा मार्ग पर चलने वाले परमार्थ परायण महा पुरुषों के जन मंगल वाले कृत्य सामने आने पर अनायास ही होता रहता है। मजमा लगाने या विज्ञापन बाजी करने की आवश्यकता तो उन्हें पड़ती है जिनके पास उत्कृष्टता तो है नहीं, मात्र पोले ढोल को बजाते और नगाड़े जैसी धूम मचाते हैं। अन्त में भर्त्सना और प्रताड़ना ही उनके हाथ लगती है। इन प्रपंचियों के कुचक्र में फँसकर भोले भावुकों को अपनी श्रद्धा का व्यतिरेक न करना पड़े, श्रद्धा का दोहन न होने पाये, इसलिए उन्हें समय रहते अध्यात्मवेत्ताओं द्वारा योग का तत्वज्ञान समझाया जाना चाहिए और कहा जाना चाहिए कि यह आत्मशोधन की उच्चस्तरीय विधा है। जिसे यह सुयोग हस्तगत होता है वह उसका उपयोग जन मानस के परिष्कार, समाज के सुगठन एवं परमार्थ प्रयोजनों के अतिरिक्त और किसी काम में नहीं करता। प्रदर्शन करने पर तो आदिकाल से ही नियन्ता का प्रतिबंध लगा हुआ है।


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