संकीर्ण स्वार्थपरता नितान्त घातक

August 1986

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स्वार्थ सबको प्रिय लगता है। हर किसी की स्वाभाविक मनोवृत्ति स्वार्थ साधन की होती है। उसमें कुछ बुरा भी नहीं है। जो आत्म हित कर सकता है वही दूसरों को सुखी समुन्नत बनाने में भी सहायक हो सकता है। जो स्वयं ही ठूँठ है वह दूसरे किसी की क्या सहायता करेगा?

निन्दा स्वार्थ की नहीं संकीर्ण स्वार्थ की की गई है। संकीर्ण स्वार्थ वह है जिसमें तात्कालिक लाभ तो दिखता है पर उसके फलस्वरूप आने वाली विपत्ति की ओर से आँखें बन्द ही बनी रहती हैं।

दूरगामी स्वार्थ साधन के लिए मनुष्य को अपना, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार सुधारते हुए व्यक्तित्व को खरे सोने जैसा बनाना पड़ता है, जिसका मूल्याँकन कहीं भी हो सके। अपनी गरिमा को गिरा कर जो स्वार्थ साधा गया है यह तो वस्तुतः अनर्थ है। अनर्थ को स्वार्थ समझने की भूल अदूरदर्शी ही करते हैं।

उच्चस्तरीय स्वार्थ को ही परमार्थ कहते हैं। परमार्थ का अर्थ लुटा देना नहीं, बीज बोना है, जो अनेक गुना होकर उगे। भावुकता में विवेक खो बैठने वाले और झूठी वाह-वाही में फूल जाने वाले लोग बहुधा परमार्थ के नाम पर भी ऐसे काम करते हैं जिससे प्रदर्शन तो होता है, पर किसी प्रकार का हित साधन नहीं।

दूसरों को घाटा देकर साधा हुआ स्वार्थ प्रकारान्तर से अपना ही अहित करता है। वस्तुस्थिति प्रकट होने पर जिसे स्वार्थ की लपेट में लिया गया है वही नहीं, वरन् उस प्रसंग से अवगत सभी लोग सावधान हो जाते हैं और उसकी उचित बातों पर भी विश्वास नहीं करते।

परमार्थ में दूसरों को स्वार्थ प्रधान समझा जाता है और अपने लाभ को गौण माना जाता है। लोकसेवी, परोपकारी, सन्तजन और महापुरुष अपने जीवन की यही नीति बनाते हैं। फलतः वे लोगों की श्रद्धा, विश्वास, स्नेह, सम्मान और सहयोग इतनी अधिक मात्रा में अर्जित कर लेते हैं जितना बहुत पूँजी खर्च करके भी हस्तगत नहीं किया जाता। महामानवों को लोकसेवा के बल पर ही सौभाग्य भरे अवसर मिलते हैं। लोक विश्वास जो जितनी मात्रा में उपलब्ध कर सका, वह उतना ही ऊँचा उठा और आगे बढ़ा है। यह परमार्थ का ही प्रतिफल है। बीज गलकर विशाल वृक्ष के रूप में इसी आधार पर विकसित होता है।

ओछे स्वार्थ साधने में मनुष्य यह भूल जाता है कि अपने लाभ के लिए दूसरों को कितनी हानि पहुँचाई जाती है। इस प्रकार कमाया हुआ तात्कालिक लाभ मनुष्य का सामाजिक सम्मान गिराता है और अन्तरात्मा को इतना कलुषित कर देता है कि वह दुष्प्रवृत्ति परायों को ही नहीं अपनों को भी चपेट में ले लेती है। अपनों के साथ किया गया दुर्व्यवहार तत्काल न सही कालान्तर में प्रबल प्रतिरोध के रूप में प्रकट होता है। भले ही उसका कारण और स्वरूप कुछ भी क्यों न हो। स्वार्थी के प्रति सभी की दृष्टि आशंका भरी रहती है और यही संदेह बना रहता है कि अपने मतलब के लिए हमें गर्त में न गिरा दे। जिनको इस स्वार्थ से लाभ मिलता है वे साझीदार भी चौकन्ने रहते हैं। उसको नहीं मानते। वरन् समझते हैं कि यह सब अपनी आदतों के वशीभूत होकर कर रहे हैं। ऐसे व्यक्ति से तथाकथित मित्र संबंधी भी चौकन्ने रहते हैं और उससे अनुचित लाभ उठाने में भी नहीं हिचकते। अतः स्वार्थ वही उचित है जिसमें परमार्थ जुड़ा हो।


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